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अमेरिका-रूस ने साथ लड़ा वर्ल्ड वॉर, फिर कैसे बने दुश्मन, पढ़ें एक सदी की दास्तां

Russia Ukraine crisis: जैसे एक म्यान में दो तलवार,एक इलाके में दो शेर नहीं रह सकते, वैसा ही हाल अमेरिका-रूस का है.

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Russia Ukraine crisis: यूक्रेन संकट को लेकर दुनिया की दो बड़ी महाशक्तियां अमेरिका (US) और रूस अब बिल्कुल आमने-सामने हैं. इनके उग्र तेवर देखकर पूरी दुनिया सहमी हुई है. अमेरिका और रूस के बीच किसी मुद्दे को लेकर आमने-सामने आने का यह कोई पहला मौका नहीं है. दुनिया की ये दो बड़ी महाशक्तियां पिछली एक शताब्दी से पहले से एक दूसरे को चुनौती देकर अपना वर्चस्व स्थापित करने की जंग में लगी हुई हैं.

जिस तरह से एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती, एक इलाके में दो शेर नहीं रह सकते, वैसा ही हाल कुछ इन दोनों देशों का पिछले कई सालों से देखने को मिलता रहा है. अमेरिका और रूस के आपसी तल्ख तेवरों को समझने के लिए हमें इन दोनों देशों के रिश्तों के इतिहास का गहराई से अध्ययन करना होगा.
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बीसवीं सदी की शुरुआत से ही अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ (जिसका प्रमुख अंग रूस ही था) महान शक्तियां बनने की ओर अग्रसर हो रहे थे. बीसवीं सदी की भयंकर महामंदी के वाद 1932 में मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में 32% के योगदान के साथ अमेरिका दुनिया का एकछत्र नेता बन गया था. रूस 11. 5 प्रतिशत के योगदान के साथ इस मामले में दूसरे स्थान पर था. प्रोडक्शन और मैन्युफैक्चरिंग उस समय वर्चस्व के बड़े महत्वपूर्ण तत्व हुआ करते थे. इसी से दुनिया की लीडरशिप निर्धारित होती थी. दोनों के नंबर 1 नंबर 2 रहने की स्थिति कुछ समय तक ऐसे ही चली.

इसके बाद द्वितीय विश्व युद्ध का दौर आ गया. इन दोनों देशों के रिश्तों को लेकर इतिहास में हमें अक्सर पढ़ाया जाता है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही इनमें टकराव और दुश्मनी जैसी स्थिति बनी है, पर सच्चाई इससे भी कहीं गहरी है. सेकंड वर्ल्ड वॉर में रूस और अमेरिका दोनों नाजीवादी जर्मनी, फासीवादी इटली और जापान के साम्राज्यवाद वाले अलायंस के खिलाफ लड़ रहे थे. यानि के वे एक ही धड़े में थे, अंदर ही अंदर कुछ और ही पक रहा था. भविष्य के मनोवैज्ञानिक युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी.

आज के जैसे ही हालात

उस समय की समस्या भी बिल्कुल आज के जैसी ही थी, अर्थात यूरोप के प्रभावी देश अमेरिका की सलाह से चलते थे. सोवियत संघ और पश्चिमी देशों के बीच इसी बात को लेकर संदेह और अविश्वास पनप रहा था.

सोवियत संघ यह मानता था कि अमेरिका ने बोल्शेविक क्रांति को विफल करने की कोशिश की थी और कभी उसके अंदरूनी मामले में हस्तक्षेप किया था. उधर अमेरिका इस बात से चिंतित रहता था कि सोवियत संघ पूरी दुनिया से पूंजीवाद के खात्मे का लक्ष्य अपनी नीतियों में गहरे तक बैठाए हुए है.
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एक ही पक्ष में, फिर भी तनातनी

जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था तब 1941 में जर्मनी ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया. ऐसे में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ब्रिटेन व फ्रांस ने जर्मनी के खिलाफ मोर्चा लेने में काफी देर लगा दी. रूस ने इसका अर्थ यह निकाला कि अमेरिका जर्मनी एवं रूस के बीच लड़ाई को लंबी खिंचने देना चाहता है, जिससे रूस का सफाया हो सके. युद्ध के दौरान अमेरिका रूस दोनों देश एक ही पक्ष में थे पर फिर भी आपसी तनातनी कायम थी. विश्व युद्ध के खात्मे का समय जैसे जैसे नजदीक आया तो इन दोनों देशों की आपसी खींचतान ने गहरा रंग दिखाना शुरू कर दिया. सेकंड वर्ल्ड वॉर में धुरी शक्तियों जर्मनी इटली और जापान के पतन के बाद मुक्त हुए देशों में अमेरिका और रूस के वर्चस्व का नया अखाड़ा बन गया.

