advertisement
World blood donor day 2022: हर साल 14 जून को वर्ल्ड ब्लड डोनर डे यानी कि विश्व रक्तदाता दिवस मनाया जाता है. पहला वर्ल्ड ब्लड डोनर डे साल 2004 में मनाया गया था. इस दिन को मनाने का मकसद लोगों को ब्लड डोनेशन के बारे में जागरूक और प्रोत्साहित करना है.
आज हम यहां दान किए गए ब्लड की NAT स्क्रीनिंग के बारे में बात करना चाहते हैं.
आजकल की बढ़ती बीमारियों के दौर में लोगों को कभी न कभी ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत पड़ ही जाती है. ऐसे में अगर ब्लड ट्रांसफ्यूजन के कारण गंभीर बीमारी से संक्रमित व्यक्ति का ब्लड चढ़ जाए, तो वो जानलेवा साबित हो सकता है.
हमें से कितने लोग हैं, जो ब्लड ट्रांसफ्यूजन से पहले ब्लड बैंक या हॉस्पिटल में दिए जाने वाले ब्लड के बारे में सही जांच पड़ताल करते हैं? क्या ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए केवल ब्लड ग्रूप का मिलना ही जरूरी है? क्या तरीका है सुरक्षित ब्लड की पहचान करने का? NAT स्क्रीनिंग क्या है? क्या हैं इसके फायदे?
ऐसे कई सवालों के जवाब के लिए फिट हिंदी ने इस मुद्दे पर जागरूकता फैला रहे लोगों और विशेषज्ञों से बातचीत की.
चलिए सबसे पहले जानते हैं, ब्लड डोनेशन और ट्रांसफ्यूजन से जुड़ी कुछ बातें?
थैलेसीमिया टीपीएजी की मेंबर सेक्रेटेरी (Thalassemia TPAG Member Secretary) अनुभा तनेजा बताती हैं, “भारत में, 1.3 अरब लोगों में से केवल 1% ही नियमित रूप से ब्लड डोनेट करते हैं. वालंटियर करके डोनेट किया गया खून पाने के लिए मरीजों को संघर्ष करना पड़ता है. रेयर ब्लड ग्रुप वाले मरीजों को तो और भी ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है. इसलिए मरीजों और ब्लड बैंकों को रिप्लेसमेंट डोनर पर निर्भर रहना पड़ता है. इस अभ्यास से एचआईवी (HIV), एचसीवी (HCV) जैसे ट्रांसफ्यूजन ट्रांसमिटेड इन्फेक्शन (TTI) का खतरा बढ़ जाता है. इसके अलावा, ब्लड टेस्ट के तरीके पूरे भारत में एक समान नहीं हैं. NAT, जो ब्लड में TTI की जांच के लिए एक अच्छा तरीका है, सभी अस्पतालों में उपलब्ध नहीं है”.
नेहल ढींगरा, जो पेशे से साइकोलॉजिस्ट हैं और थैलेसीमिया मेजर होने के कारण बीते 30-31 सालों से हर 17 दिनों में एक बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराती हैं, वो कहती हैं, “ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए सबसे जरुरी है, मरीज का ब्लड ग्रूप जानना. उसके बाद ब्लड बैंक में जा कर मरीज का ब्लड ग्रूप बताया जाता है. लेकिन बात यहां खत्म नहीं होती, ये तो शुरुआत है. ब्लड बैंक वाले उस ब्लड ग्रूप के जितने भी ब्लड बैग्स हैं, वो उन्हें टेस्टिंग पर लगाते हैं. चाहे एलाइजा टेस्टिंग हो या NAT. अगर वो ब्लड फिल्टर टेस्ट में सुरक्षित पाया जाता है यानी कि ब्लड में HIV, HCV, HEPATITIS जैसे संक्रमण की बात सामने नहीं आती है, तब उस ब्लड को मरीज के ब्लड से मैच किया जाता है, जिसे ‘क्रॉस मैचिंग’ कहा जाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि ब्लड के अंदर बहुत सारे एंटी-बॉडीज भी पाए जाते हैं, जिनका मैच करना भी बेहद जरुरी होता है. मैच करने के बाद ब्लड बैग दे दिया जाता है ताकि ब्लड ट्रांसफ्यूजन सेंटर पर ले जा कर मरीज को वो टेस्टेड ब्लड चढ़ाया जा सके”.
दुनिया में भारत को थैलेसीमिया बीमारी का कैपिटल यानी राजधानी कहा जाता है. यहां हर साल लगभग 10,000 थैलेसीमिया बच्चों का जन्म होता है. थैलेसीमिया बीमारी के बारे में सब कुछ यहां पढ़ा जा सकता है.
नैट यानि न्यूक्लिक एसिड टेस्ट (NAT) साफ और सुरक्षित ब्लड जांचने कि एक अत्याधुनिक टेस्ट तकनीक है. इससे किसी भी ब्लड सैंपल में वायरस की मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है. इस टेस्ट के माध्यम से खास तौर पर हेपेटाइटिस बी (Hepatitis B), हेपेटाइटिस सी (Hepatitis C), एचसीवी (HCV) और एचआईवी (HIV) के वायरस की ब्लड में मौजूदगी का पता लगाया जाता है.
बेंगलुरु के ओपन प्लेटफॉर्म फॉर ऑर्फन डिजीजेज (Open Platform For Orphan Diseases) में ब्लड और ब्लीडिंग डिसॉर्डर पर काम करने वाली नमिता रा कुमार कहती हैं, “NAT स्क्रीनिंग विंडो पीरियड में भी इन्फेक्शन का पता कर लेता है, जिसका पता एलाइजा टेस्ट में नहीं चलता है. भारत में NAT स्क्रीनिंग कम्पल्सरी होनी चाहिए. मैं आपको बता रही हूं कई बार एलाइजा टेस्ट फॉल्स नेगेटिव रिजल्ट देता है, जो लोगों के लिए जानलेवा साबित होता है.”
नमिता रा कुमार, 4 साल की उम्र से थैलेसीमिया की मरीज हैं. फिट हिंदी से बातचीत के दौरान वो NAT के फायदे कुछ ऐसे बताती हैं,
“मैं खुद थैलेसीमिया की मरीज हूं. 4 साल की उम्र से ब्लड ट्रांसफ्यूजन करवाती आ रही हूं. पहले सिर्फ एलाइजा टेस्टिंग उपलब्ध थी. इसमें विंडो पीरियड में HIV, HPV, HEPATITIS जैसी गंभीर बीमारियों का पता नहीं चलता है. ये हर एक मरीज जिसे ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरुरत है उसके लिए एक बहुत बड़ा और खतरनाक जोखिम या रिस्क है, जो उससे जीवन भर झेलना पड़ सकता है.”
वो आगे कहती हैं, “मैं ऐसे कई थैलेसीमिया मरीजों को जानती हूं, जिन्हें NAT टेस्टेड ब्लड नहीं मिलने के कारण HIV, HCV जैसी बीमारी हुई है और उसकी वजह से उनमें से कुछ लोग आज इस दुनिया में नहीं है.”
फिट हिंदी को कुछ लोगों ने यह भी बताया कि जैसे ही उन्हें NAT स्क्रीनिंग के बारे में पता चला तो वो अपने शहर में उस सुविधा को खोजने लग गए. कुछ जरूरतमंदों ने तो NAT टेस्टिंग की सुविधा नहीं होने के कारण अपना शहर भी छोड़ दिया.
वहीं नेहल कहती हैं, “थैलेसीमिया मेजर होने के कारण मैं स्कूल या कॉलेज के स्पोर्ट्स में भाग नहीं ले सकी. ब्लड ट्रांसफ्यूजन का समय आते-आते यानी कि हर 14-15 दिनों पर थकान, कमजोरी के साथ मन में हमेशा एक डर भी घर करने लगता है कि कहीं इस बार ब्लड ट्रांसफ्यूजन के कारण मुझे कोई गंभीर बीमारी न हो जाए.”
NAT ही क्यों के सवाल पर डॉ सत्यप्रकाश कहते हैं, “एलाइजा टेस्ट में जो कभी-कभी फॉल्स नेगेटिव रिपोर्ट आने की आशंका होती है, वो NAT में नहीं के बराबर पाई जाती है. यानी कि अगर लाखों में किसी एक को एलाइजा टेस्ट के बाद भी HIV पॉज़िटिव होने का रिस्क है, तो वैसा रिस्क NAT में जीरो होता है”.
देश के लगभग 95% ब्लड बैंक या अस्पतालों में अभी भी एलाइजा टेस्ट ही किया जाता है क्योंकि वो सरकार की तरफ से अनिवार्य है. एलाइजा टेस्ट से नया और बेहतर सुरक्षा देने वाले NAT टेस्ट की सुविधा अभी भी गिनी-चुनी जगहों पर ही उपलब्ध है.
