वीडियो एडिटर: वरुण शर्मा
पिछली बार जब हमने आपसे इकनॉमी पर चर्चा की थी तो अपनी राय नहीं रखी थी. हमने कुछ अर्थशास्त्रियों की राय रखी थी. कुछ ने इकनॉमी में गिरावट को बड़ा संकट कहा था. कुछ स्लोडाउन की बात कर रहे थे. कुछ कह रहे थे कि यह स्लोडाउन तरक्की की राह की स्लोडाउन है. चिंता की बात नहीं है.
बहरहाल, जीडीपी का अब जो डेटा आया है उसके मुताबिक जीडीपी ग्रोथ रेट 4.5 फीसदी पर आ गया है. यह पिछले साल के आठ फीसदी की तुलना बेहद कम है. लेकिन अखबारों की सुर्खियां ने आंकड़े देकर असलियत बता दी है. ये बताती हैं जीडीपी ग्रोथ में यह भारी गिरावट बड़ा संकट है. अर्थव्यवस्था के लिए यह खतरे की घंटी है. यह एक तरह से सदमा है क्योंकि जीडीपी ग्रोथ के आंकड़े छह साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गए हैं.
छह फीसदी का आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी इकनॉमी
जो लोग कह रहे थे कि वित्त वर्ष 2019-20 में इकनॉमी की ग्रोथ छह फीसदी रहने वाली है, वह संभव नहीं दिखती. अगली दो तिमाहियों के मद्देनजर तो यह आंकड़ा पूरा होता नहीं दिखता. अभी तक के आंकड़े के मुताबिक यह औसतन पौने पांच फीसदी बैठती है. इस वित्त वर्ष में दो तिमाहियां बीत चुकी हैं. तीसरी तिमाही में कोई खास गुंजाइश नहीं दिखती. चौथी तिमाही में भी थोड़ी रफ्तार आई तो मौजूदा वित्त वर्ष का आंकड़ा पांच से साढ़े पांच फीसदी से ज्यादा नहीं जाएगा.
कोर सेक्टर की हालत बेहद खराब
बहरहाल, अर्थव्यवस्था के इन आंकड़ों को देखें तो सबसे खराब स्थित कोर सेक्टर की है. कोर सेक्टर के आठ सेक्टर में से छह में गिरावट है. कुछ में नकारात्मक ग्रोथ है.
स्टील, कच्चा तेल, सीमेंट, बिजली, कोयला. नेचुरल गैस के उत्पादन में गिरावट आई है. सिर्फ रिफाइनरी और फर्टिलाइजर सेक्टर में ग्रोथ है. इससे काम नहीं चलने वाला. दूसरी ओर मैन्यूफैक्चरिंग की हालत खस्ता है. इसमें एक फीसदी नकारात्मक ग्रोथ है. खेती का ग्रोथ 2 फीसदी है. इसे अर्थव्यवस्था की साइक्लिक गिरावट कह कर खारिज करना गलत होगा.
अर्थव्यवस्था में गहरा संकट है. यह इससे पता चलता है कि ग्रॉस फिक्स्ड कैपिटल फॉरमेशन (नया निवेश) एक फीसदी हुआ है, जो कभी 12 फीसदी हुआ करता था. यानी कि पूंजी निर्माण नहीं हो रहा है. क्योंकि नया निवेश नहीं हो रहा है. दरअसल लोगों के हाथ में पैसा नहीं है और वे खर्च नहीं कर रहे हैं. इससे डिमांड नहीं बढ़ रही है. मार्केट में डिमांड नहीं है इसलिए नया इनवेस्टमेंट नहीं हो रहा है. भारत में खपत की अर्थव्यस्था को रफ्तार मिलती है कि रूरल सेक्टर से. लेकिन यहां खपत काफी घट गई है. ग्रामीण संकट को सुलझाए बगैर इकनॉमी को रफ्तार देना मुश्किल है.
खजाना खाली,सरकार कैसे करेगी खर्च?
सरकार अब ज्यादा खर्च भी नहीं कर सकती क्योंकि सात महीने में ही राजकोषीय घाटे का लक्ष्य पूरा हो गया है. वह खर्च बढ़ाना नहीं चाहेगी. सरकार बहुत खर्च भी नहीं कर सकती है क्योंकि डायरेक्ट टैक्स और जीएसटी में कमी आई है.