इटली, ग्रीस, पोलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, चेकोस्लोवाकिया आदि में अपने-अपने तरीके से दखल देकर दोनों ने अपनी बादशाहत कायम करने की कोशिश की. उस समय से ही तनाव भरा शीत युद्ध शुरू हुआ, जिसके लिए अमेरिका और रूस दोनों ही पक्ष जिम्मेदार थे
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पूरी दुनिया को दो धड़ों में विभाजित

द्वितीय विश्व युद्ध का जब पूरी तरह अंत हुआ तो जापान और जर्मनी की सैन्य शक्ति पराजित हो गई और दो अन्य बड़े देश ब्रिटेन तथा फ्रांस भी बुरी तरह पस्त हो चुके थे. ऐसे में दुनिया में केवल दो ही देश ऐसे बचे थे जिन्हें महाशक्ति कहा जा सकता था. यह थे रूस और अमेरिका. सेकंड वर्ल्ड वार में रूस का नुकसान तो बहुत हुआ था, पर उसने इसके बाद साम्यवादी अर्थव्यवस्था को अपनाकर तेजी से आगे बढ़ना शुरू किया. उधर अमेरिका ने भी उन्नति के पथ पर तेजी से भागना शुरू किया. विकास की इस दौड़ की वजह से दोनों के बीच एक ऐसी प्रतिद्वंदिता शुरू हो गई जिसने पूरी दुनिया को दो धड़ों में विभाजित करके रख दिया.

अमेरिका और रूस के बीच की इस प्रतिद्वंद्विता में इसके बाद एक-दूसरे की नीतियों को नीचे दिखाने का क्रम शुरू हुआ. सोवियत संघ ने 'कॉमिनफॉर्म रेडियो मॉस्को' की स्थापना की और जिन देशों में कम्युनिस्ट दल पावरफुल थे वहां कम्युनिस्टों का समर्थन करना शुरू किया. अमेरिका शुरू से ही कम्युनिस्ट विरोधी नीति वाला था तो उसने वॉयस ऑफ़ अमेरिका नामक रेडियो न्यूज़ कार्यक्रम शुरू किया और अपने खेमे के देशों में कम्युनिस्ट विरोधी विचारधाराओं और आंदोलनों को समर्थन देना शुरू किया.
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पक्ष और विपक्ष के ध्रुव

अपनी-अपनी विचारधाराओं के वर्चस्व को स्थापित करने की यह दौड़ धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय संबंधों का केंद्र बिंदु बन गई और दुनिया में इनके पक्ष और विपक्ष के ध्रुव बनने लगे. अधिकांश पश्चिमी देश अमेरिका के समर्थन में थे और वे रूस की साम्यवादी नीतियों का विरोध कर रहे थे.

धीरे-धीरे यह दौड़ विचारधारा का मैदान छोड़कर विनाश के हथियारों की ओर बढ़ने लगी. अमेरिका ने पहले परमाणु हथियार बनाया और महाशक्ति का दर्जा प्राप्त कर लिया. रूस से यह सहन नहीं हुआ और उसने बहुत जल्द ही अमेरिका को चुनौती देते हुए 1949 में परमाणु हथियार का परीक्षण कर डाला और घातक हथियारों के वर्चस्व में उसके बराबर पर आकर बैठ गया.

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शीत युद्ध के शुरू होने के बाद दुनिया में ऐसे कई मौके और मुद्दे आए जिन पर यह दोनों देश अपने वर्चस्व की जंग लेकर कूद पड़े. आइए सिलसिलेवार तौर पर देखते हैं कि तब से अब तक इनके वर्चस्व के अखाड़े का मैदान कौन-कौन से देश बने.

