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"पहले ही काम कम मिलता था, अब क्या होगा", मनरेगा बजट में कटौती पर मजदूरों का दर्द

MGNREGA ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने वाली योजना, फिर इसके बजट में कटौती क्यों?

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"मनरेगा (MGNREGA) में अब पूरे 100 दिन का काम नहीं मिलता है. पहले हम अपने गांव में ही रहकर मनरेगा के तहत मजदूरी कर लिया करते थे. देर सवेर ही सही कम से कम इसका भुगतान हो जाता था. पहले महंगाई कम थी, तो घर का खर्चा चल जाता था. लेकिन, अब तो वो भी काम नहीं मिलता है. घर-परिवार के साथ रहकर काम करने की अंतिम आश भी हम लोगों से छीनी जा रही है. कोरोना काल के दौरान यही एक जीवन का आधार था. " ये कहना है उत्तर प्रदेश के लखीमपुखीरी के रहने वाले खंभरखेड़ा गांव के राज दिनेश का.

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दरअसल, केंद्र की मोदी सरकार ने एक फरवरी को अपने दूसरे कार्यकाल का अंतिम पूर्ण बजट पेश किया. इस बजट में सरकार ने मनरेगा के बजट को घटा दिया है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अपना 5वां पूर्ण बजट पेश करने के दौरान मनरेगा के बजट में कटौती की घोषणा की. इस बार 2023-24 के लिए मनरेगा में खर्च के लिए कुल 60000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है, जो बीते वित्त वर्ष के संशोधित बजट 89000 करोड़ रुपए से करीब 32 फीसदी कम है.

गांव में काम नहीं मिलने की वजह से हम लोग अपने शहर से दूर जाकर मजदूरी करने गए थे और करोना आ गया था. हम लोग वहीं फंस गए थे. पैदल चल कर घर आए थे. ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के साधन नहीं हैं. सरकार ने मनरेगा तो चलाया, लेकिन समय से काम और भुगतान नहीं मिल रहा है. हम लोग गरीब लोग हैं. रोज कमाकर खाते हैं.
सूरज, मनरेगा मजदूर, यूपी

जानकारों का कहना है कि कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से जब करोड़ों की संख्या में प्रवासी अपने गांव और घरों को पहुंचे तो मनरेगा ने ही रोजमर्रा जीवन को चलाने के लिए बड़ी भूमिका निभाई.

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उत्तर प्रदेश के खंभरखेड़ा गांव के रहने वाले मोहम्मद रहीश कहते हैं कि "पहले हम मनरेगा में मजदूरी करने जाते थे. लेकिन, बढ़ती मंहगाई और मनरेगा में भुगतान देर से मिलने की समस्या की वजह से अब हम मनरेगा में मजदूरी करने नहीं जाते हैं. मनरेगा में करीब 2 से 3 महीने बाद मजदूरी का पैसा मिलता है, जिससे रोजमर्रा के खर्चे संभव नहीं हैं. क्योंकि आजकल तो महंगाई बढ़ गई है और हम लोग मजदूर तबके के लोग हैं, समय से मजदूरी नहीं मिल पाती है तो घर के खर्चे चलने मुश्किल हो जाते हैं."

यह तीसरा वर्ष है, जब मनरेगा के बजट में कटौती की गई है. इससे पहले वित्त वर्ष 2022-23 में 25.5 फीसदी और 2021-22 में 34 फीसदी कटौती की गई थी. ऐसे में बजट कम होने का सीधा मतलब श्रमदिवस के कम होने और रोजगार के अवसरों में कमी से है.

जानकारों का मानना है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति देने वाला एक प्रमुख जरिया है. खासतौर से भूमिहीन मजदूर और सीमांत किसानों के लिए यह एक बड़ा सपोर्ट सिस्टम है. लेकिन, मांग के बावजूद इसके बजट में कटौती करना अच्छा संकेत नहीं है.

एक फरवरी को बजट पेश करने से पहले 31 जनवरी को पेश आर्थिक समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया कि मनरेगा के तहत 6 जनवरी 2023 तक कुल 225.8 करोड़ श्रम दिवस पैदा किया गया, जो कि साल 2018-19 में 267.9 करोड़ श्रम दिवस के मुकाबले काफी कम है.

"हमने पिछले साल 100 दिन का काम मांगा, लेकिन हमें 45 दिन का ही काम मिला. उसके बाद भी समय से काम और पैसा नहीं मिल पाता है. मनरेगा में हमको 3-4 महीने में पैसे मिलते हैं. ये कभी कभी तो 5-6 महीने हो जाते हैं. घर का खर्च चलाना मुश्किल हो जाता है.
राममिलन, मनरेगा मजदूर, लखीमपुर

हालांकि वित्तमंत्री ने कहा है कि जरूरत पड़ेगी तो फंड बढ़ा सकते हैं. जानकारों का कहना है कि मनरेगा बजट का प्रावधान सरकार के वास्तविक खर्च को प्रभावित नहीं करता है. यह मांग आधारित योजना है और सरकार ने 100 दिन रोजगार का कानूनी प्रावधान पहले से तय किया है. ऐसे में यदि मांग बढ़ती है तो बजट में खर्च बढ़ाया जा सकता है. जैसे पहले किया गया है. साल 2021-22 के बजट में मनरेगा के 73 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था, लेकिन इसे संशोधित कर 25 हजार करोड़ से और बढ़ा दिया गया.

लेकिन सवाल ये है कि क्या इतने पैसे में 100 दिन के रोजगार की गारंटी मनरेगा में दी जा सकती है, एक्सपर्ट कहते हैं कि इसके लिए 2.64 लाख करोड़ की जरूरत है. चूंकि फंड की कमी है इसलिए प्रशासन जानबूझकर काम की मांग को दबाता है. मनरेगा के लिए अभी जो आवंटन है, यानी 60,000 करोड़ रु, उससे सिर्फ 30 दिन रोजगार की गारंटी दी जा सकती है.

इनपुटः धर्मेंद्र राजपूत

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