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Israel-Palesitine Conflict: क्या इंसानियत ने अपना विवेक खो दिया है? क्या इसकी सही और गलत में फर्क करने की क्षमता खत्म हो गई है? न्याय के नाम पर अन्याय का साथ देने की जिद क्यों है? हिंसा और प्रतिहिंसा के वीभत्स और अंतहीन चक्र को खत्म करने की इसकी ताकत का क्या हुआ ? क्या दुनिया भर में रास्ता दिखाने वालों में कोई नेता नहीं बचा है जो महात्मा गांधी की नसीहत पर ध्यान देने को तैयार हो– “आंख के बदले आंख का सिद्धांत पूरी दुनिया को अंधा बनाके रख देगा?”
इजरायली सरकार और हमास के बीच हत्याओं और तबाही का तांडव मचा है, और करीब और दूर के दूसरे घातक हथियारबंद दोस्तों की भागीदारी से इस इलाके में एक बड़ा टकराव बढ़ने और फैलने की पूरी संभावना है. ये हालात कुछ बेहद परेशान करने वाले सवालों को जन्म देते हैं.
इजरायल पर हमास के हमले को कभी माफ नहीं किया जा सकता, जिसमें तकरीबन एक हजार लोग मारे गए. इनमें से ज्यादातर बेगुनाह और निहत्थे आम लोग थे. यह आतंकवादी कार्रवाई के रूप में साफ तौर से निंदा के लायक है. इस अपराध की जघन्यता इतनी साफ है कि इसका इंसान या भगवान की किसी भी अदालत में कोई औचित्य नहीं दिया जा सकता है.
लेकिन अगर वजहों को समझा नहीं जाता है, अगर ऐतिहासिक संदर्भ को नजरअंदाज कर दिया जाता है, तो न तो हम समझ सकेंगे कि अपराध क्यों हुआ और न ही उसके दोहराव को रोका जा सकेगा.
इजरायल में भड़की ताजा हिंसा की बुनियादी वजहों को नजरअंदाज करने का एक और खतरा भी है. इसके लिए जिम्मेदार लोग एक बड़ा अपराध कर सकते हैं और पहले के अपराध की ओर इशारा करके अपनी बर्बर कार्रवाई को जायज ठहरा सकते हैं. इजरायल की सरकार अब यही कर रही है.
इसने गाजा पट्टी की पूरी तरह से घेराबंदी कर दी है, जिसे वह पहले ही 2007 से जमीन-हवा-समुद्र तीनों तरफ से नाकाबंदी के साथ दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल में बदल चुका है.
इसने 23 लाख लोगों की घनी आबादी, जिनमें से लगभग आधे बच्चे हैं, वाले फिलिस्तीनी इलाके पर कार्पेट-बाम्बिंग शुरू कर दी है.
इसने उनके घरों और रोजगार को बर्बाद करने के अलावा बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों को मार डाला और जख्मी किया है. उसने यह सब हमास के आतंकवादियों को पकड़ने के नाम पर किया है. असल में वह अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह बताकर अपनी बर्बरता को जायज ठहरा रहा है कि उसकी कार्रवाई, हमास ने जो किया उसके लिए सिर्फ एक जरूरी प्रतिक्रिया भर है.
इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने चेतावनी दी है, “हमने अभी हमास पर हमला शुरू किया है. आने वाले दिनों में हम अपने दुश्मनों के साथ जो करेंगे उसकी गूंज उनकी पीढ़ियों तक सुनाई देगी.”
इजरायल अपने “दुश्मनों” के साथ क्या करेगा, यह उसके रक्षा मंत्री योव गैलेंट (Yoav Gallant) ने डरावने लफ्जों में बयान किया. उन्होंने कहा, ‘'हम गाजा की पूरी घेराबंदी कर रहे हैं. कोई बिजली नहीं होगी, कोई खाना नहीं होगा, कोई पानी नहीं होगा, कोई ईंधन नहीं होगा. सब कुछ बंद हो जाएगा. हम इंसानी जानवरों से लड़ रहे हैं और हम उसी हिसाब से कार्रवाई कर रहे हैं.”
ये खोखली धमकी नहीं थी. उन्होंने पहले ही इस पर अमल शुरू कर दिया था. इजरायली हवाई हमलों से गाजा में एक के बाद एक इमारतें तबाह हो रही हैं– और नेतन्याहू ने खुद अपने X अकाउंट पर इस परपीड़क तबाही के वीडियो सुबूत ट्वीट किए हैं.
निश्चित रूप से अंधाधुंध बमबारी वाली ये सभी इमारतें हमास के ठिकाने नहीं हो सकतीं. अगर आम नागरिक मारे जा रहे हैं और घायल हो रहे हैं, तो क्या? इजरायली सरकार ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रति सारी जवाबदेही से मुंह मोड़ लिया है.
बेशक, इजरायल में कुछ हिम्मत वाली असहमति की आवाजें हैं. देश के प्रमुख समाचार पत्र हारेत्ज (Haaretz) के संपादकीय बोर्ड ने 9 अक्टूबर को कहा, “हमको निश्चित रूप से युद्ध करना है और दुश्मन पर हमला करना है, लेकिन युद्ध के कानूनों के दायरे में रहकर. इजरायल को हमास की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए.” लेकिन ये बातें बहरे कानों तक नहीं पहुंचीं.
अंतरराष्ट्रीय कानून में इसके लिए एक शब्द है: ‘युद्ध अपराध (War Crimes).’ ज्यादा साफ शब्दों में कहें तो, ‘नरसंहार’ (Genocide).
नरसंहार की रोकथाम के लिए संयुक्त राष्ट्र ‘युद्ध अपराधों’ को इस तरह परिभाषित करता है, “12 अगस्त 1949 के जिनेवा कन्वेंशन का गंभीर उल्लंघन, यानी व्यक्तियों या संरक्षित संपत्ति के खिलाफ निम्नलिखित में से कोई भी कार्रवाई:
इरादतन हत्या;
यातना या अमानवीय व्यवहार, बायोलॉजिकल हथियारों का प्रयोग;
व्यापक विनाश और संपत्ति की बर्बादी, जो सैन्य रूप से जरूरी नहीं है और जो गैरकानूनी और मनमाने ढंग से किया गया है.
इसके अलावा:
(a) “जानबूझकर नागरिक आबादी के खिलाफ हमले करना या दुश्मनी की कार्रवाई में सीधे शामिल नहीं आम नागरिकों को हमलों का निशाना बनाना”; और
(b) “जानबूझकर नागरिक वस्तुओं, यानी ऐसी वस्तुओं को हमले का निशाना बनाना जिनका सैन्य उद्देश्य नहीं हैं”;
(c) “कस्बों, गांवों, घरों या इमारतों पर जो असुरक्षित हैं और जो सैन्य उद्देश्य से नहीं हैं, उन पर किसी भी माध्यम से हमला करना या बमबारी करना,,”... इत्यादि.
बुनियादी सवाल यह है कि इस संघर्ष पर भारत का सैद्धांतिक रुख क्या होना चाहिए? जवाब की तलाश इस संघर्ष की जड़ की जांच से शुरू होनी चाहिए.
इसकी शुरुआत 1918 में पहले विश्व युद्ध के खात्मे के बाद पैदा हुए अजीबोगरीब भू-राजनीतिक हालात में निहित है. यह युद्ध यूरोपीय औपनिवेशिक ताकतों के बीच दुनिया के तमाम हिस्सों में उपनिवेश बनाई गई जमीन को हड़पने के लालच के साथ अपवित्र प्रतिस्पर्धा का नतीजा था.
मामले के तथ्य निर्विवाद हैं. हालांकि, पूर्वाग्रह के किसी भी आरोप से बचने के लिए, सबसे बेहतर तरीका यह है कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी वेबसाइट पर ‘फिलिस्तीन का सवाल’ (The Question of Palestine’) हेडलाइंस के तहत जो कहा है, उसे ही संक्षेप में रख दिया जाए.
फिलिस्तीन 1922 में लीग ऑफ नेशन द्वारा ब्रिटिश प्रशासन के अधीन रखे गए पूर्व आटोमन साम्राज्य के क्षेत्रों में से एक था. ये सभी इलाके धीरे-धीरे पूरी तरह आजाद देश बन गए, सिर्फ फिलिस्तीन बचा रहा जहां ब्रिटेन ने “फिलिस्तीन में यहूदी लोगों के लिए एक राष्ट्रीय घर (national home) की स्थापना” के लिए समर्थन जताया.
इसने 1922 से 1947 तक खासकर यूरोप से यहूदी आप्रवासन की बाढ़ ला दी. जर्मनी में यहूदियों के नाजी उत्पीड़न ने इस प्रक्रिया को तेज कर दिया.
मगर इजरायल ने फिलिस्तीनी देश की स्थापना को स्वीकार नहीं किया. 1948 में पड़ोसी अरब देशों के साथ युद्ध में इसका विस्तार फिलिस्तीन के 77 फीसद इलाके तक हो गया. फिलिस्तीनी अरब की आधी से ज्यादा आबादी पलायन कर गई या निकाल दी गई.
1967 में अरबों के साथ छह दिन के युद्ध में, जिसमें इजरायल ने जीत हासिल की, उसने पूर्वी यरुशलम (East Jerusalem) सहित गाजा पट्टी (Gaza Strip) और वेस्ट बैंक (West Bank) पर कब्जा कर लिया, जिसका बाद में उसने विलय कर लिया. युद्ध से फिलिस्तीनियों का दूसरी बार पलायन हुआ.
1967 के युद्ध के बाद UN सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव संख्या 242 पारित किया जिसमें युद्ध के दौरान कब्जे वाले क्षेत्रों से इजरायल की वापसी को कहा गया था. इजरायल ने आज तक इसका पालन करने से इनकार किया है.
आखिरकार 1993 में इजरायली सरकार और फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (PLO) दोनों ने ओस्लो समझौते (Oslo Accords) के तहत, जिसे अमेरिका का समर्थन हासिल था, इस समाधान को स्वीकार किया. लेकिन इजरायली नेताओं, ख़ासकर नेतन्याहू ने इस पर अमल करने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई.
इसमें उन्हें अमेरिका का भरपूर समर्थन मिला है, जो हर साल इजरायल को हथियार और भारी आर्थिक मदद देता है. अगर वाशिंगटन इजरायलियों और फिलिस्तीनियों के साथ अपने संबंधों में निष्पक्ष, ईमानदार और समान भाव वाला होता, तो यह संघर्ष बहुत पहले ही शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण ढंग से हल हो गया होता.
अमेरिका के अटूट समर्थन के आश्वासन के साथ इजरायल ने अपने और फिलिस्तीनियों के लिए शांति और सुरक्षा के बजाय आक्रामकता को चुना है. इसने इलाकों पर कब्जे का विस्तार और कब्जा मजबूत बनाना जारी रखा है और फिलीस्तीनियों को गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में स्वतंत्रताहीन और अपमान के बेहद मुश्किल हालात में रहने के लिए मजबूर किया है.
इसके नतीजे में होने वाले संघर्षों में, दोनों पक्षों के हताहतों की संख्या में भारी असमानता रही है. मानवीय मामलों के समन्वय के लिए संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (OCHA) के अनुसार, 2007 से इस साल अगस्त तक– यानी हिंसा का ताजा दौर शुरू होने से पहले तक 6,400 से ज्यादा फिलिस्तीनी मारे गए हैं. इसके मुकाबले इसी अवधि में 308 इजरायली मारे गए.
इजरायल ने अपनी चालों से फिलिस्तीनियों के बीच उदारवादी ताकतों ─ पहले PLO और बाद में फिलिस्तीन प्राधिकरण (PA) के असर को भी कम कर दिया है.
यहां याद रखने लायक जरूरी बात यह है कि इस्लामी कट्टरपंथी विचारधारा से प्रेरित हमास आंदोलन का जन्म 1987 में ही हुआ है और इसके जन्म में एक ओर इजरायली जिद और लड़ाका रुख जबकि दूसरी ओर आजादी चाहने वाले फिलिस्तीनियों की वैध आकांक्षाओं को पूरा करने में UN और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नाकामी शामिल है.
फिलिस्तीन की समस्या की बुनियादी वजह सबके सामने है और सभी साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों के नेता इसे साफ तौर से पहचानते थे. अमेरिका के छेड़े खतरनाक युद्ध में वियतनाम की ऐतिहासिक जीत के नायक हो ची मिन्ह ने कहा था: अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा समर्थित और प्रोत्साहित इजरायल की तरफ से की गई आक्रामक हरकतों ने मध्य पूर्व में जारी तनाव को बढ़ा दिया है. इसके अलावा, इन्होंने अरब राज्यों की संप्रभुता का उल्लंघन है, और दुनिया में शांति और सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है और खतरनाक चुनौती हैं.
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद विरोधी आंदोलन के नायक नेल्सन मंडेला ने 1999 में कहा था: “हम अच्छी तरह जानते हैं कि फिलिस्तीनियों की आजादी के बिना हमारी आजादी अधूरी है. एक बार संयुक्त राज्य अमेरिका के दौरे में, जहां बहुत से नेता फिलिस्तीन मुक्ति संगठन को एक आतंकवादी संगठन मानते थे, उनसे PLO के साथ उनके संबंधों के बारे में पूछा गया था. उन्होंने बिना किसी झिझक कहा: “हम PLO के साथ हैं, क्योंकि हमारी तरह वे भी आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं.”
हमारे अपने देश में, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सभी अग्रणी नेताओं ने फिलिस्तीनियों के स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन किया. उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी ने 26 नवंबर 1938 को अपने अखबार हरिजन में साफ लिखा था: “फिलिस्तीन उसी तरह अरबों का है, जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का है, या फ्रांस फ्रांसीसियों का है.” उन्होंने आगे कहा: “यहूदियों को अरबों पर थोपना गलत और अमानवीय है. आत्मसम्मानी अरबों को इलाके से हटाना ताकि फिलिस्तीन को आंशिक या पूर्ण रूप से यहूदियों को उनका राष्ट्रीय घर (national home) बनाया जा सके, मानवता के खिलाफ अपराध होगा.”
इसका मतलब यह नहीं है कि महात्मा गांधी यूरोप में यहूदियों के उत्पीड़न के प्रति असंवेदनशील थे. उन्होंने लिखा, “मेरी पूरी सहानुभूति यहूदियों के साथ है. वे ईसाई धर्म के लिए अछूत रहे हैं. ईसाइयों द्वारा उनके साथ किया जाने वाले बर्ताव और हिंदुओं द्वारा अछूतों के साथ किए जाने वाले बर्ताव के बीच काफी करीबी समानता है. दोनों ही मामलों में उनके साथ किए अमानवीय सुलूक को सही ठहराने के लिए धार्मिक मान्यता का सहारा लिया गया है.”
हिटलर के अत्याचारों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, “यहूदियों पर जर्मन उत्पीड़न जैसा इतिहास में कोई उदाहरण नहीं मिलता.” यहूदियों के प्रति अपनी सहानुभूति के बावजूद, उन्होंने फिलिस्तीन में यहूदीवादी (Zionist) देश का समर्थन नहीं किया. (जायोनीवाद या Zionism मूल रूप से फिलिस्तीन में एक यहूदी धार्मिक राष्ट्र की स्थापना और बाद में आधुनिक इजरायल के समर्थन के लिए एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन को कहा जाता है.)
संघर्ष की वजह पर जवाहरलाल नेहरू के विचार पूरी तरह महात्मा गांधी के विचारों से मेल खाते थे. 1936 में जारी एक प्रेस वक्तव्य में उन्होंने इस विषय पर शानदार समझदारी भरा नजरिया दिखाया. “युद्ध के दौरान और युद्ध के बाद के इतिहास को पढ़ने से पता चलता है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा अरबों के साथ बड़ा विश्वासघात किया गया था. सीरिया, इराक, ट्रांस-जॉर्डन और फिलिस्तीन सभी अरबों ने इस विश्वासघात में सबसे बुरी तरह धोखा खाया, लेकिन फिलिस्तीन में अरबों की हालत बिना शक सबसे खराब थी. 1915 के बाद से बार-बार आजादी और आत्मनिर्णय का वादा किया गया था, अचानक उन्होंने खुद को एक नए बोझ के साथ एक कानूनी क्षेत्र में बदला हुआ पाया– यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय घर के निर्माण का वादा– एक ऐसा बोझ जिसने आजादी पाना लगभग असंभव बना दिया.”