कोरिया की जमीन पर भिड़े

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हारने के बाद कोरिया का विभाजन हो गया. उत्तर और दक्षिण कोरिया दो भाग अस्तित्व में आए. उत्तरी कोरिया सोवियत संघ के नियंत्रण में और दक्षिण कोरिया अमेरिका के नियंत्रण में आया. दक्षिण कोरिया में अमेरिका समर्थित सरकार बनी, वहीं उत्तर कोरिया में सोवियत संघ समर्थित सरकार स्थापित हुई. दोनों ही देशों ने विरोधियों के प्रभुत्व वाली सरकारों को मान्यता नहीं दी. 1950 में उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया का हमला कर दिया.अमेरिका के इशारे पर यूनाइटेड नेशन ने उत्तर कोरिया को आक्रमणकारी देश घोषित कर दिया और अमेरिका के जनरल के नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र की सेना उत्तर कोरिया की सेना को खदेड़ने के लिए भेज दी गई. कहने को लड़ाई उत्तरी कोरिया और दक्षिण कोरिया के बीच में हो रही थी, पर जंग का मैदान अमेरिका और सोवियत रूस के बीच ही था

उत्तरी कोरिया के हवाई जहाजों को सोवियत संघ के पायलट उड़ा रहे थे और सोवियत संघ के सैन्य दस्ते ही दक्षिण कोरिया के पक्ष में लड़ रही सेना पर गोले दाग रहे थे. बाद में 1953 में युद्ध विराम हुआ और दोनों देशों के इसमें खुलेआम उतरकर लड़ने का खतरा टल गया.
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क्यूबा को लेकर बढ़ गया टकराव

इसके बाद इन दोनों बड़े देशों का एक बड़ा टकराव क्यूबा संकट के समय देखने को मिला. क्यूबा में कई सालों के संघर्ष के बाद 1959 में फिदेल कास्त्रो के हाथ में सत्ता आई. शासन में आते ही वह सोवियत संघ के निकट हो गए. इससे तिलमिलाए अमेरिका ने क्यूबा से संबंध विच्छेद कर लिए और वहां की चीनी खरीदना बंद कर दी.

अमेरिका ने क्यूबा से निर्वासित कास्त्रो विरोधी धड़े को समर्थन देकर पिग्स की खाड़ी के रास्ते क्यूबा पर हमले के लिए उतार दिया. हालांकि इसका कोई फर्क नहीं पड़ा, पर अमेरिकी हस्तक्षेप को देखते हुए सोवियत संघ ने क्यूबा में एक परमाणु बम बर्षक विमान और लंबी दूरी तक मार करने वाली कई मिसाइलें तैनात करने का निर्णय लिया. अमेरिका के लिए संकेत साफ था कि वह सोवियत संघ की मिसाइलों की जद में है. इसके अलावा सोवियत ने टर्की में बॉम्बर विमानों के बेस बनाते हुए मिसाइलों की तैनाती शुरू कर दी.

अमेरिका ने इसके जवाब में क्यूबा की नाकेबंदी करने की घोषणा कर दी. अब दोनों महाशक्ति युद्ध के काफी नजदीक आ गई थीं. युद्ध भी ऐसा जहां परमाणु शक्तियों के इस्तेमाल की बात खुलेआम की जाने लगी थी.

अमेरिकी नाकेबंदी के बाद सोवियत संघ ने अपनी मिसाइलें वापस करने पर सहमति जताई, साथ ही शर्त रख दी कि अमेरिका अब क्यूबा पर हमला नहीं करेगा. मौके के इंतजार में बैठे अमेरिका ने यह शर्त मंजूर कर ली और एक बड़ा टकराव होते-होते टल गया. बहरहाल क्यूबा इसके बाद भी इनडायरेक्टली इन दोनों देशों के बीच का अखाड़ा बना रहा. वहां रूस समर्थित कम्युनिस्ट सरकार है और जिन नेताओं का अमेरिका समर्थन करता है वे या तो निर्वासित हैं या जेलों में बंद हैं.

चेकोस्लोवाकिया का संकट खड़ा किया

साल 1968 में दोनों देशों में चेकोस्लोवाकिया के मुद्दे पर तनाव बढ़ गया. उस समय चेकोस्लोवाकिया ने कम्युनिस्ट विचारधारा को छोड़ने की बात की थी. इससे गुस्साए सोवियत रूस ने चेकोस्लोवाकिया पर वाॅरसा पैक्ट का उल्लंघन करने और कम्युनिस्ट विचारधारा के खिलाफ साजिश करने का आरोप लगाया और सोवियत संघ के बाकी देशों के साथ मिलकर उस पर आक्रमण कर दिया.

