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विधानसभा चुनाव 2023: 'कौन जीतता है या क्या जीतता है', क्या ज्यादा मायने रखता है?

सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि ‘हिंदुत्व’ ‘जन कल्याण’ और ‘गरीब कल्याण’ जैसे नारों में एक नया आकर्षण था.

माधवन नारायणन
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>सिर्फ और सिर्फ कल्पना के लिए सोचिए कि कांग्रेस पार्टी के वंशानुगत बेताज बादशाह, राहुल गांधी, मोदी से कहते हैं: “सुनिए, आपने हमारी ताकत चुरा ली!”</p></div>
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सिर्फ और सिर्फ कल्पना के लिए सोचिए कि कांग्रेस पार्टी के वंशानुगत बेताज बादशाह, राहुल गांधी, मोदी से कहते हैं: “सुनिए, आपने हमारी ताकत चुरा ली!”

(फोटो: अरूप मिश्रा/क्विंट हिंदी)

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यक्ष प्रश्न: चुनाव में किसी राजनीतिक दल के लिए क्या ज्यादा मायने रखता है: कौन जीतता है या क्या जीतता है? इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं है. जो लोग मानते हैं कि “कौन जीतता है” ज्यादा मायने रखता है, उनके लिए इस हफ्ते चार महत्वपूर्ण राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी (BJP) को स्पष्ट जीत मिली है, जिसने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ पर कब्जा कर ज्ञानियों, चुनाव विशेषज्ञों और विपक्ष को झूठा साबित कर दिया है, और इंडियन नेशनल कांग्रेस सिर्फ दक्षिणी राज्य तेलंगाना में विजयी रही.

लेकिन, अगर “क्या जीतता है” सिद्धांतों या कार्यक्रमों पर आधारित मुद्दा है तो गहरे चुनावी जख्मों को सहला रही कांग्रेस इस तथ्य से थोड़ी राहत पा सकती है कि उसने 2024 में देश के नई लोकसभा चुनने के लिए आगामी चुनाव से पहले तथाकथित सेमीफाइनल चुनावों के एजेंडे को महत्वपूर्ण रूप से बदल कर रख दिया है.

घोषणापत्र के केंद्रीय मुद्दे, मीडिया का शोर, और मतदान से पहले प्रचार का पूरा जोर महिलाओं, किसानों, छात्रों और पिछड़ी जातियों या वर्गों जैसी विभिन्न आबादी की विभिन्न श्रेणियों को लेकर कल्याणकारी योजनाओं के बारे में था.

पीएम मोदी का 180 डिग्री पलटना

सिर्फ और सिर्फ कल्पना के लिए सोचिए कि कांग्रेस पार्टी के वंशानुगत बेताज बादशाह, राहुल गांधी, मोदी से कहते हैं: “सुनिए, आपने हमारी ताकत चुरा ली!”

मगर ऐसा नहीं होगा क्योंकि कामयाबी दिलाने वाला आयडिया चुरा लेना कारोबार में और निश्चित रूप से राजनीति में भी एक वैध चाल है जहां जीतने वाली तिकड़मों का किसी के नाम पेटेंट नहीं है. वह कांग्रेस ही थी जिसने इस साल की शुरुआत में कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कल्याणकारी योजनाओं पर पांच-गारंटी योजना लाकर अपना प्रचार अभियान चलाया था.

लेकिन नवंबर में प्रधानमंत्री ने बस उस शब्द को अपना लिया और “मोदी की गारंटी" को वोट-कैचर के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. ऐसा लगता है कि इसने BJP को फायदा पहुंचाया है.

और भी बहुत कुछ है. वही मोदी जो सिर्फ एक साल पहले ‘मुफ्त की रेवड़ी’ के खिलाफ बोल रहे थे, जो चुनावी संग्राम में एक लुभावना चारा होता था और जिसे आमतौर पर freebies कहा जाता है (मैं उन्हें ‘votebies’ कहना पसंद करता हूं). इस साल उनका नजरिया 180 डिग्री घूमा हुआ है, उनकी पार्टी ने कल्याणकारी योजनाओं की बारिश की और कांग्रेस के अभियान की काफी हद तक हवा निकाल दी.

आईटी सेक्टर के गढ़ सिलिकॉन वैली में इसे pivoting (मौजूदा रणनीति काम नहीं करने पर प्रयासों की दिशा पूरी तरह बदल देना) कहते हैं, और मोदी ने इसे एक अच्छी तरह ट्रेंड प्रतिभाशाली स्टार्टअप की तरह अपनाया.

