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World IVF Day: "आईवीएफ एक तकलीफदेह प्रक्रिया," अपना अनुभव बताती ये महिलाएं

समस्या चाहे पति में हो, आईवीएफ की कठिन प्रक्रिया से गुजरना महिला को ही पड़ता है.

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World IVF Day 2023: हर साल 25 जुलाई को विश्व आईवीएफ दिवस और वर्ल्ड एम्ब्रायोलॉजिस्ट डे के रूप में मनाया जाता है. बीते कुछ सालों से पूरी दुनिया में इन्फर्टिलिटी एक प्रमुख और कॉमन स्वास्थ्य समस्या बनकर उभरी है, जिससे बहुत से कपल परेशान हैं.

शारीरिक समस्याएं, लाइफस्टाइल, खराब खानपान, कम शारीरिक गतिविधि और स्ट्रेस बहुत ज्यादा होने से इन्फर्टिलिटी की समस्या दम्पत्तियों में बढ़ रही है. ऐसे में बच्चे की चाहत रखने वाले कपल, माता-पिता बनने के लिए किसी भी तरह की पीड़ा को सहने के लिए तैयार हो जाते हैं. आईवीएफ वैसी ही एक तकलीफदेह प्रक्रिया है.

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पर गौर करने की बात ये है कि समस्या चाहे पति में हो, आईवीएफ की कठिन प्रक्रिया से गुजरना महिला को ही पड़ता है.

आज इस लेख में हम 3 महिलाओं की आपबीती बताने जा रहे हैं, जो आईवीएफ प्रक्रिया से 1 या 2 नहीं कई बार गुजरी हैं.

10 सालों में 6 आईवीएफ से गुजरी हूं

जब भी मैंने किसी भी महिला से आईवीएफ के बारे में बात की, तो एक जवाब जो सभी से एक जैसा मिला वो ये कि यह एक जटिल और कष्टदायी प्रक्रिया है. इसमें होने वाली पीड़ा केवल शारीरिक और मानसिक नहीं बल्कि भावनात्मक तौर पर भी यह महिला को अंदर ही अंदर तोड़ कर रख देती है.

“शादी के एक 1 साल बाद जब मैंने फैमिली प्लानिंग शुरू की, तो हमने कुछ मेडिकल चेकअप कराए. जिसमें पता चला कि मेरे पति का स्पर्म काउंट बहुत ज्यादा कम है. ऐसी सूरत में सिर्फ आईवीएफ तकनीक ही हमारी मदद कर सकता था. मेरे पति और परिवार के लोगों को आईवीएफ प्रक्रिया के लिए मानने में मुझे 2-3 साल लग गए.”
रेशमा (बदला हुआ नाम)

नाम नहीं छापने की शर्त पर अपनी आपबीती सुनाई रेशमा (बदला हुआ नाम) ने.

"जब मैं पहली बार आईवीएफ प्रक्रिया के लिए गयी तब 23-24 साल की थी. उस वक्त दुबई में रहती थी. बड़ी मुश्किल से एक हॉस्पिटल मिला था, जहां इस प्रक्रिया की फीस आसमान नहीं छू रही थी. ये बात लगभग 17-18 साल पहले की है.”
रेशमा (बदला हुआ नाम)

अपनी बात आगे बढ़ाते हुए रेशमा कहती हैं, "पहली बार आईवीएफ फेल होने पर 6 महीने बाद हम नें दोबारा कोशिश की, वो भी फेल. शारीरिक और मानसिक रूप से मैं इतना टूट चुकी थी कि 2 साल तक मैंने सब कुछ छोड़ दिया. उसके बाद फिर कोशिश की वो भी नाकाम रही.1 साल के अंतराल के बाद मैंने आईवीएफ से कंसीव किया. जुड़वा बच्चे थे, पर मेरा मिसकैरेज हो गया.”

भारत आ आईवीएफ सेंटर की खोज में लग गयी

रेशमा आगे बताती है कि वो 2010 में इंडिया शिफ्ट हो गयी थीं. यहां आकर उन्होंने फिर से हिम्मत जुटाई और दिल्ली में आईवीएफ ट्रीटमेंट शुरू कराया. अब उनके एग्स कम बन रहे थे और यह उम्र से जुड़ा था. जिस कारण एक बार फिर उन्हें निराशा हाथ लगी.