“तेरह सौ साल या उससे ज्यादा समय से, वे [फिलिस्तीनी अरब] वहां रह रहे थे और उनके सभी राष्ट्रीय और नस्लीय हितों ने वहां मजबूत जड़ें जमा ली थीं. फिलिस्तीन बाहरी लोगों द्वारा उपनिवेशीकरण को लागू करने के लिए सही खाली जमीन नहीं थी. यह एक अच्छी-खासी आबादी वाली और भरी हुई जमीन थी, जहां विदेशों से बड़ी संख्या में आने वाले उपनिवेशवादियों के लिए बहुत कम जगह थी. क्या यह कोई अचंभे वाली बात है कि अरबों ने इस घुसपैठ पर एतराज किया? और उनका एतराज बढ़ता गई क्योंकि उन्हें एहसास हुआ कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद का मकसद अरब-यहूदी समस्या को उनकी आजादी में स्थायी रुकावट बनाना था. हम भारतवासियों को ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा हमारी आजादी के रास्ते में डाली जा रही ऐसी ही रुकावटों का काफी अनुभव है.’'
बाद के घटनाक्रमों ने नेहरू की बात को सही साबित कर दिया. एक ओर, दुनिया भर में बहुत से मुसलमानों ने आजादी के लिए फिलिस्तीनी संघर्ष को एक मुस्लिम मुद्दे के रूप में पेश करना शुरू कर दिया और इसके लिए वैश्विक इस्लामी एकजुटता का आह्वान किया है.
लेबनान में हमास और हिजबुल्लाह, इस्लामी आतंकवादी संगठन होने के नाते इस धार्मिक भावना का फायदा उठा रहे हैं. दूसरी ओर, भारत और दुनिया भर में इस्लामोफोबिया (Islamophobic) के शिकार लोग फिलिस्तीनियों के इजरायली कब्जे के प्रतिरोध को मुसलमानों की आक्रामकता के रूप में देखते हैं, जिनकी देश की आजादी की वैध मांग को खारिज किया जा रहा है. इजरायल के लिए उनका समर्थन मुसलमानों के खिलाफ नफरत से प्रेरित है.
लेकिन वह सिर्फ गांधी और नेहरू नहीं थे जिन्होंने अरबों की जमीन पर इजरायल के अवैध कब्जे की निंदा की और आजादी के लिए फिलिस्तीनियों की मांग का समर्थन किया. बाद के दशकों में संघ परिवार के दो प्रमुख नेताओं─ पंडित दीन दयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी─ के भी इसी तरह के विचार थे.
दीन दयाल उपाध्याय भारतीय जनता पार्टी के पुराने अवतार भारतीय जनसंघ के एक सम्मानित नेता थे. BJP ने अपने संविधान में उनकी किताब ‘एकात्म मानववाद’ को अपने मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में रखा है. भारतीय जनसंघ में उनके भरोसेमंद सहयोगी, वाजपेयी बाद में जनता पार्टी सरकार (1977-79) में भारत के विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री (1998-2004) बने.
वरिष्ठ बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, जिन्होंने उपाध्याय के साथ मिलकर काम किया था, अपनी आत्मकथा “माई कंट्री माई लाइफ (My Country My Life पेज 147) में लिखते हैं: “जब अरब-इजरायल युद्ध छिड़ गया और जनसंघ में लगभग हर कोई इजरायल का समर्थक था, तब दीनदयाल जी ने चेताया था: ‘हमें सिर्फ इसलिए आंख मूंदकर इजरायल समर्थक नहीं बनना चाहिए क्योंकि कांग्रेस आंख मूंदकर अरब की समर्थक है. हमें दुनिया को ऐसे नहीं देखना चाहिए मानो यह सिर्फ फरिश्तों और शैतानों की दुनिया है. हमें हर मुद्दे को उसके गुणों के आधार पर आंकना चाहिए.’'
