advertisement
तारीख 5 अगस्त, 2019... फारूक अब्दुल्ला (Farooq Abdullah), महबूबा मुफ्ती (Mehbooba Mufti), उमर अब्दुल्ला (Omar Abdullah), सज्जाद लोन, शाह फैसल.. जम्मू-कश्मीर में एक के बाद एक सभी नेताओं को हिरासत में लिया जा रहा था. नजरबंद किया जा रहा था... धारा 144 लगाई गई, मोबाइल- इंटरनेट सेवाएं बंद की गईं और पूरे राज्य को छावनी में बदल दिया गया था. ये सब राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर किया जा रहा था. उस वक्त जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया गया था, पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म किया गया था.
तारीख 4 अक्टूबर 2021, उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी (Lakhimpur Kheri) में धारा 144 लागू है. इंटरनेट सेवाएं बंद हैं, प्रियंका गांधी (Priyanaka Gandhi), अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav), सतीश चंद्र मिश्रा (Satish Chandra Mishra), संजय सिंह...ये विपक्ष के उन नेताओं के नाम हैं, जिन्हें लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा के बाद योगी आदित्यनाथ की सरकार ने या तो हिरासत में लिया है या फिर नजरबंद किया है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेश के विमान को तो लखनऊ में उतरने की इजाजत ही नहीं दी गई. विपक्ष के नेताओं को लखीमपुर खीरी जाकर पीड़ित परिवार से मिलने नहीं दिया जा रहा है. हवाला दिया गया है राज्य में कानून व्यवस्था का.
हालिया घटनाओं के बाद ''यूपी नया जम्मू-कश्मीर बनने की राह पर है.'' ये हम नहीं कह रहे हैं, ऐसा कहना है नैशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का. अब सवाल उठता है कि क्या सच में यूपी कश्मीर बनने की राह पर है, क्या राज्य में स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि बात-बात पर नेताओं को नजरबंद किया जाए. धारा 144 लगाई जाए, इंटरनेट सेवाएं बंद की जाएं? क्या 2 साल पहले जो कश्मीर में हुआ और जिसे पूरा देश देखता रहा, वही आग अब यूपी तक पहुंच चुकी है?
उमर अब्दुल्ला ने यूपी के हालात की तुलना जम्मू-कश्मीर से की है. दरअसल जम्मू-कश्मीर में किसी बड़ी घटना के बाद स्थानीय नेताओं को नजरबंद करना, मोबाइल-इंटरनेट सेवाओं पर रोक और धारा 144 लगाना आम बात सी हो गई है. हवाला दिया जाता है, राष्ट्रीय सुरक्षा और राज्य में माहौल बिगड़ने का.
आरोप लग रहा है कि यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार भी इसी फ़ार्मूले का पालन कर रही है. किसी भी बड़ी घटना के बाद राज्य सरकार पर जिम्मेदारी तय करने की जगह उलटे विपक्ष के नेताओं को ही निशाना बनाने के आरोप लगते हैं. उन्हें हिरासत में लिया जाता है, नज़रबंद कर दिया जाता, इलाके में इंटरनेट सेवाएं बैन कर दी जाती हैं.
यूपी में नेताओं की नजरबंदी क्या मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन नहीं है? लखीमपुर खीरी जाने की कोशिश कर रहे नेताओं को क्यों रोका गया, क्या उनके वहां जाने और पीड़ित परिवारों से मिलने से सच में कानून व्यवस्था खराब होती या फिर सरकार अपनी कमियों को छिपाने के लिए ऐसा कर रही है? मीडिया को देश के किसी भी हिस्से में हो रही घटनाओं को कवर करने से रोकना क्या सही है....ये कुछ सवाल हैं जो यूपी की बीजेपी सरकार से पूछे जाने जरूरी हैं.
