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गन्ना किसानों को सजा नहीं, मजा दिलाएगी चीनी की डुअल प्राइसिंग

चीनी की दो  कीमतों की मांग को लेकर बहस तेज हो गई है

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गन्ने की खेती किसानों को मजा देने के बजाय सजा दे रही है. गन्ने के दम पर खड़ा चीनी उद्योग परजीवी होकर लाचार दिख रहा है. क्या यह समस्या लाइलाज है? नहीं, बिल्कुल नहीं. कोई समस्या तभी तक लाइलाज रहती है जब तक वह समझ में न आए. समस्या की समझ विकसित होते ही समाधान निकल आता है.

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चीनी के दोहरे दाम में है संकट का समाधान

देश में खपत होने वाली चीनी का 30 फीसदी घरेलू उपयोग में आती है और 70 फीसदी का व्यावसायिक उपयोग होता है. आम आदमी चीनी से बस जरूरत पूरी करते हैं जबकि व्यावसायिक उपयोग करने वाले इस चीनी से अकूत मुनाफा कमाते हैं. किसान और चीनी मिल मालिकों की चिंता अपने-अपने उत्पाद को लाभकारी मूल्य पर बेचने भर की होती है. बेचने के बाद किसान गन्ना भूल जाता है और मिल मालिक चीनी. बस, यही है समस्या और यहीं पर है समाधान.

गन्ना किसान और चीनी मिल मालिक उस व्यावसायिक बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी क्यों नहीं मांगें जो उसके ही दम पर टिका है? सरकार चीनी के दो दाम तय करा सकती है. एक घरेलू उपयोग वाली चीनी के दाम और दूसरा व्यावसायिक उपयोग वाली चीनी के दाम. 70 फीसदी व्यावसायिक बाज़ार को अलग दाम पर चीनी बेचने से जो सरप्लस आमदनी होगी वह चीनी मिल मालिक और किसान दोनों के संकट को हल करने के लिए काफी रहेगी.

दोहरा दाम ही वह व्यवस्था है जिससे गन्ने की खेती सिर्फ और सिर्फ मज़ा देने वाली हो सकती है जबकि चीनी उद्योग चॉकलेट, मिठाई, कोल्डड्रिंक्स, जूस, जैम जैसे कारोबारों की तरह खुद भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकता है. अगर ऐसा हो गया तो गन्ना भी मीठा रहेगा और चीनी भी मीठी रहेगी.

लोक कल्याणकारी नज़रिया जरूरी

लोक कल्याणकारी अर्थशास्त्र और आम अर्थशास्त्र में बड़ा फर्क यही होता है कि एक की प्रतिबद्धता आम आदमी होता है जबकि दूसरे का सिर्फ और सिर्फ बाज़ार. अगर किसान नुकसान में हैं, चीनी मिल नुकसान में हैं तो इनके ही उत्पाद यानी चीनी किसी ब्रांडेड चॉकलेट या जैम में मिक्स होकर दसियों गुने दाम पर बेचने की इजाजत नहीं दी जा सकती.

यह सच है कि एक कॉमर्शियल प्रॉडक्ट से जुड़ी सर्विस, एड, मार्केटिंग और ब्रांड उसे महंगा बना देती है. मगर, किसी चॉकलेट के साथ तौले जाने पर चीनी की हैसियत हज़ार रुपये प्रति किलो हो जाए या फिर एक किलो काजू बर्फी के साथ घुलकर वह दाम में 400 रुपये की हिस्सेदारी कर बैठे, इसे कैसे जायज ठहराया जा सकता है? 300 रुपये वाले एक किलो लड्डू के साथ इसकी हिस्सेदारी 150 रुपये की हो जाती है। यानी जिस प्रॉडक्ट के साथ चीनी जुड़ती यह उसी की हैसियत ले लेती है. 
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इन उदाहरणों पर गौर करें

नंबर 1

100 ग्राम ब्रांडेड चॉकलेट में 56.4 ग्राम चीनी होती है.

यानी 1 किलो चॉकलेट में 564 ग्राम चीनी होती है.

ब्रांडेड चॉकलेट में कन्टेन्ट को गणितीय रूप में इस तरह व्यक्त कर सकते हैं

चीनी : अन्य :: 564 : 436

1 किलो ब्रांडेड चॉकलेट की कीमत अगर 1066.67 रुपये है तो चीनी भी इसी कीमत पर यहां बिकती दिख रही है. और आनुपातिक रूप में उसका हिस्सा 601.60 रुपया होता है. इसमें आप ब्रांडेड चॉकलेट के वैल्यू को भी जोड़े रख सकते हैं जो चीनी को ये ओहदा देती है.