यह सुरक्षित रूप से कहा जा सकता है कि “हिंदुत्व”- बीजेपी की धर्म और संस्कृति-केंद्रित विचारधारा का कोडवर्ड जो धार्मिक अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण को निशाना बनाता है- के साथ इन विधानसभा चुनावों में “जन कल्याण” और “गरीब कल्याण” जैसे नारों का एक नया आकर्षण भी था.

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि क्या काम किया. ऐसा लगता है कि BJP ने कोई पैंतरा नहीं छोड़ा. ED (प्रवर्तन निदेशालय) की कार्रवाई से लेकर छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को बदनाम करने, सनातन धर्म (हिंदू धार्मिक परंपरा) को लेकर बातें कि यह कांग्रेस के सहयोगियों की वजह से खतरे में हैं, कांग्रेस में वंशवादी नेतृत्व के आरोपों तक, हर तरह का कीचड़ उछाला गया. बाकी काम BJP के उत्साही, मालामाल कार्यकर्ता-आधारित पार्टी संगठन ने कर दिया.

दक्षिण की जीत के बाद कांग्रेस खरगोश-कछुआ दौड़ वाले खरगोश की तरह सो गई

कांग्रेस और BJP की आंतरिक रणनीतियों की तुलना करने पर तस्वीर साफ हो जाती है. माना जाता है कि वसुंधरा राजे मोदी की फेवरेट लिस्ट में नहीं हैं, भले ही अभियान के दौरान वह उनके समर्थन पर खामोश रहे, लेकिन वह राजस्थान में पार्टी की तरफ से मैदान में थीं. इसके उलट, निवर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पार्टी प्रतिद्वंद्वी सचिन पायलट देरी से जल्दबाजी में हुए समझौते से पहले खुलकर लड़े. छत्तीसगढ़ में बघेल और प्रतिद्वंद्वी टीएस सिंह देव में खुले मतभेद के बाद हड़बड़ी में कामचलाऊ मेल-मिलाप करा दिया गया.

मध्य प्रदेश में, विपक्षी नेता कमलनाथ आखिरकार कमजोर आत्मसंतुष्ट नेता थे, और एक ऐसे पार्टी संगठन के मुखिया थे, जिसके वरिष्ठ नेताओं के बीच लंबे समय से शीत युद्ध चल रहा है. BJP में कार्यकर्ता कहलाना गर्व की बात है, जबकि कांग्रेस में राजा जैसा अहंकार मुश्किल से छिपता है.

एक प्रासंगिक सवाल: हमने पहले इस सब पर बात क्यों नहीं की?

जवाब: कर्नाटक ने इशारा दिया था कि कांग्रेस वापसी कर रही है. दक्षिणी राज्य में पार्टी प्रतिद्वंद्वियों सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार ने समय से मतभेदों को भुला दिया और पार्टी संगठन में ऊर्जा का संचार किया, जबकि BJP अपने लिंगायत समुदाय के नेताओं से जुड़े असंतोष को थामने के लिए जूझ रही थी. कर्नाटक में हालात उलटे थे.

सार यह है कि कांग्रेस दक्षिण में मिली जीत के बाद खरगोश-कछुआ की कहानी का सो जाने वाला खरगोश बन गई, जबकि BJP उस पुरानी कहानी के नए युग के अवतार में मेहनती कछुआ बन गई. इसने कल्याण को सांस्कृतिक सोच के साथ जोड़ दिया और घर-घर में पहुंच गई.

चुनावी राजनीति में मध्य प्रदेश खासतौर से एक केस स्टडी है. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की हार के लिए कम से कम आंशिक रूप से सत्ता-विरोधी लहर को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिसके चलते मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल की सरकार हारी, मगर BJP के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए चौथी बार जीत एक पहेली है जिस पर ध्यान देने की जरूरत है.

कमलनाथ की आत्मसंतुष्ट, दबंग शैली ने एक तरफ कांग्रेस को कमजोर बनाया, तो BJP ने अपनी लाड़ली बहना (Ladli Behna) योजना से कल्याण का एक नया रास्ता बनाया जिसमें महिलाओं को नकद राशि दी जाती है. यह शिवराज चौहान की कुछ अलग करने वाले उपायों की एक बानगी भर है.

