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(Trigger Warning: इस स्टोरी में सुसाइड (suicide) का जिक्र है. अगर आपको खुद को चोट पहुंचाने के ख्याल आते हैं या आप जानते हैं कि कोई मुश्किल में है, तो मेहरबानी करके उनसे सहानुभूति दिखाएं और स्थानीय इमरजेंसी सर्विस, हेल्पलाइन और मेंटल हेल्थ NGO के इन नंबरों पर कॉल करें.)
देश के कुछ शहरों में बोर्ड एग्जाम से पहले और उसके दौरान बच्चों की आत्महत्या से मौत की खबरें सामने आ रहीं हैं. हालांकि, कुछ मामलों में अभी इसके पीछे की वजह स्पष्ट नहीं हुई है. पर ये कोई नई बात नहीं है, कई सालों से ऐसे मामले सामने आ रहे हैं.
कई बार बच्चों पर अच्छा रिजल्ट लाने का प्रेशर इतना बढ़ जाता है कि वे उसे झेल नहीं पाते और जिंदगी से मुंह मोड़, सबसे दूर चले जाते हैं.
अपने बच्चे को खोने का दर्द दुनिया के किसी भी दूसरे दर्द से बड़ा होता है. ऐसा दर्द कभी भी किसी माता-पिता को न सहना पड़े, इसी उम्मीद के साथ फिट हिंदी ने बच्चों में बढ़ते बोर्ड एग्जाम और रिजल्ट के प्रेशर पर मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट्स, एक प्रतिष्ठित स्कूल के प्रिंसिपल और एक स्टूडेंट से बात की और जाना कि बच्चों के मामले में हमसे कहां गलती हो रही है? बच्चों में आत्महत्या के लक्षणों को कैसे पहचानें? कैसे रिजल्ट के प्रेशर में दबे बच्चों की मदद करें?
बीते हफ्ते दिल्ली, नोएडा और ओडिशा में छात्रों की सुसाइड से मौत के मामले सामने आए हैं. दिल्ली में सीबीएसई बोर्ड परीक्षा से पहले दसवीं के छात्र की सुसाइड से मौत हो गई. नोएडा में 12वीं बोर्ड की परीक्षा देने के बाद छात्रा ने अपनी जिंदगी खत्म कर ली. वहीं ओडिशा में 10वीं और 12वीं के छात्रों की सुसाइड से मौत की खबर सामने आई.
आए दिन खबरों में बच्चों की आत्महत्या से जान गंवाने का मामला सामने आता है.
फिट हिंदी से बात करते हुए मेंटल हेल्थ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि स्टूडेंट्स में आत्महत्या के मामलों के लिए सिर्फ खराब मेंटल हेल्थ जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसके पीछे पूरा सामाजिक और आर्थिक ढांचा जिम्मेदार है. बचपन से ही उन्हें कंपीटिशन और सफलता जैसे बड़े शब्दों से परिचित करा दिया जाता है.
ऐसा नहीं है कि बच्चों से उम्मीद नहीं लगानी चाहिए. लेकिन अपने बच्चे की क्षमता को जानते-समझते वास्तविक उम्मीदें रखें.
बोर्ड परीक्षा के दबाव और स्ट्रेस के कारण कई बच्चे अपने आपको निराश और बेकार महसूस करते हैं, जो उन्हें डिप्रेशन और एंजाइटी की ओर ले जा सकता है. हर साल यह समस्या बोर्ड एग्जाम देने वाले बच्चों को प्रभावित करती है और अगर इस पर ध्यान नहीं दिया जाए तो यह बेहद गंभीर हो सकती है.
ग्रेजुएशन कर रहे एक स्टूडेंट, अखिल* (बदला हुआ नाम) ने फिट हिंदी से बात की.
अखिल कॉमर्स के छात्र हैं और इस समय पुणे के एक कॉलेज से अपना ग्रेजुएशन कर रहे हैं. 3 साल पहले पढ़ाई के प्रेशर ने उनसे जीने की चाह छीन ली थी.
वो बताते हैं कि साइंस सब्जेक्ट उन्हें समझ नहीं आ रहा था. घंटों पढ़ने पर भी कुछ समझ नहीं आता. क्लास में सही जवाब नहीं दे पाने की शर्म उन्हें अंदर ही अंदर खा रही थी.
12वीं के एग्जाम में रिजल्ट खराब होने पर वो पूरे दिन घर नहीं गए.
अखिल के पेरेंट्स चाहते थे कि वो साइंस पढ़े और इंजीनियर बन परिवार का नाम रोशन करे. माता-पिता का सपना और 'लड़के साइंस ही पढ़ते हैं' वाली सामाजिक सोच ने अखिल को साइंस विषय में इंटरेस्ट नहीं होने की बात को अपने पेरेंट्स को बताने से रोक दिया.
डॉ. संजय सचदेव फिट हिंदी से बात करते हुए आगे कहते हैं,
"उसके बाद बात 11वीं क्लास की करते हैं जब पेरेंट्स कहते हैं कि मैं इंजीनियर हूं तो मेरा बच्चा भी इंजीनियर बने, जिससे कहीं न कहीं एक दबाव आता है. खासतौर पर मैथ्स सब्जेक्ट पर. हम देखते हैं कि बच्चे में उस विषय को ले कर ओरिएंटेशन नहीं है फिर भी पेरेंट्स का अक्सर दवाब रहता है कि आप वो सब्जेक्ट पढ़ो."