बीएसपी के प्रवक्ता एमएच खान ने नेताओं की नजरबंदी को मानवाधिकारों और संविधान का सीधा उल्लंघन करार दिया है. उन्होंने क्विंट हिंदी से बातचीत में कहा, ''मैं सोमवार दोपहर में कुछ अन्य नेताओं के साथ नजरबंद किए गए पार्टी के वरिष्ठ नेता सतीश चंद्र मिश्रा से मिलने गया था. उनके घर पर पीएससी की कंपनी को तैनात किया गया है. हमें उनसे मिलने नहीं दिया गया, यह मानवाधिकारों के साथ-साथ संविधान का भी उल्लंघन है.''
उत्तर प्रदेश में जम्मू-कश्मीर जैसे हालात वाले उमर अब्दुल्ला के बयान पर यूपी बीजेपी के प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी ने क्विंट हिंदी से कहा, ''यूपी, जम्मू-कश्मीर नहीं बल्कि, जम्मू-कश्मीर अब यूपी बन रहा हैं. केंद्रशासित प्रदेश में शांति है, लोकतंत्र बहाल हो रहा है निवेश भी आ रहा है.''
हाथरस कांड
पिछले साल सितंबर में यूपी के हाथरस में दलित लड़की के साथ रेप हुआ और बाद में उसकी मौत हो गई. राज्य सरकार ने पीड़ित परिवार की मर्जी के बिना ही पीड़िता का जबरन अंतिम संस्कार करा दिया था. यूपी सरकार ने इलाके में धारा 144 लगा दी थी, जिले की सीमाओं को सील कर दिया था और विपक्ष के नेताओं को पीड़ित परिवार से मिलने से रोकने की पूरी कोशिश की गई थी.
पीड़ित परिवार से मिलने जा रहे कांग्रेस नेता राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को पुलिस ने रोक दिया था और हिरासत में लिया था. उनके अलावा हाथरस जा रहे आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद को भी पुलिस ने हिरासत में लिया था. हालांकि भारी दबाव के बाद कई पार्टियों के नेताओं को कुछ दिन बाद पीड़ित परिवार से मिलने दिया गया था.
मीडिया को रोकने की कोशिश
2019 में जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के बाद मीडिया को खुलकर काम करने से रोकने के आरोप लगे थे, मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था. कश्मीर टाइम्स की संपादक अनुराधा भसीन ने आरोप लगाया था कि केंद्र सरकार और जम्मू- कश्मीर प्रशासन मीडिया को ठीक से काम नहीं करने दे रहा है, मीडिया पर तमाम तरह के प्रतिबंध हैं.
यूपी सरकार पर हाथरस कांड के बाद इसी तरीके से मीडिया सेंसरशिप के आरोप लगे, मीडियाकर्मियों को ना पीड़ित परिवार से मिलने दिया गया, ना ही पीड़िता के गांव तक में घुसने दिया गया. यहां तक की घटना को कवर करने जा पत्रकारों के साथ प्रशासन की बदसलूकी की भी खबरें आईं.
केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन तो आपको याद ही होंगे, वे हाथरस के पीड़ित परिवार से मिलने जा रहे थे, यूपी पुलिस ने रास्ते में ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया, उनपर पीएफआई से संबंध रखने के आरोप लगाए गए. कप्पन पिछले 1 साल से जेल में बंद हैं. लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद भी हालात हालात कुछ वैसे ही दिख रहे हैं.
पिछले साल नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले लोगों के पोस्टर लगाने पर भी यूपी सरकार को पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट और बाद में सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी का सामना करना पड़ा था. राज्य सरकार का दावा था कि ये लोग दंगाई हैं, इसलिए इनके पोस्टर लगाए गए हैं, जिसपर कोर्ट ने कहा था कि आरोप साबित होने पर बिल्कुल सजा मिलनी चाहिए, लेकिन सरकार इस तरह से किसी के पोस्टर नहीं लगा सकती है. कोर्ट ने ऐसे सभी पोस्टर हटाने के भी आदेश दिए थे.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined