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केरल हाईकोर्ट ने 22 दिसंबर को एक 12 वर्षीय नाबालिग लड़की की प्रेगनेंसी को मेडिकली टर्मिनेट करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया. आरोप है कि बच्ची के अपने नाबालिग भाई से शारिरिक संबंध थे, इससे वो कारण वो गर्भवती हो गई. अब केरल हाईकोर्ट से अबॉर्शन कराने की अनुमति मांगी गई थी.
2 जनवरी को रिपोर्ट किए गए फैसले में, अदालत ने कहा कि क्योंकि भ्रूण पहले ही 34 सप्ताह का हो गया है और "पूरी तरह से विकसित" है, "इस पॉइंट पर गर्भावस्था को समाप्त करना असंभव नहीं तो उचित भी नहीं है."
सबसे पहले जानते हैं मामला क्या है?
नाबालिग लड़की के माता-पिता ने गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति मांगी क्योंकि प्रेगनेंसी को पूरा करने से उसे फिजिकल और साइकोलॉजिकल ट्रॉमा हो सकता था. अदालत ने यह भी कहा कि माता-पिता को हाल तक प्रेगनेंसी के बारे में पता नहीं था, इसलिए वे इस बारे में जल्द कुछ नहीं कर सके.
फैसले में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अनसुने रह गए:
भाई की उम्र कितनी थी?
उनका रिश्ता क्या है?
क्या यह सहमति से था?
क्या यह सिबलिंग एब्यूज था?
फिट से बात करते हुए, बायोएथिसिस्ट और सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील रोहिन भट्ट कहते हैं, हालांकि, ये महत्वपूर्ण सवाल हैं, इस मामले में एक और असामान्य कारक सामने आता है.
हालांकि, अदालत ने बोर्ड को सिफारिशों को रिव्यू करने का निर्देश देते हुए कहा कि रिपोर्ट 'बहुत स्पष्ट नहीं' थी.
21 दिसंबर को एक दूसरे मेडिकल बोर्ड के रिव्यू में सर्वसम्मति से राय दी गई कि गर्भावस्था को "मां के साइकोलॉजिकल हेल्थ को गंभीर रूप से प्रभावित किए बिना" फुल टर्म तक रखा जा सकता है.
"मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट पर दोबारा गौर क्यों किया जा रहा है? जब पहली रिपोर्ट आई थी, तब भी वह 34 सप्ताह की गर्भवती थी, तो उनका निर्णय क्यों बदला गया?" भट्ट कहते हैं.
फिट से बात करते हुए, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के सेंटर फॉर जस्टिस, लॉ एंड सोसाइटी (सीजेएलएस) की निदेशक और कानून की प्रोफेसर दीपिका जैन कहती हैं कि यहां समस्या यह है कि "डॉक्टरों (मेडिकल बोर्ड में) से कहा गया कि तय करें कि प्रेगनेंसी को फुल टर्म तक बनाए रखना 'मेडिकली संभव' है या नहीं,".
रिव्यू रिपोर्ट में यह भी कहा गया, "इससे शिशु के समग्र परिणाम (overall outcome) को बेहतर बनाने में भी मदद मिलेगी."
भट्ट कहते हैं, "इससे यह आभास होता है कि नाबालिग लड़की की शारीरिक और साइकोलॉजिकल वेलबिंग पर फोटल वायबिलिटी (foetal viability) को प्राथमिकता दी जा रही है."
जैन कहते हैं, ''भारत में मेडिकल एबॉर्शन कराने में जिन लोगों को सबसे अधिक परेशानी होती है, वे किशोर हैं.''
भट्ट और जैन दोनों बताते हैं कि यह मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) एक्ट और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) एक्ट की कुछ लिमिटेशंस से जुड़ा हुआ है - ये दो कानून हैं, जो नाबालिग की गर्भावस्था की समाप्ति के मामले में लागू होते हैं.
खास कर के ये दो क्लॉज:
एमटीपी एक्ट 2021 के अनुसार, एक नाबालिग केवल एडल्ट गार्जियन की सहमति से ही एबॉर्शन करा सकती है.
POCSO एक्ट के अनुसार, किसी भी व्यक्ति को नाबालिग से जुड़े यौन संबंध के बारे में जानकारी होने पर पुलिस को इसकी सूचना देनी होगी.
हाल ही में, डॉक्टरों को इस क्लॉज से अलग किया गया था. जैन कहते हैं, "फिर भी इस पर अमल नहीं हो रहा है. इसमें कोई सरकारी आदेश नहीं है."
इसके अलावा, एमटीपी एक्ट यह भी कहता है कि 24 सप्ताह से अधिक, गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति केवल मेडिकल बोर्ड की अनुमति के अधीन होगी. जैन कहते हैं, "इस तरह के मामलों में, ज्यूडिशियल ऑथोराइजेशन ही मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण ( fundamentally flawed) है. इसे इस पूरे फ्रेमवर्क का हिस्सा नहीं होना चाहिए."
उदाहरण के लिए, मई में इसी तरह के एक मामले में, केरल हाई कोर्ट ने एक 15 वर्षीय लड़की की मेंटल और सोशल वेलबीइंग पर पॉसिबल इंपैक्ट के आधार पर प्रेगनेंसी को खत्म करने की अनुमति देते हुए कहा था: "फैक्ट्स को ध्यान में रखते हुए, बच्चा अपने ही सिबलिंग (sibling) से पैदा हुआ है, विभिन्न सामाजिक और चिकित्सीय (medical) जटिलताएँ उत्पन्न होने की आशंका है."
जिन एक्सपर्ट्स से हमने बात की, उनका कहना है कि केरल हाई कोर्ट का यह फैसला, खासकर जब इसी तरह के दूसरे हालिया (recent) मामलों के साथ देखा जाता है, तो यह एक चिंताजनक मिसाल कायम करता है.
भट्ट, 16 अक्टूबर, 2023 को पारित सुप्रीम कोर्ट के हालिया उल्लेखनीय फैसले का हवाला देते हैं, जिसने एक विवाहित महिला की 26 सप्ताह की गर्भावस्था की मेडिकल टर्मिनेशन को स्थगित कर दिया था, जिसे एक दूसरे पीठ द्वारा गर्भपात की अनुमति दी गई थी.
"तब भी जो तर्क दिया गया था वह यह था कि फीटस वायबल (foetus viable) है, जीवित रहने की अनुकूल संभावना है, और इसलिए गर्भावस्था को पूरा किया जाना चाहिए," वे आगे कहते हैं, "यह पहली बार था कि ऐसा कुछ हुआ है. "
"भ्रूण संबंधी विसंगति (Fetal anomaly) उन दो कारणों में से एक है, जिसकी वजह से इसकी अनुमति दी गई है. लेकिन अगर किसी विसंगति के साथ भ्रूण को समाप्त करना सुरक्षित है, तो इसे ऐसे भी सुरक्षित क्यों नहीं माना जाता है?" वह पूछती हैं.
वो आगे कहती हैं:
"ऐसे निर्णयों का एक दुष्परिणाम यह हो सकता है कि 24-सप्ताह की सीमा धीरे-धीरे कठिन सीमा बन जाएगी जिसके बाद गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति नहीं दी जाएगी, भ्रूण संबंधी विसंगति और याचिकाकर्ता के जीवन के लिए जोखिम के मामले को छोड़कर."
सोशल स्टिग्मा, टैबू और साइकोलॉजिकल ट्रॉमा से परे, फिजिकल ट्रामा भी है. फिट से बात करते हुए स्त्री रोग विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसे शारीरिक कारण भी हैं, जिनकी वजह से बहुत कम उम्र की लड़कियों में गर्भधारण को हतोत्साहित (discouraged) किया जाता है.
दिल्ली के सीके बिड़ला अस्पताल में प्रसूति और स्त्री रोग विशेषज्ञ, सलाहकार डॉ. प्रियंका सुहाग कहती हैं, "उस स्टेज में एक बच्चा प्रेगनेंसी से गुजरने के लिए साइकोलॉजिकल और फिजिकल रूप से तैयार नहीं होता है."
फैक्ट यह है कि, इस मामले में, मेडिकल बोर्ड यह कहते हुए सिजेरियन डिलीवरी की सिफारिश करता है, "मां की कम उम्र के कारण सामान्य डिलीवरी असंभव हो सकती है," यह भी इसका एक प्रमाण है.
पहले फिट से बात करते हुए, डॉ नोज़र शेरियार, जिन्होंने भारत के मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 पर काम किया है, ने कहा कि हमारे गर्भपात कानूनों (abortion law) में सुधार करना और असुरक्षित गर्भपात की संख्या को कम करना एक महत्वपूर्ण कदम है. "15 वर्ष से कम आयु की किसी महिला की 20 वर्ष से अधिक आयु की महिला की तुलना में गर्भावस्था से मरने की आशंका पांच गुना अधिक होती है."
डॉ. सुहाग अब इसे दोहराते हुए समझाते हैं:
"इस उम्र में, एक युवा किशोर का शरीर प्रेगनेंसी, डिलीवरी और पोस्टपार्टम केयर के लिए भी तैयार नहीं होता है."
डॉ. शेरियार ने यह भी बताया कि ऑटोनोमी की कमी और उचित चिकित्सा देखभाल तक पहुंच भी उन्हें जोखिम में डालती है.
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