उसके बाद उन्होंने लगभग 4 सालों तक अपने मन को समझने की कोशिश की पर बच्चे की चाहत ने उन्हें 4 साल बाद, फिर एक बार आईवीएफ के लिए डॉक्टर के सामने ला खड़ा किया.

“लगभग 4 साल बाद मैं डॉक्टर से फिर मिली, इस बार सालों की मेहनत सफल हुई. आज मैं 6 साल की एक प्यारी बच्ची की मां हूं.”
रेशमा

कंसीव करने के बाद के बारे में रेशमा कहती हैं, “आईवीएफ बहुत ही लंबी प्रक्रिया है. एक बार कंसीव करने के बाद ये सामान्य गर्भावस्था जैसी तो नहीं पर बहुत अलग भी नहीं होती है".

“औलाद पाने की खुशी और चाहत ने मुझे डॉक्टरों के मना करने और कैंसर होने की आशंका को भी नजरंदाज करने को मजबूर कर दिया.”
रेशमा

उन दिनों को याद करते हुए रेशमा फिट हिंदी को बताती हैं, “मैं 6 बार आईवीएफ प्रक्रिया से गुजरी हूं. ये आसान नहीं है. इसमें हार्मोन का रोल इतना ज्यादा होता है कि महिला शारीरिक और मानसिक स्तर पर जंग लड़ रही होती है. मैं सोते समय करवट भी लेती थी न तो शरीर दर्द से तड़प उठता था. मेरे अनुभव से यह बहुत ही कठिन प्रक्रिया है”

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4 साल और 2 असफल आईवीएफ, अगले साल वापस कोशिश करूंगी 

"मैंने आईवीएफ 2 बार 2018 और 2021 में ट्राई किया है, दोनों असफल रहे. 2018 में हमारा हॉस्पिटल और डॉक्टर के साथ अनुभव अच्छा नहीं रहा. जब मुझे डॉक्टर की जरुरत थी, तो वो नहीं थीं. पैसे एडवांस में लेने के बाद हमें एक इंजेक्शन के लिए भी दूसरे डॉक्टर और हॉस्पिटल की खोज में गुरुग्राम की सड़कों पर भटकना पड़ता था" ये कहना है गुरुग्राम में रहने वाली प्रीति (बदला हुआ नाम) का.

प्रीति ने फिट हिंदी से बात करते हुए दुखी मन से बताया कि 4 सालों में उनके 2 आईवीएफ अनुभव ने उन्हें इस कदर निराश और दुखी कर दिया है कि वो 7 महीने पहले हुए आईवीएफ प्रक्रिया के बारे में सोच आज भी रोने लगती हैं.

"शारीरिक और मानसिक तकलीफ हद से ज्यादा होती है. इमोशनल पेन इतना कि 7 महीने पहले हुए प्रक्रिया के बारे में सोच कर मैं आज भी रो पड़ती हूं.”
प्रीति (बदला हुआ नाम)

फिट हिंदी ने प्रीति से उनके पहले आईवीएफ के बारे में जानने की कोशिश की. वो बताती हैं,

“हमें किसी भी बात या प्रक्रिया की सही जानकरी नहीं दी जाती थी. यहां तक कि मेरी जांच भी नहीं की उन्होंने. एग सही तरीके से और पर्याप्त संख्या में बनाने का तरीका डॉक्टर को नहीं पता था. 80 हजार रुपए की बात कह हिडन चार्जेज (hidden charges) के बहाने हमसे लगभग 3 लाख ऐंठ लिया गया.”
वो आगे कहती हैं, “उस समय हमें पता नहीं था कि लाइसेन्स भी होता है इन प्रक्रियाओं के लिए. पता चलने के बाद हम कुछ करते इससे पहले वो हॉस्पिटल बंद हो गया.”

“दूसरी बार हमें डॉक्टर अच्छी मिली और हमने आईवीएफ की नई और एडवांस तकनीक का प्रयोग किया पर रिजल्ट निगेटिव आया. डॉक्टर ने हमें सफलता दर के बारे में पहले ही बता दिया था.”

प्रक्रिया के बारे में पूछने पर प्रीति ने बता, “प्रक्रिया के दौरान मैं चल फिर नहीं पाती थी. वॉशरूम तक जाने के लिए भी मुझे सहारे की जरुरत होती थी.”

फिट हिंदी ने जब प्रीति से पूछा कि क्या वो दोबारा इस प्रक्रिया से गुजरना चाहती हैं? तो उनका जवाब था,

“हां, शायद मैं अगले साल फिर से आईवीएफ के लिए जाउं.”