नंबर 2

आंवले का मुरब्बा बाज़ार में 120 रुपये किलो बिकता है. इसमें चीनी और आंवला और अन्य की आनुपातिक स्थिति कुछ ऐसी होती है-

चीनी : (आंवला+अन्य) :: 5.5 : 4.5

इस उत्पाद में भी चीनी की मात्रा आंवला से अधिक उपयोग की जाती है.

ये उदाहरण बताते हैं कि चीनी के दो मुकाम हैं एक आम लोगों का घर, जहां इसकी कीमत 30 रुपये किलो से लेकर प्रोसेस्ड चीनी के रूप में 60 रुपये किलो तक है. चीनी का दूसरा मुकाम है वो मीठे लजीज उत्पाद, जो महंगे हैं और जिसकी संगत में खुद चीनी भी महंगी हो जाती है.

गन्ने की तरह चीनी का भी न्यूनतम मूल्य तय हो

जब गन्ने का समर्थन मूल्य तय हो सकता है तो चीनी का मूल्य निश्चित करके भी चीनी मिल मालिकों को घाटे से बचाया जा सकता है. यह एक ऐसा विचार है जिसकी हिमायत चीनी मिल मालिक करते आए हैं. महाराष्ट्र के कोल्हापुर में चीनी उद्योग के सीईओ यूआरके राव कहते हैं कि अगर गन्ना किसानों की सुरक्षा के रास्ते पर सरकार को चलना है तो उसे चीनी उद्योग को भी नुकसान से बचाए रखना होगा.

“जिस तरह गन्ना किसानों के लिए एफआरपी तय की जाती है उसी तरीके से चीनी का न्यूनतम दाम भी सरकार तय कर दे. ऐसा करके चीनी उद्योग और गन्ना किसानों को बाज़ार की अनिश्चितता से बचाया जा सकता है.”
यूआरके राव, कोल्हापुर चीनी उद्योग से जुड़े सीईओ  
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रंगराजन समिति की सिफारिशें भी दूर कर सकती हैं किसानों का दर्द

अगर सरकार रंगराजन समिति की रिपोर्ट ही पूरी तरह से लागू कर दे तो गन्ना और चीनी उद्योग दोनों की स्थितियों में सुधार दिखेगा. समिति की अहम सिफारिश ये थी कि मिल मालिकों को राजस्व में किसानों के साथ साझेदारी करनी होगी. सबसे पहले किसानों को FRP के मुताबिक भुगतान कर दिया जाए. दूसरे चरण में उन्हें बाय प्रॉडक्ट से होने वाली आमदनी का 70 फीसदी हिस्सा दिया जाए. मगर, इन सिफारिशों को लागू कराने के लिए जो मैकेनिज्म सरकार को बनाना चाहिए था, सरकार ने नहीं बनाया. कर्नाटक, तमिलनाडु में अपने-अपने तरीके से इसे लागू किया गया.

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चीनी मिल मालिकों पर भरोसे का सवाल

यह सच है कि चीनी के मूल्य में गिरावट आई है. मगर, चीनी मिल मालिक क्या सिर्फ चीनी के दाम पर निर्भर हैं? जब गन्ना चीनी मिल में आता है तो इससे खोई, शीरा जैसे बाय प्रॉडक्ट भी बनते हैं.

  • खोई का कागज उद्योग के लिए रॉ मैटेरियल के रूप में इस्तेमाल होता है. इसे बेचकर मिल मालिक अच्छी खासी रकम कमाते हैं.
  • खोई का दूसरा इस्तेमाल कार्ड बोर्ड बनाने में भी होता है. एक से ज्यादा इस्तेमाल होने की वजह से जहां अधिक लाभ होता है वहां वे अपने खोई को बेच सकते हैं.
  • खोई से बिजली का भी उत्पादन होता है. न सिर्फ इससे मिलों की जरूरत होती है बल्कि सरप्लस बिजली ग्रिडों को भी बेच दी जाती है.
  • इसके अलावा एथेनॉल, शराब, मडप्रेस के रूप में भी बायप्रॉडक्ट बनते हैं. मडप्रेस का इस्तेमाल खाद बनाने में होता है.

मगर, कितना उत्पादन हुआ, कितना राजस्व आया इन बातों पर किसान मिल मालिकों पर कैसे भरोसा करें? रंगराजन समिति की सिफारिशें लागू भी होती हैं तो इस सवाल का जवाब खोजना होगा.

ये भी पढ़ें - चीनी का बंपर उत्पादन, लेकिन किसानों  के हिस्से सिर्फ कड़वाहट

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