सरकारी रवैये से परेशान नमिता कुछ ऐसा बताती हैं,
“नहीं-नहीं, बिल्कुल नहीं. NAT टेस्ट के मामले में सरकार कोई मदद नहीं कर रही. मदद तो दूर की बात है, NAT पर सरकार के लोग बातचीत भी नहीं करते हैं. जब भी कभी NAT टेस्टिंग की बात उठती है, तो सरकारी रवैया ऐसा रहता, ‘ब्लड मिल रहा है न ले लो”, जैसे वो हम भारतीय जरूरतमंद लोगों को बिना NAT टेस्टेड ब्लड दे कर भी हम पर एहसान कर रहे हैं. हम जानते हैं, वो हमें ब्लड नहीं जहर दे रहे हैं”.
“अमेरिका, यूरोप, सिंगापुर, दुबई, मलेशिया, कनाडा, जर्मनी, ग्रीक और दुनिया में ऐसे कई देश हैं, जहां थैलेसीमिया मरीजों के लिए सिर्फ साफ और सुरक्षित ब्लड ही नहीं बल्कि पूरा इलाज का खर्च देश की सरकार उठती है" नेहल के शब्द.
एलाइजा और NAT टेस्ट के बीच में एक और अंतर है टेस्टिंग कोस्ट (Testing Cost) का. मतलब NAT टेस्ट एलाइजा से कई गुना महंगा टेस्ट है. जिस कारण इस टेस्ट की सुविधा बहुत ही कम जगहों पर मौजूद है. बड़े शहरों के निजी अस्पतालों में NAT की सुविधा छोटे शहरों से कहीं ज्यादा जरुर है, पर उसका खर्च उठाना गरीब और बीमार भारत की जनता के लिए संभव नहीं होता.
इस मुद्दे पर कुछ ये कहा मरीज और उनके परिवार के लोगों ने-
“जीवन भर थैलेसीमिया मरीजों या उनके परिवार के लोगों को बीमारी के साथ-साथ जिस तरह का खर्च उठाना पड़ता है, उसका अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल है. उस पर जब ब्लड टेस्टिंग का खर्च भी उठाना पड़ता है, जो सरकार की तरफ से होनी चाहिए, तब ये बात बहुत चुभती है”.
“NAT टेस्ट एलाइजा टेस्ट से महंगा होता है. ऐसे में हर वर्ग के मरीज के लिए इसका खर्च उठाना मुश्किल हो जाता है. भारत सरकार को इसे मुफ्त या सब्सिडी दर पर उपलब्ध करना चाहिए ताकि हर जरूरतमंद इंसान इसका लाभ उठा सके. साथ ही Nat टेस्ट के बारे में लोगों में जागरूकता फैलाने का काम देश के ब्लड बैंक्स को करना चाहिए.”
“सरकार को थैलेसीमिया से लड़ रहे परिवारों की मदद करनी चाहिए. उनके इलाज का पूरा खर्च उठाना चाहिए. हर एक मरीज पर महीने में कम से कम 50 हजार रुपए खर्च होते हैं. जिससे पूरा करना हर परिवार के लिए सम्भव नहीं हो पता और कई बार स्थिति बिगड़ जाती है. साथ ही थैलेसीमिया के प्रति जागरूकता फैलानी चाहिए.”
“NAT टेस्टिंग ज्यादा से ज्यादा लोगों के लिए मददगार बनाने का एक सरल रास्ता है, मिनी पूल NAT टेस्ट (MINI POOL NAT TEST). इसमें एक साथ लगभग 20-25 लोगों के ब्लड सम्पल की जांच इकट्ठे की जाती है. अगर टेस्ट रिपोर्ट नेगेटिव है, तो ब्लड को ट्रांसफ्यूजन के लिए भेज दिया जाता है और अगर रिपोर्ट पॉजिटिव आयी तो मतलब किसी एक या उससे ज्यादा व्यक्ति को HIV या दूसरी गंभीर बीमारी है, तब हर एक व्यक्ति के ब्लड सम्पल की जांच अलग से की जाती है. ऐसा करने से टेस्टिंग कोस्ट कम हो जाता है” ये विकल्प सुझाया डॉ सत्य प्रकाश यादव ने.
वो आगे कहते हैं,
उर्दू भाषा में कहते हैं न, कि नुक़्ते के हेरफेर से ख़ुदा भी जुदा हो जाता है ! उसी तरह मरीजों को चढ़ाया जाने वाला खून उसके अपने खून से जरा भी बेमेल या दूषित हो, तो तय है कि परिणाम घातक ही होगा.
इसलिए जहां कहीं रक्त का आदान-प्रदान उसकी सही और सम्पूर्ण जांच-परख के बिना हो रहा हो, तो समझ लीजिए वहां जानलेवा खतरे को बुलाया जा रहा है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined