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‘अमृत काल’ के बजट में ‘अमृत’ चुनिंदा लोगों को ही मिला, दलित पिछड़े पीछे ही रह गए

सरकार सामाजिक कल्याण पर कुल बजट के डेढ़ फीसदी से भी कम खर्च कर रही है

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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आजादी के 'अमृत महोत्सव' का जिक्र करते हुए अपने बजट भाषण में इस साल के बजट को 'अमृत काल के बजट' के रूप में पेश किया. उन्होंने सरकार का उद्देश्य, अमृत काल में भारत@100 के दृष्टिकोण को पूरा करना बताया और इसके लिए तीन लक्ष्यों की घोषणा की. यह तीन लक्ष्य हैं- सूक्ष्म आर्थिक स्तर-समग्र कल्याण पर जोर देते हुए व्यापक आर्थिक विकास में सहायता करना, डिजिटल अर्थव्यवस्था एवं फिनटेक, प्रौद्योगिकी समर्थित विकास, ऊर्जा परिवर्तन तथा जलवायु कार्य-योजना को बढ़ावा देना और सार्वजनिक पूंजी निवेश की सहायता से निजी निवेश आरंभ करने के प्रभावी चक्र से लोगों को निजी निवेश से सहायता उपलब्ध कराना.

‘अमृत काल’ के बजट में ‘अमृत’ चुनिंदा लोगों को ही मिला, दलित पिछड़े पीछे ही रह गए

  1. 1. बढ़े बजट का शोर लेकिन सामाजिक कल्याण पर नहीं सरकार का जोर

    निर्मला सीतारमण ने वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए 39,44,909 करोड़ रुपये का बजट पेश किया है, जो साल 2021-22 के बजट अनुमानों से 4,61,673 करोड़ रुपये (13.25%), संशोधित अनुमानों से 1,74,909 करोड़ रुपये (4.6%) तथा साल 2020-21 के वास्तविक अनुमानों से 4,35,073 करोड़ रुपये (12.4%) अधिक है. बजट के भारी-भरकम दस्तावेजों और विभिन्न मंत्रालयों-विभागों के अंतहीन अनुमानों में अक्सर असल खर्चा और खर्चे की वास्तविक मदें खो जाती हैं. दस्तावेज बताते हैं कि साल 2014 से की जा रही लोक-लुभावन घोषणाओं की आवंटन संबंधी बजटीय हकीकत कुछ और ही है. वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि बजट के अनेक दस्तावेजों के बीच वह प्रमुख मदों एवं प्रमुख योजनाओं पर व्यय के दस्तावेज भी उपलब्ध कराते हैं.

    सरकार सामाजिक कल्याण पर कुल बजट के डेढ़ फीसदी से भी कम खर्च कर रही है

    बजट की बड़ी बातें

    फोटो- क्विंट हिंदी

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  2. 2. शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और रोजगार पर नहीं सरकार को ऐतबार

    कोरोना के गंभीर संकट और कोविड-19 के अलग-अलग स्वरूपों और संक्रमण के इस दौर के बीच देश के सबसे गरीब, कमजोर और हाशिये पर जिंदगी गुजर-बसर कर रहे लोगों के 'जीने के मौलिक अधिकार' के लिए जरूरी था कि स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को अन्य खर्चों पर वरीयता मिले. साल 2022-23 के बजट में स्वास्थ्य के मद में 86,606 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो कुल बजट का 2.20% है. सरकारें यह मानती रहीं हैं कि स्वास्थ्य पर देश के जीडीपी का कम से कम 3% फीसदी खर्च किया जाना चाहिए. वित्त मंत्री चाहतीं तो महामारी के इस दौर में इस प्रतिबद्धता को पूरा कर सकतीं थीं. लेकिन अमृतकाल के दृष्टिकोण और कोरोना काल की जरूरतों के द्वन्द के बीच वित्तमंत्री इस प्रतिबद्धता को भूल गईं. समाज कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और ऊर्जा आदि मदों में वर्ष 2015-16 से सरकार द्वारा किए गए वास्तविक खर्चों व मौजूदा प्रावधान नीचे दिये गए हैं.

    सरकार सामाजिक कल्याण पर कुल बजट के डेढ़ फीसदी से भी कम खर्च कर रही है

    2015-16 से अब तक विभिन्न मदों में किए गए खर्च 

    फोटो- अशोक भारती

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  3. 3. (लेखक नेशनल कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ दलित एन्ड आदिवासी आर्गेनाईजेशन्स (नैक्डोर) के अध्यक्ष हैं)

    देशभर के युवाओं, खास तौर से शिक्षित युवाओं में रोजगार को लेकर भारी असंतोष है. यह देखा गया है कि अवसर न मिलने कि वजह से युवा बड़े पैमाने पर रोजगार के लिए शहरों को पलायन करते हैं, लेकिन महामारी के दुष्चक्र के चलते यह भी संभव नहीं हो पा रहा. ऐसे में महात्मा गांधी रुरल इम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) ने काफी राहत दी थी, लेकिन वर्ष 2022-23 के बजट में इसके लिए सिर्फ 73,000 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है. यह बजट राशि वर्ष 2020-21 के 1,11,170 करोड़ रुपये के वास्तविक खर्च के मुकाबले 38,170 करोड़ रुपये और वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमानित खर्च के मुकाबले 25,000 करोड़ रुपये कम हैं. इसके अलावा, इस बजट में प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के अंतर्गत 2021-22 संशोधित बजट अनुमानों के मुकाबले 450 करोड़ रुपये कम का प्रावधान किया गया है. यही नहीं, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के पुनः पूंजीकरण में 2021-22 के 4,094 करोड़ रुपये के संशोधित बजट अनुमानों में 2,723 करोड़ रुपये की कटौती की गई है. इस तरह तो साल 2022-23 के 'अमृत काल के बजट' में विकास के अमृत की तलाश बेमानी दिखाई पड़ती है.

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वित्त मंत्री ने यह भी बताया कि उनकी सरकार 2014 से नागरिकों, विशेषरूप से गरीबों तथा हाशिये पर रह रहे लोगों को सशक्त बनाने पर जोर देती रही है. इन उपायों में उन कार्यक्रमों को शामिल किया गया है जिनसे लोगों को घर, बिजली, रसोई गैस तथा पानी मिला है. 'आजादी के अमृत महोत्सव' में अमृत काल की आधारशिला रखने वाले इस बजट से क्या देश के गरीबों तथा हाशिये पर रह रहे लोगों को विकास का अमृत मिल पाएगा या 'समुद्र मंथन' कथा की तर्ज पर सामाजिक-आर्थिक वंचना के शिकार लोगों के 'विकास का अमृत' भी बजट रूपी 'मोहिनी' द्वारा कुछेक लोगों को सौंप दिया गया है?

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बढ़े बजट का शोर लेकिन सामाजिक कल्याण पर नहीं सरकार का जोर

निर्मला सीतारमण ने वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए 39,44,909 करोड़ रुपये का बजट पेश किया है, जो साल 2021-22 के बजट अनुमानों से 4,61,673 करोड़ रुपये (13.25%), संशोधित अनुमानों से 1,74,909 करोड़ रुपये (4.6%) तथा साल 2020-21 के वास्तविक अनुमानों से 4,35,073 करोड़ रुपये (12.4%) अधिक है. बजट के भारी-भरकम दस्तावेजों और विभिन्न मंत्रालयों-विभागों के अंतहीन अनुमानों में अक्सर असल खर्चा और खर्चे की वास्तविक मदें खो जाती हैं. दस्तावेज बताते हैं कि साल 2014 से की जा रही लोक-लुभावन घोषणाओं की आवंटन संबंधी बजटीय हकीकत कुछ और ही है. वित्त मंत्रालय के अधिकारियों को इस बात के लिए धन्यवाद देना चाहिए कि बजट के अनेक दस्तावेजों के बीच वह प्रमुख मदों एवं प्रमुख योजनाओं पर व्यय के दस्तावेज भी उपलब्ध कराते हैं.

सरकार सामाजिक कल्याण पर कुल बजट के डेढ़ फीसदी से भी कम खर्च कर रही है

बजट की बड़ी बातें

फोटो- क्विंट हिंदी

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वर्ष 2022-23 के बजट दस्तावेजों के अनुसार, वित्त मंत्री ने सामाजिक कल्याण के लिए 51,780 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है, जो कि बजट का मात्र 1.31% है. कोविड-19 महामारी के गंभीर संकट के दौर में वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान सरकार ने सामाजिक कल्याण पर 37,563 करोड़ रुपये खर्च किए, जो उस साल के बजट के वास्तविक खर्चों का मात्र 1.07% था. यदि सामाजिक कल्याण के लिए देश के बजटीय संसाधनों का 2% से भी कम खर्च किया जाएगा, तो 'भारत@100' दृष्टिकोण के पहले लक्ष्य 'सूक्ष्म आर्थिक स्तर-समग्र कल्याण पर जोर देते हुए व्यापक आर्थिक विकास' में सहायता कैसे होगी?

केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति स्वीकार की है, जिसके अनुसार शिक्षा पर देश की जीडीपी का 6% खर्च होना चाहिए. साल 2022-23 के बजट अनुमानों में सरकार ने शिक्षा के मद में 1,04,278 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है, जो कुल अनुमानित बजट का मात्र 2.64% है. वर्ष 2015-16 के वास्तविक खर्चों के अनुसार, सरकार ने शिक्षा पर 3.75% खर्च किया था. तो क्या 'अमृत काल' की आधारशिला शिक्षा के बजट में आनुपातिक कटौती से पूरी की जाएगी?
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शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और रोजगार पर नहीं सरकार को ऐतबार

कोरोना के गंभीर संकट और कोविड-19 के अलग-अलग स्वरूपों और संक्रमण के इस दौर के बीच देश के सबसे गरीब, कमजोर और हाशिये पर जिंदगी गुजर-बसर कर रहे लोगों के 'जीने के मौलिक अधिकार' के लिए जरूरी था कि स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय को अन्य खर्चों पर वरीयता मिले. साल 2022-23 के बजट में स्वास्थ्य के मद में 86,606 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है, जो कुल बजट का 2.20% है. सरकारें यह मानती रहीं हैं कि स्वास्थ्य पर देश के जीडीपी का कम से कम 3% फीसदी खर्च किया जाना चाहिए. वित्त मंत्री चाहतीं तो महामारी के इस दौर में इस प्रतिबद्धता को पूरा कर सकतीं थीं. लेकिन अमृतकाल के दृष्टिकोण और कोरोना काल की जरूरतों के द्वन्द के बीच वित्तमंत्री इस प्रतिबद्धता को भूल गईं. समाज कल्याण, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और ऊर्जा आदि मदों में वर्ष 2015-16 से सरकार द्वारा किए गए वास्तविक खर्चों व मौजूदा प्रावधान नीचे दिये गए हैं.

सरकार सामाजिक कल्याण पर कुल बजट के डेढ़ फीसदी से भी कम खर्च कर रही है

2015-16 से अब तक विभिन्न मदों में किए गए खर्च 

फोटो- अशोक भारती

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हाल ही में देश 13 महीनों के लंबे ऐतिहासिक 'किसान आंदोलन' का गवाह बना है. कोविड महामारी के दौरान देश की जनता को गहरे संकट में डूबने से बचाने वाले कृषि अर्थव्यवस्था की महत्ता, किसानी के संकट और किसानों की मांग देखते हुए बजट से किसानों और कृषि अर्थव्यवस्था के लिए विशेष पहल की उम्मीद थी. लेकिन, बजट दस्तावेज दिखाते हैं कि किसानी संबन्धित मदों में भारी कटौती की गई है. कृषि और सम्बद्ध क्रिया-कलाप के कुल बजट अनुमानों में 1,51,521 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है. इसमें 68,000 करोड़ रुपये अकेले किसान सम्मान निधि का है. पिछले साल उर्वरकों पर सरकार ने 1,40,122 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था, जिसमें 34,900 करोड़ रुपये की कटौती कर दी गई है. यूरिया सब्सिडी में 12,708 करोड़, पोषक तत्व में 22,192 करोड़, फसल बीमा योजना में 489 करोड़, हरित क्रांति योजना में 8,889 करोड़ रुपये कम किए गए हैं. यही नहीं, किसानों की फसल के खरीददार भारतीय खाद्य निगम को दी जाने वाली सब्सिडी में भी 65,009 करोड़ रुपये की भारी कटौती की गई है. इस भारी कटौती से लगता है कि सरकार किसानों को सबक सिखाना चाहती है.

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देशभर के युवाओं, खास तौर से शिक्षित युवाओं में रोजगार को लेकर भारी असंतोष है. यह देखा गया है कि अवसर न मिलने कि वजह से युवा बड़े पैमाने पर रोजगार के लिए शहरों को पलायन करते हैं, लेकिन महामारी के दुष्चक्र के चलते यह भी संभव नहीं हो पा रहा. ऐसे में महात्मा गांधी रुरल इम्प्लॉयमेंट गारंटी एक्ट (मनरेगा) ने काफी राहत दी थी, लेकिन वर्ष 2022-23 के बजट में इसके लिए सिर्फ 73,000 करोड़ रुपये का प्रावधान रखा गया है. यह बजट राशि वर्ष 2020-21 के 1,11,170 करोड़ रुपये के वास्तविक खर्च के मुकाबले 38,170 करोड़ रुपये और वर्ष 2021-22 के संशोधित अनुमानित खर्च के मुकाबले 25,000 करोड़ रुपये कम हैं. इसके अलावा, इस बजट में प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम के अंतर्गत 2021-22 संशोधित बजट अनुमानों के मुकाबले 450 करोड़ रुपये कम का प्रावधान किया गया है. यही नहीं, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के पुनः पूंजीकरण में 2021-22 के 4,094 करोड़ रुपये के संशोधित बजट अनुमानों में 2,723 करोड़ रुपये की कटौती की गई है. इस तरह तो साल 2022-23 के 'अमृत काल के बजट' में विकास के अमृत की तलाश बेमानी दिखाई पड़ती है.

(लेखक नेशनल कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ दलित एन्ड आदिवासी आर्गेनाईजेशन्स (नैक्डोर) के अध्यक्ष हैं)

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