सरकार का खजाना खाली है. डायरेक्ट टैक्स और जीएसटी कलेक्शन में 15 से 20 फीसदी गिरावट है. ऐसे में सरकार चाह रही है कि केंद्र को जिन्हें पैसा देना है उसे रोक कर रखा जाए. पिछले दिनों एक और चर्चा ने जोर पकड़ी कि फाइनेंस कमीशन का कार्यकाल बढ़ा कर सरकार इसके जरिये सेंट्रल पूल में ज्यादा पैसा रखने की कोशिश कर सकती है.
देर से उठाए नाकाफी कदम
सरकार ने पिछले दिनों इकनॉमी को रफ्तार देने के कुछ जरूरी कदम उठाए. जैसे दिवालिया कानून लेकर आई, कॉरपोरेट टैक्स में कमी की और रियल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन सेक्टर के लिए फंड का ऐलान किया. लेकिन इसका कोई खास फायदा नहीं हुआ. कॉरपोरेट का पैसा बचा लेकिन उसके पास इतना पैसा इकट्ठा नहीं हुआ कि नया निवेश कर सके. रेरा और एनबीएफसी सेक्टर के संकट की वजह से रियल-एस्टेट सेक्टर लगभग ठप पड़ा है. इससे बेरोजगारी काफी बढ़ी है. बैंकों का एनपीए कम हुआ है लेकिन नए एनपीए बन गए हैं. सरकार चाहती है कि इकनॉमिक एजेंडे के बजाय राजनीतिक एजेंडे से काम चला लेंगे. लेकिन ऐसा संभव नहीं. लोग कब तक राजनीतिक और सामाजिक एजेंडे पर विश्वास करेंगे.
अंधेरे में 'ठांय-ठांय' इकनॉमिक्स
ये हालात पिछले दिनों आए उस वीडियो की याद दिलाते हैं, जिसमें एक पुलिस अधिकारी अंधेरे में मुठभेड़ के दौरान ठांय-ठांय कर रहा है. यही बात सिद्धहस्त पत्रकार टी एन नाइनन ने भी 'बिजनेस स्टैंडर्ड' के अपने कॉलम में कही है. उन्होंने इसे 'व्हिस्लिंग इन डार्क' कहा है. साफ है कि इकनॉमी का संकट काफी गहरा है . लिहाजा सरकार को कड़े और बुनियादी कदम उठाने होंगे. हालांकि सरकार के लिए वक्त कम है. दो महीने बाद ही बजट आने वाला है.
सरकार ने एक आशा की किरण दिखाई है और वह है प्राइवेटाइजेशन. लेकिन यह एक सरकारी कंपनी को दूसरी सरकारी कंपनी की ओर से खरीदने वाला प्राइवेटाइजेशन है. यह चलने वाला नहीं. इससे विदेशी-विदेशी निवेशकों में कोई सकारात्मक संदेश नहीं जाएगा.
मांग बढ़ाए बगैर नहीं चलेगा काम
इस वक्त लोगों के हाथ में पैसा देना होगा तभी इकनॉमी चलेगी. अभी क्रूड काफी सस्ता है फिर भी पेट्रोल-डीजल के दाम बहुत ज्यादा है. चूंकि इस पर बड़ा टैक्स है और सरकार के हाथ में काफी पैसा आता है इसलिए वह इसे नहीं छोड़ना चाहती. तो इकनॉमी का चक्र चलाने के लिए सरकार को लोगों के हाथ में पैसे रखने होंगे ताकि डिमांड पैदा हो. लोग खर्च करें और इकनॉमी का चक्र चले.
कंपनी के हाथ में दिए गए पैसे से निवेश का चक्र नहीं चलने वाला. रूरल इकनॉमी, जॉब और किसान की समस्या नहीं सुलझी नहीं तो बड़ा संकट खड़ा हो सकता है. 2019-20 का बड़ा वक्त बरबाद हो गया है. अलार्म बज रहा है. सरकारी सलाहकारों का कहना है अगली तिमाही से रिकवरी शुरू हो जाएगी. इतने कम जीडीपी ग्रोथ की वजह से भारत के सामने काफी मुश्किल आने वाली है. हमारी कामचलाऊ जरूरत के लिए के लिए आठ और तरक्की के लिए दस फीसदी ग्रोथ की जरूरत है. इसके बगैर 2024 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की इकनॉमी बनने का सपना भूलना होगा.
ये भी पढ़ें : गजब के आर्थिक सुधार लेकिन ‘BABU-JAAL’ से जरा बचके
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)