मार्च 1977 में जब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार बनी तो ज्यादातर लोगों ने सोचा कि भारत इजरायल-फिलिस्तीन विवाद पर अपना रुख बदल लेगा. वजह साफ थी. चूंकि जनता पार्टी ने संसदीय चुनावों में कांग्रेस को हरा दिया था, इसलिए यह माना गया कि कांग्रेस सरकार के तहत भारत की फिलिस्तीन समर्थक नीति जनता पार्टी शासन में इजरायल समर्थक हो जाएगी.
इस सोच को खासतौर से इसलिए बल मिला क्योंकि नए विदेश मंत्री वाजपेयी थे, जो जनसंघ से आते थे, जिसे आलोचकों की नजर में एक हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी– और “मुस्लिम विरोधी” माना जाता था. हालांकि, वाजपेयी ने खुद इस मुद्दे पर नई सरकार का रुख संदेहों से परे साफ कर दिया.
जनता पार्टी सरकार के शपथ ग्रहण के तुरंत बाद दिल्ली में एक विजय रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने ऐलान किया: “मध्य पूर्व में स्थायी शांति के लिए इजरायल को फिलिस्तीनी जमीन को खाली करना होगा, जिस पर उसने अवैध रूप से कब्जा किया है.” उनके भाषण की एक वीडियो क्लिप अब वायरल है. उन्होंने कहा था:
इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष और उसके बाद के हालात के इस संक्षिप्त इतिहास को याद करना जरूरी है क्योंकि, नरेंद्र मोदी सरकार के कई समर्थकों की विकृत समझ में, फिलिस्तीनी खलनायक हैं और इजरायली पीड़ित हैं. दुख की बात है कि हाल ही में भड़की हिंसा पर खुद प्रधानमंत्री ने एकतरफा रुख अपनाया है.
7 अक्टूबर को हमास द्वारा इजरायल पर रॉकेट दागने के कुछ घंटों के भीतर उन्होंने ट्वीट किया, “हम इस कठिन समय में इजरायल के साथ एकजुटता से खड़े हैं.” यह शायद समझ में आने वाली बात थी क्योंकि इजरायल ने अभी तक अपने जवाबी हमले शुरू नहीं किए थे. लेकिन 10 अक्टूबर को, जब इजरायल का नरसंहार वाला जवाबी हमला पूरी दुनिया को दिखाई दिया, तो मोदी ने फिर ट्वीट किया:
1947 से 2023 तक भारत ने लगातार इस बात पर जोर दिया है कि इजरायल और फिलिस्तीन के बीच स्थायी शांति हासिल करने के लिए ‘टू-स्टेट’ समाधानही इकलौता सही और व्यावहारिक रास्ता है. नई दिल्ली ने हमेशा एक स्वतंत्र फिलिस्तीनी देश के समर्थन को अपनी विदेश नीति के “अभिन्न” हिस्से के रूप में मान्यता दी है.
दरअसल, फरवरी 2018 में जब मोदी ने इजरायल का दौरा किया था तो वह फिलिस्तीन भी गए थे. ऐसा करने वाले वह पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. कब्जे वाले वेस्ट बैंक के शहर रामल्ला में उन्होंने फिलिस्तीनी प्राधिकरण के प्रेसिडेंट महमूद अब्बास से मुलाकात की और कहा, भारत “शांति के माहौल में रहने वाला स्वतंत्र फिलिस्तीनी देश” देखने की आशा करता है.
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए इजरायल में संघर्ष पर मोदी की नवीनतम प्रतिक्रिया सही नहीं है क्योंकि यह साफ तौर पर एकतरफा है. शायद, यह नेतन्याहू के साथ उनकी बहुप्रचारित आपसी दोस्ती का असर है.