कोल्ड वॉर के दौरान चेकोस्लोवाकिया संकट भी अमेरिका द्वारा उसे उकसाने और फिर सोवियत संघ के आक्रामक रुख दिखाने से खड़ा हुआ था. सोवियत हमले की वजह से तीन लाख से अधिक चेक और स्लोवाक नागरिक बेघर हो गए. इसका पूरा असर यूरोप के पूर्वी हिस्से तक पड़ा. अमेरिका और रूस की विचारधारा के बीच में बंटते पूर्वी यूरोप के क्रोशिया, सर्बिया, यूगोस्लाविया जैसे कई देश टूटते-बिखरते रहे, फिर भी अमेरिका और रूस ने कोई सबक नहीं लिया.

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हंगरी पर सोवियत हमला

साल 1953 में अमेरिका से ट्रूमैन का शासन खत्म हुआ और उसी साल सोवियत संघ में स्टालिन की मौत हो गई. सोवियत संघ की बागडोर निकिता ख्रुश्चेव ने संभाली. इस समय पोलैंड और हंगरी में सोवियत विरोधी नेताओं का सरेआम दमन किया गया और सोवियत नेताओं ने अमेरिका के जातीय संघर्ष को पूंजीवाद के परिणाम बताकर अनर्गल टिप्पणियां करना शुरू कर दी. इस पर अमेरिका कहां चुप बैठने वाला था. उसने यूरोपीय देशों में कम्युनिस्ट विरोधी व सोवियत संघ विरोधी भावनाओं को हवा देना शुरू कर दिया. सन 1956 में पोलैंड में विद्रोह हो गया.

इससे पहले यूगोस्लाविया भी साम्यवाद के रास्ते पर चलकर विद्रोह कर चुका था. 1956 में हंगरी में बगावत खड़ी हो गई. यह सोवियत संघ के लिए असहनीय हुआ और उसने हंगरी पर हमला कर दिया. इस उग्र कदम से उसने अमेरिका को संकेत दिया कि वह साम्यवादी शासन में उदारीकरण करने और बहुदलीय प्रजातंत्र प्रणाली स्वीकार करने के लिए कतई तैयार नहीं है. अमेरिका इस समय गुस्साया जरूर था, पर तब की परिस्थितियों की वजह से वह कुछ कदम नहीं उठा पाया. उस समय किसी भी उकसावे से सोवियत संघ और अमेरिका के बीच भयंकर लड़ाई छिड़ क्योंकि मामला विचारधारा का था जिस पर रूस कुछ भी समझौता नहीं करता है.

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दोनों के बीच पिसा अफगानिस्तान

70 के दशक में अफगानिस्तान में सोवियत सेना ने जबरदस्त दखल देना शुरू किया. ये दोनों बड़े देश अपने प्रभाव को अब यूरोप से बाहर भी बढ़ाने के प्रयास कर रहे थे. सोवियत संघ ने अफगानिस्तान के राष्ट्रपति को हटाकर अपनी पसंद का राष्ट्रपति नियुक्त किया. एक लाख सोवियत सैनिकों को अफगानिस्तान में तैनात कर दिया गया. अमेरिका ने सोवियत संघ के इस कदम को खतरा माना और मध्य पूर्व की खाड़ी में अपने युद्धपोत को तैनात कर दिया.

सोवियत संघ को कड़ा संदेश देने अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने एसबीआई नामक एक नई हथियार प्रणाली बनाने की परमिशन दे दी, जिसे आगे स्टार वार्स का नाम मिला.