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कुछ विश्लेषकों का कहना है कि शिवराज चौहान के कार्यकाल में मध्य प्रदेश में सिंचाई क्षमता दोगुनी हो गई जिससे शायद किसानों के ग्रामीण समर्थन का बड़ा आधार बना, जिसमें घोटालों पर केंद्रित शहरी शोर डूब गया. आप कभी नहीं जानते कि मतदान में कौन कारक कहां काम करता है: वादा, काम, दृढ़ता या पार्टी संगठन.

मोदी कोई करिश्माई नेता नहीं हैं. उसके लिए जो चीज काम करती है वह है दृढ़ता और कड़ी मेहनत. उनके समर्पित पार्टी कार्यकर्ता उन्हें समन्वित ऊर्जा की खुराक देते हैं.

महात्मा गांधी की धार्मिक सहिष्णुता पर आधारित धर्मनिरपेक्षता की नीति की मदद से कांग्रेस ने करीब एक सदी तक देश को प्रभावित किया. देश आगे बढ़ चुका है लेकिन कांग्रेस BJP के प्रचार तंत्र द्वारा कुंद की गई तलवार का इस्तेमाल कर रही है. ऐसा लगता है कि इसका कथित आलाकमान क्षेत्रीय क्षत्रपों को मनमाने ढंग से अपने शो चलाने की छूट देकर अपनी पार्टी के भीतर गलत तरह की सहिष्णुता पर अमल कर रहा है- जो हमें पतन की ओर बढ़ते साम्राज्यों की याद दिलाता है.

बीजेपी और कांग्रेस के लिए आगे की राह

BJP के लिए यह आत्मनिरीक्षण का समय हो सकता है कि संस्कृति और धर्म के आधार पर बयानबाजी और दूसरों को निशाना बनाने के बजाय जनकल्याण कैसे स्थायी रूप से बेहतर काम करता है. इसमें कोई शक नहीं कि इसके लिए राजकोषीय नफा-नुकसान का भी हिसाब लगाना होगा. कांग्रेस के लिए यह सोचने का समय हो सकता है कि क्या करें जब प्रतिद्वंद्वी आपके सफल फॉर्मूले को चुरा लेता है और आपके दूसरे फॉर्मूले को निशाना बनाता है जो अपना काम पूरा कर चुका है.

कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण तेलंगाना के नतीजों में न सिर्फ उसकी जीत में, बल्कि उसके तरीके में भी छिपी हो सकती है. अपेक्षाकृत युवा, अपने विचारों में स्पष्ट और मुखर 54 साल के रेवंत रेड्डी के पार्टी के नेता के रूप में उभरने से, कांग्रेस सत्ता विरोधी मूड का फायदा उठा सकी. ऐसा लगता है कि देश के युवा मतदाताओं को ऐसे नेता जो साफ बात करते हैं और ऐसे पार्टी कार्यकर्ता जो अनिश्चितता या संदेह की भावना के बिना काम करते हैं, पसंद हैं.

जितनी भी गहराई में जाएं, लोकतांत्रिक राजनीति एक रहस्यमय खेल बनी हुई है.

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मशहूर भाषण कला और लोकप्रियता के बावजूद 2004 में BJP का “इंडिया शाइनिंग" अभियान नाकाम हो गया. राजनीतिक विश्लेषण में विचारधारा और मुद्दों की तरह हालिया इतिहास और दीर्घकालिक विचार दोनों ही मायने रखते हैं. लेकिन इन दिनों हर चुनाव में जो बात मायने रखती है, वह मतदाताओं के एक बड़े समूह की आकांक्षाओं और जरूरतों का मौजूदा स्तर है, जो जाति, समुदाय या नकारात्मक प्रचार के आधार पर हड़बड़ी में सामने रखे गए वादों को खारिज कर देते हैं.

मोदी की सेना 2024 के लिए तैयार है. अगर शेयर बाजार से सबक लिया जाए तो तेजी के दौर को अक्सर कुछ नकारात्मक घटनाओं का सामना करना होता है. ऐसी किसी भी खारिज करते हुए, विपक्षी दल सिर्फ शाश्वत आशा पर भरोसा कर सकते हैं जो एक कहावत में कही गई है: राजनीति में कभी सब कुछ खत्म नहीं होता है.

इसके अलावा, हार विपक्षी दलों को अस्पष्ट और गैरजरूरी महत्वाकांक्षाओं से आजाद कर सकती है क्योंकि उन्हें खतरे का लाल निशान या कहना चाहिए भगवा निशान सामने दिखाई दे रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे ट्विटर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. यह लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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