मोदी सरकार अगर सिर्फ हमास के आतंकवाद की निंदा (जिसकी निंदा की जानी चाहिए) करती रही, मगर इजरायली सेना द्वारा निर्दोष फिलिस्तीनियों के नरसंहार पर चुप रही, तो भारत को निश्चित रूप से भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
गाजा की नागरिक आबादी पर इजरायल के बेवजह हमले ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय के अधिकांश लोगों को नाराज कर दिया है. अगर मोदी इसकी निंदा करने से इनकार करते हैं, तो उनके समर्थकों के इस दावे का क्या होगा कि, पिछले महीने नई दिल्ली में जी20 के उनके नेतृत्व के कारण, वैश्विक समुदाय भारत को ‘विश्वगुरु’─ यानी विश्व के शिक्षक के रूप में पहचानने लगा है?
इजरायल के प्रति भारत का पूर्वाग्रह इसे ग्लोबल साउथ के ज्यादातर देशों से अलग-थलग कर देगा और यह ऐसे समय में है जब भारत ग्लोबल साउथ के नेता के रूप में पहचान बनाना चाहता है.
जनता की याददाश्त इतनी खराब नहीं है कि वह नूपुर शर्मा मामले से मुस्लिम जगत में भारतीय कूटनीति को हुए नुकसान को भूल गई हो. BJP के प्रवक्ता के तौर पर पैगंबर मोहम्मद के बारे में उनकी अपमानजनक टिप्पणियों की कतर, ईरान, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, तुर्की, मलेशिया इंडोनेशिया और दूसरे मुस्लिम देशों ने कड़ी निंदा की.खाड़ी में रहने वाले प्रवासी भारतीयों की बड़ी आबादी की सुरक्षा खतरा में पड़ गई. इसके नतीजे में भारत सरकार को सार्वजनिक रूप से शर्मा के बयान से खुद को अलग करना पड़ा और BJP को उन्हें पार्टी से निलंबित करना पड़ा.
भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC), जिसका ऐलान जी20 शिखर सम्मेलन के दौरान बड़े धूमधाम से किया गया था, पहले ही इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष की भेंट चढ़ चुका है. सऊदी अरब ने इजरायल के साथ अपने संबंधों को सामान्य बनाने के लिए सभी वार्ताओं को अनिश्चित काल के लिए निलंबित कर दिया है और निकट भविष्य में इसकी बहाली की उम्मीदें कम हैं. IMEC जो सऊदी-इजरायल सहयोग पर निर्भर है, को कुछ अति-उत्साही ज्ञानियों द्वारा एक दशक पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग द्वारा शुरू की गई “बेल्ट एंड रोड पहल को मोदी का जवाब” के रूप में पेश किया गया था.
इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष का जारी रहना और बढ़ना निश्चित रूप से वैश्विक अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर देगा. इसके नतीजे में तेल की कीमतों और मुद्रास्फीति में बढ़ोत्तरी से भारत भी अछूता नहीं रह पाएगा.
इजरायल में आगे चाहे कुछ भी हो, नेतन्याहू के पद पर दिन गिने-चुने रह गए हैं. ताजा विनाशकारी घटनाक्रम के पहले भी राजधानी तेल अवीव और दूसरे शहरों में रोजाना बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, जिसमें हजारों इजरायली उनके विवादास्पद न्यायिक सुधारों की विरोध करते हुए उनके इस्तीफे की मांग कर रहे थे. क्या मोदी जिद में ऐसे नेता का समर्थन करना चाहेंगे जो देश और विदेश दोनों जगह अलोकप्रिय हो?
इसके साथ ही दुनिया के सभी देशों के साथ मिलकर, संघर्ष को फौरन खत्म करने के लिए काम करें, गाजा में पीड़ित फिलिस्तीनी लोगों को मानवीय सहायता मुहैया कराएं और इजरायल को ‘टू-स्टेट्स’ समाधान स्वीकार करने के लिए मजबूर करें─ जो सभी इजरायलियों, सभी फिलिस्तीनियों और उनके सभी पड़ोसियों की सुरक्षा के लिए स्थायी शांति का इकलौता गारंटर है.
(लेखक ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहयोगी के तौर पर काम किया है और भारत-पाकिस्तान-चीन में सहयोग के लिए काम करने वाले Forum for a New South Asia के संस्थापक हैं. इनका ट्विटर हैंडल @SudheenKulkarni है. इनसे sudheenkulkarni@gmail.com पर भी संपर्क किया जा सकता है. यह लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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