अफगानिस्तान की रूसी समर्थित सरकार उखाड़ने अमेरिका ने पाकिस्तान का सहारा लेना शुरू किया और तालिबान को बढ़ावा दिया. बाद में यही अफगानिस्तान संकट अमेरिका के गले की हड्डी बन गया और इसी की वजह से उसे 9/11 जैसा हमला झेलना पड़ा और हाल ही में उसकी सेना वहां से उल्टे पैर लौटकर आई है.
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वियतनाम संकट भी इनके कारण

वियतनाम संकट भी इन दोनों देशों के वर्चस्व का ही उदाहरण है. उत्तरी वियतनाम का इलाका रूस व चीन के प्रभाव वाला था. 1960 के दशक के बाद से वियतनाम में 1 लाख 80 हजार से अधिक अमेरिकी सैनिकों की मौजूदगी हो गई.अमेरिका के इस फैलाव को रोकने रूस ने उत्तरी वियतनाम के लोगों को उकसाया और वहां अमेरिकी मौजूदगी के खिलाफ बगावत के सुर उठने लगे. बाद में इसने वियतनाम युद्ध का रूप ले लिया. रूस पर अमेरिकी गुस्से का सामना इस मुल्क को करना पड़ा और वहां अमेरिका ने कई साल तक जमकर गोला बारूद पटका. इन दोनों देशों के तनाव की बलि चढ़ा यह देश काफी प्रभावित हुआ था.

क्रीमिया पर रूसी कब्जा

2014 में भी यूक्रेन से जुड़ा एक बड़ा संकट खड़ा हुआ था. तब यूक्रेन में रूस के समर्थन वाली सरकार थी, पर रूस की उस कठपुतली सरकार के राष्ट्रपति को हटा दिया गया था और अमेरिका को रूस विरोधी धड़े का सपोर्ट था. इसके बाद रूस ने एक बड़ा कदम उठाते हुए क्रीमिया को अपने कब्जे में ले लिया. रूस का मानना है कि क्रीमिया पर उसका ही अधिकार है. इस हिस्से में रहने वाले हैं नागरिक मूल तौर पर रूसी ही थे और रशियन भाषा बोलते थे. रूस के प्रति उनका झुकाव था इसी वजह से क्रीमिया पर कब्जे में रूस को ज्यादा प्रतिरोध नहीं झेलना पड़ा

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आधुनिक युग में भी तनाव नहीं घटा: आधुनिक युग में भी रूस और अमेरिका के संबंधों में तनाव कम नहीं हुआ है. जब बराक ओबामा अमेरिकी राष्ट्रपति थे तब रूस अमेरिका संबंध काफी बुरे दौर में थे. उन्होंने उस समय एक कड़ा निर्णय लेते हुए 35 रूसी राजनयिकों को अपने देश से निकाल दिया था. जब सीरिया संकट खड़ा हुआ तब भी दोनों देशों के बीच का तनाव काफी बढ़ा हुआ था

बर्फ नहीं पिघली

डोनाल्ड ट्रंप के समय में अमेरिकी कांग्रेस ने रूस पर प्रतिबंध वाले एक विधेयक को मंजूर किया था, इसके बाद रूस ने बदले की कार्रवाई करते हुए साढ़े सात सौ अधिकारियों और कर्मचारियों को रूस स्थित अमेरिकी दूतावास से बाहर निकलने का आदेश दे दिया था. जब जो बाइडेन ने सत्ता संभाली तो भी अमेरिका और रूस के बीच की बर्फ पिघली नहीं . बाइडेन प्रशासन ने रूस पर उसके देश के चुनावों में हस्तक्षेप करने और हैकिंग के आरोप लगाते हुए कड़ी प्रतिबंधात्मक कार्रवाई की थी.

अमेरिका ने साफ-साफ कहा था कि रूसी सेंधमारों ने उसके देश के सॉफ्टवेयर्स में घुसने की कोशिश की है, जिससे वे हमारे नेटवर्क को हैक कर सकें. रूस लगातार अमेरिका की गुप्त जानकारी जुटाने का प्रयास करता रहा है. इसके साथ ही चीन से रूस की दोस्ती भी इस दौर में तनाव को चरम पर ले जाते रहे. अब यह यूक्रेन संकट कहीं इन दोनों देशों के बीच की दुश्मनी की परिणति ना बन जाए.

हमने यहां इतने सारे पुराने मामलों को इसीलिए सभी के सामने रखा है कि जिससे पता चल सके कि इन दो बड़ी ताकतों के उलझने से कभी किसी का भला नहीं हुआ है. दुनिया में शांति बरकरार रखने के लिए जल्द ही इस समस्या का समाधान निकाला जाना चाहिए और अमेरिका व रूस को वार्ता करके अपने बीच के तनाव बढ़ाने वाले मुद्दों को हल करने पर संजीदगी से विचार करना चाहिए.

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