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सरकारी बैंकों की हालत खराब, मुश्किल हुआ बढ़ते एनपीए से निजात पाना

बैंक का कामकाज सही तरीके से चल रहा है या नहीं, इसे जानने बैंक की क्रेडिट ग्रोथ और डिपॉजिट ग्रोथ देख लीजिए

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बैंक शब्द मूल रूप से अंग्रेजी का है, और इसके कई अर्थ होते हैं. इनमें से एक है भरोसा करना. लेकिन शायद देश का बैंकिंग सेक्टर यही भरोसा तेजी से खोता जा रहा है. कम से कम देश के सरकारी बैंकों के लिए तो ये बात कही जा सकती है. क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद सरकारी बैंकों की हालत सुधरने का नाम नहीं ले रही.

किसी बैंक का कामकाज सही तरीके से चल रहा है या नहीं, इसे जानने के लिए मोटे तौर पर दो आंकड़े देख लीजिए. बैंक की क्रेडिट ग्रोथ और डिपॉजिट ग्रोथ. यानी बैंक से कर्ज लेना और वहां पैसे जमा करना लोग पसंद कर रहे हैं या नहीं. अगर इन दोनों आंकड़ों की ग्रोथ हेल्दी है तो आप मान सकते हैं कि बैंक की सेहत भी सही है. लेकिन देश के बैंकिंग रेगुलेटर आरबीआई के आंकड़े दिखा रहे हैं कि सरकारी बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ और डिपॉजिट ग्रोथ दोनों नीचे आती जा रही है.

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हालत ये है कि साल 2016-17 की अंतिम तिमाही में सरकारी बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ सिर्फ 0.6% रही. इसकी तुलना आप साल 2008-09 की इसी तिमाही से कीजिए जब इन्हीं सरकारी बैंकों के कर्ज देने की रफ्तार थी 24.7%. अब अगर प्राइवेट बैंकों की बात करें तो साल 2016-17 में मार्च में खत्म हुई तिमाही में प्राइवेट बैंकों की क्रेडिट ग्रोथ रही 17.1 फीसदी, जो 2008-09 की इसी अवधि में 10.2 फीसदी थी. साफ है कि एक तरह जहां प्राइवेट बैंकों का ग्राफ ऊपर चढ़ रहा है, सरकारी बैंकों का ग्राफ नीचे आता जा रहा है. और नीचे भी इतना कि शायद मौजूदा वित्त वर्ष में ये ग्रोथ निगेटिव भी हो सकती है.

अब अगर डिपॉजिट ग्रोथ के आंकड़ों पर नजर डालें तो वहां भी सरकारी बैंकों पर भरोसा घटता दिख रहा है. 2016-17 में मार्च में खत्म हुई तिमाही में सरकारी बैंकों की डिपॉजिट ग्रोथ रही 6.5 प्रतिशत, जबकि यही आंकड़ा वित्त वर्ष 2008-09 में था 24.5 प्रतिशत. इसकी तुलना प्राइवेट बैंकों में आए जमा से करें, तो 2016-17 में इसी अवधि में उनकी डिपॉजिट ग्रोथ रही 19.6 प्रतिशत जो 2008-09 में थी 8.9 प्रतिशत. इन आंकड़ों का सीधा मतलब ये है कि सरकारी बैंकों की तुलना में प्राइवेट बैंक नए ग्राहकों को अपने साथ जोड़ने में ज्यादा कामयाब हो रहे हैं.

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सरकारी बैंकों की दुर्दशा पर पहले भी बातें होती रही हैं, और इस दुर्दशा का एक बड़ा कारण है बैंकों का एनपीए यानी नॉन परफॉर्मिंग एसेट. हालत इतनी बुरी है कि वित्त वर्ष 2016-17 में पांच सरकारी बैंकों का नेट एनपीए 10 प्रतिशत से ज्यादा रहा. ये बैंक हैं- इंडियन ओवरसीज बैंक, आईडीबीआई बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र, देना बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया.

यही नहीं, चार दूसरे सरकारी बैंक 10 प्रतिशत की इस सीमा के आसपास मंडराते दिखे. ये बैंक हैं- ओरियंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, इलाहाबाद बैंक, यूको बैंक और कॉरपोरेशन बैंक.

फाइनेंशियल सर्विसेज कंपनी मूडीज ने अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ कहा है कि देश के सरकारी बैंकों की सेहत सुधारने के लिए अगले दो सालों में नब्बे हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त पूंजी डालने की जरूरत है. जबकि सरकार की योजना अगले दो सालों में बैंकों को बीस हजार करोड़ रुपए की मदद देने की है. अगर बैंकों के लगातार बढ़ते एनपीए पर लगाम नहीं लगती, और पुराने कर्जों की वसूली में तेजी नहीं आती तो सरकारी बैंकों की हालत सुधरने की उम्मीद बेहद कम है. सरकार के नीति आयोग को इसका समाधान छोटे बैंकों के विलय में दिखता है, लेकिन विलय का फैसला भी इतना आसान नहीं है. और ना ही विलय कोई जादू की छड़ी है जो दांव पर लगे करीब सात लाख करोड़ रुपए को सरकारी बैंकों की झोली में डाल देगा.

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