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7 सालों में 4 असफल आईवीएफ, अब और नहीं 

"समस्या पति के स्पर्म काउंट में थी, पर शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक पीड़ा से गुजर रही हूं मैं, बांझ मुझे बोला जाता है, क्या ये सही है?"
शिखा भरतीया

मुंबई में बच्चों को पढ़ाती और खाली समय में कविताएं लिखने वाली शिखा भरतीया ने जब ये सवाल मुझसे पूछा तो मैं सोच में पड़ गयी. हमारे देश में ऐसी कई महिलाएं हैं, जो परिवार और समाज की नजरों में 'बांझ' कहलाती हैं पर अक्सर उसके पीछे की सच्चाई कुछ और होती है.

बांझ शब्द का बोझ उठा पाना सबके बस की बात नहीं है खास कर तब जब उनमें कोई शारीरिक दोष न हो. मेरे ख्याल से माता-पिता बनने में असमर्थता एक निजी मामला है, कोई दोष नहीं.

"ऐसा कई बार होता है कि महिलाओं को परिवार और पति के दवाब में आ कर आईवीएफ की असहनीय प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है. हो सकता है कि महिला ऐसा नहीं चाहती हो? मां बनने के लिए तैयार न हो? उसकी अपनी मर्जी भी तो हो सकती है न? पर हमारा भारतीय समाज में, मां नहीं बनना चाहने वाली महिला को किसी भी हाल में चैन से जीने नहीं देने का रिवाज है."
शिखा भरतीया

बीते 7 सालों से परिवार और समाज को नाराज नहीं करने के डर से शिखा 4 आईवीएफ करा चुकी हैं. उन्होंने बताया कि हर बार डॉक्टर ने नया और बेहतर आईवीएफ तकनीक ट्राई करने का प्रलोभन दिया और उनके पति इसमें फंसते चले गए, फंसते भी क्यों नहीं, बच्चे को पाने की चाहत में उन्हें कुछ खोना नहीं पड़ रहा था.

"मुझे भी बच्चा चाहिए पर खुद को खो कर नहीं."

"हर आईवीएफ के साथ एक उम्मीद बंधती थी और कुछ ही दिनों में टूट जाती थी. मैंने 2 डॉक्टर बदले और 4 आईवीएफ कराया है. हर बार शारीरिक और मानसिक पीड़ा बढ़ती ही गयी. तरह-तरह के टेस्ट और प्रयोग किए गए मुझ पर. पैसा पानी की तरह बहाया है. सोचती हूं अगर ऐसी मानसिक और आर्थिक स्थिति में बच्चे का जन्म हो जाता है, तो क्या मैं उसे एक सुरक्षित भविष्य दे सकूंगी?" ये कहते हुए शिखा ने बात खत्म कर दी.

“अगर आप 10 बार भी आईवीएफ करा लें, तब भी उसके सफल होने की कोई गारंटी नहीं होती है. हर दिन एक नई लड़ाई लड़नी पड़ती है, जिसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता है. इतना कुछ करते और सहते हुए भी पता नहीं होता कि सफलता मिलेगी या नहीं?”
रेशमा
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शहर में हर जगह- जहां देखो वहां आईवीएफ क्लीनिक 

“लगभग 16-17 साल पहले मुझे भारत में आईवीएफ क्लीनिक या डॉक्टर खोजने में बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ा था और आज शहर में जहां देखो वहां आईवीएफ सेंटर है.”
रेशमा

“मजबूरी में आईवीएफ या सरोगेसी का चुनाव करना अलग बात है पर आजकल तो लोग बिना मजबूरी के इन प्रक्रियाओं का चुनाव कर रहे हैं. जब मुझे डॉक्टर ने आईवीएफ की सलाह दी थी तब मुझे यह चांद पर जाने जितना अविश्वसनीय लगा था पर आज यह घर-घर में जाना-पहचाना जाता है" ये कहते हुए रेशमा अपनी बेटी के साथ खेलने लग गयी.

"भारत में 1 आईवीएफ सेंटर खोजो, तो 100 मिल जाएंगे और लोगों की सबसे ज्यादा भीड़ भी वहीं देखने को मिलती है."
शिखा भरतीया

(वर्ल्ड आईवीएफ डे पर फिट हिंदी ने ये आर्टिकल दोबारा पब्लिश किया है.)

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