छोटे शहर में रह बड़े सपने देखने वाले अखिल ने एग्जाम और रिजल्ट के प्रेशर के कारण 2 बार आत्महत्या करने की कोशिश की.
कुछ आम आत्महत्या के लक्षण जो कि बच्चों में देखने को मिलते हैं:
दिनभर चिड़चिड़ाना
अकेले उदास रहना
पढ़ाई में बिल्कुल मन न लगना
अपनी पसंदीदा एक्टिविटी न करना
खाने या सोने में समस्या होना
वजन कम होना
खुद को चोट पहुंचने की कोशिश करना
अगर आपको लगता है कि किसी बच्चे में इसी समस्या है, तो तुरंत उनकी तरफ ध्यान दें और अकेला न छोड़ें.
हर स्कूल के फंक्शन करने का अपना तरीका होता है और सभी बच्चों की भलाई के बारे में सोचते हुए बोर्ड एग्जाम के लिए एक प्लानिंग कर चलते हैं.
डॉ. संजय सचदेव कहते है कि वो अपने स्कूल में पहले दिन से बच्चों के एटीट्यूड को पॉजिटिव रखते हैं कि बोर्ड एग्जाम का स्ट्रेस नहीं लेना है. उसके लिए चाहे क्लास टीचर हों या स्कूल की लीडरशिप हो या स्कूल काउंसलर हों, वो नियमित रूप से बच्चों से बातचीत करते रहते हैं.
एक्सपर्ट डॉ. संजय गर्ग कहते हैं कि नेशनल एजुकेशन पॉलिसी में तो बदलाव आ गया है पर सोसाइटी अभी भी वहीं खड़ी है जहां कई सालों पहले थी.
जब बच्चे में खुद को नुकसान पहुंचाने वाले लक्षण दिखने लगे तब उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहिए और न ही किसी तरह का दबाव डालना चाहिए.
एक्सपर्ट्स ये भी सलाह देते हैं कि घर में अगर किसी तरीके के डेंजरस ऑब्जेक्ट हो जैसे शार्प ऑब्जेक्ट्स या किसी तरीके का इंसेक्टिसाइड हो तो उन सब को एक सेफ जगह पर लॉक करके रख दें.
पेरेंट्स को अगर ऐसा लग रहा हैं उनके बच्चे को काफी ज्यादा अकेलापन महसूस हो रहा है या बच्चे के व्यवहार में बदलाव आ रह है, तो उन्हें तुरंत एक मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल से मदद लेनी चाहिए.
बिना बोले मदद के लिए तरसती आंखों से देखता बच्चा, हम सभी से उसे अव्वल होने वाली रेस की दलदल से निकालने की गुहार कई बार करता है, पर हम अक्सर चूक जाते हैं. समझ नहीं पाते कि वो खुद को कमजोर नहीं दिखाने की कोशिश में उलझता जा रहा है.
वहीं लोग क्या कहेंगे की चिंता अपने जिगर के टुकड़े की जिंदगी से बड़ी होती जा रही , ये हम देख नहीं पाते या कभी-कभी देख कर भी 'आग में तप कर सोना कुंदन बनाता है' वाले मुहावरे के पीछे छिप बैठते हैं.
अगर सचिन तेंदुलकर या पी टी उषा के पैरेंट्स ने भी अपने बच्चों पर पढ़ाई का प्रेशर दिया होता तो यकीनन आज वो भारत रत्न न होते.
डॉ. सचिन बालिगा के मुताबिक आजकल कई पेरेंट्स बच्चों को अचीवर्स बनाने की कोशिश करते हैं. बहुत सारी चीजों में बहुत अच्छे तरीके से आगे बढ़ना, मल्टीपल क्लासेस, एग्जाम में एनरॉल करते हैं, लेकिन अगर किसी चीज में सफलता न मिले तो उसको कैसे मैनेज करें, इसके बारे में कोई चर्चा नहीं करता है.
काफी बार बच्चों को फेलियर क्या होता है, फेलियर को कैसे डील करना है, जब किसी प्रकार का सेट बैक लाइफ में आता है, तो उसे कैसे मैनेज करना है, इस बारे में जानकारी या ट्रेनिंग कभी दी ही नहीं जाती है.
नंबर कम आने पर कई बार स्कूल में या घर पर बच्चे को मजाक बनाया जाता है. फिर दूसरे बच्चों के साथ या अपने खुद के भाई बहनों के साथ उनकी तुलना की जाती है.
अखिल ने भी इस बात का जिक्र किया कि उसे पता ही नहीं था कि वो फेलियर से कैसे डील करें?
डॉ. सचिन बालिगा कहते हैं कि स्कूल और घर में ऐसा माहौल होना चाहिए कि अगर बच्चे को कम मार्क्स मिले तो भी वह एक मामूली बात लगे और अगली बार इससे बेहतर करने की इच्छा से वो आगे बढ़े.
माता-पिता और बच्चों के बीच में कम्युनिकेशन गैप हो तो उन्हें पता ही नहीं रहता कि उनके बच्चे क्या कर रहे या सोच रहे हैं. अपने बच्चे को टाइम दें, उसे समझें.
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