बटेंगे तो कटेंगे के बदले अखिलेश यादव ने नारा दिया. जुड़ेंगे तो जीतेंगे. लेकिन उपचुनाव के नतीजे बता रहे हैं. नारा, नारा ही रह गया. न मतदाताओं को जोड़ पाए. न जीत पाए. हां. बीजेपी ने कमबैक किया. 9 विधानसभा सीटों में से 7 पर अखिलेश को हरा दिया. एकाद सीट तो ऐसी थी जिसकी हार ने अखिलेश यादव को भी चौंकाया होगा. उस सीट के बारे में भी बताएंगे. लेकिन सवाल है कि 5 महीने पहले विजयरथ पर सवार अखिलेश यादव कहां और कैसे फेल हो गए? उपचुनाव के नतीजे सत्ता पार्टी के पक्ष में जाते हैं. ये कहावत सही साबित हुए या फिर वाकई में बीजेपी ने लोकसभा से सबक लिया. अलग रणनीति बनाई. मेहनत की. इसे एक-एक कर समझते हैं.
पहले बताते हैं अखिलेश यादव कैसे और क्यों फेल हुए?
अखिलेश यादव फेल हुए हैं. उन्हें 9 में से सिर्फ 2 सीटों पर जीत मिली. करहल और सीसामऊ. 2 सीट तो ऐसी थी जो 2022 के चुनाव में जीते थे. कटेहरी और कुंदरकी. ये दोनों सीटें हाथ से निकल गईं. लेकिन क्यों और कैसे?
पहली वजह- मुस्लिम मतदाताओं को जोड़ नहीं सके: जी हां. अखिलेश यादव यहां पर चूक गए. लोकसभा चुनाव में मुसलमान मतदाताओं का एकमुश्त वोट मिला. उपचुनाव में भी यही नैरेटिव था. मुसलमान वोटर सपा के साथ हैं. लेकिन ग्राउंड पर पिक्चर कुछ और ही चल रही थी. इसे मीरापुर और कुंदरकी सीटों के नतीजों से समझते हैं.
मीरापुर से बीजेपी की गठबंधन साथी आरएलडी उम्मीदवार मिथिलेश पाल की जीत हुई. 30 हजार वोट से. समाजवादी पार्टी उम्मीदवार सुम्बुल राणा को 53 हजार वोट मिले. तीसरे नंबर पर चंद्रशेखर आजाद की पार्टी के उम्मीदवार जाहिद हुसैन को 22 हजार वोट मिले. चौथे नंबर पर रहे AIMIM उम्मीदवार मोहम्मद अरशद को 18 हजार वोट मिले. मीरापुर में 38% मुस्लिम और 37% ओबीसी वोटर हैं.
कुंदरकी सीट पर मिली हार अखिलेश यादव के लिए चौंकाने वाली है.
कुंदरकी सीट पर मिली हार अखिलेश यादव के लिए चौंकाने वाली है. 31 साल बाद यहां से बीजेपी की जीत हुई. रामवीर सिंह ने 1 लाख 44 हजार वोटों से समाजवादी पार्टी के मोहम्मद रिजवान को हराया. इस सीट पर कुल 12 में से 11 उम्मीदवार मुस्लिम थे. इस मुस्लिम बाहुल्य सीट पर 60% मुसलमान वोटर हैं. लेकिन बीजेपी को भी मुस्लिम समुदाय से वोट मिले. क्योंकि बीजेपी उम्मीदवार की मुस्लिम समुदाय में अच्छी पकड़ थी. कुंदरकी में अखिलेश यादव को एकतरफा वोट नहीं मिले. नतीजा. हार हुई.
दूसरी वजह- दलित मतदाताओं को साथ रखने में फेल: लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने संविधान बदलने की बात कह दलित मतदाताओं को साध लिया था. लेकिन 5 महीने बाद ये मतदाता फिर से छिटक गए. अखिलेश यादव उन्हें रोकने में फेल साबित हुए. मझवां ,फूलपुर और कटेहरी की सीट इसके उदाहरण हैं.
मझवां में समाजवादी पार्टी की करीब 5 हजार वोट से हार हुई. इस सीट पर तीसरे नंबर पर रहे बीएसपी के दीपक तिवारी को 34 हजार वोट मिले. चौथे नंबर पर चंद्रशेखर आजाद की पार्टी उम्मीदवार संभूनाथ को करीब 3 हजार वोट मिले. अगर लोकसभा जैसा माहौल होता तो शायद इसमें से कुछ वोट अखिलेश यादव को मिल सकते थे.
फूलपुर में समाजवादी पार्टी उम्मीदवार मोहम्मद सिद्दिकी की 11 हजार वोटों से हार हुई. यहां तीसरे नंबर पर बीएसपी उम्मीदवार जितेंद्र कुमार सिंह को 20 हजार और चौथे नंबर पर आजाद समाज पार्टी के शाहिद खान को 44-सौ वोट मिले.
कटेहरी सीट पर समाजवादी पार्टी उम्मीदवार शोभावती वर्मा की 34 हजार वोटों से हार हुई. तीसरे नंबर पर रहे अमित वर्मा को 41 हजार और चौथे नंबर पर रहे आजाद समाज पार्टी के राजेश कुमार को 5 हजार वोट मिले.
तीसरी वजह- अखिलेश यादव का ओवरकॉन्फिडेंट: लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत के बाद उपचुनाव में जीत का नैरेटिव अखिलेश यादव के पक्ष में था. लग रहा था कि पीडीए का फॉर्मूला फिर से काम कर जाएगा. अखिलेश यादव ने पूरे उपुचनाव में इसी की बात भी की. लेकिन नैरेटिव हकीकत नहीं बन सका. ओवरकॉन्फिडेंट का उदाहरण कुंदरकी सीट से समझते हैं.
यहां सपा उम्मीदवार के बेटे को लेकर मुस्लिम समुदाय में नाराजगी थी. जिसकी अखिलेश यादव ने शायद अनदेखी की. यहां कुरैशी बिरादरी सपा से नाराज थी. लेकिन इसे भी अनदेखा किया गया. कुंदरकी में 60% मुस्लिम वोटर हैं. इनमें 80 हजार तुर्क हैं. बीजेपी ने मुद्दा बनाया कि तुर्कों की तुलना में सपा ने बाकी मुस्लिम बिरादरियों की अनदेखी की. तुर्कों के बाद यहां सबसे अधिक शेखजादा वोटर हैं. बीजेपी ने इन्हें ही साधा.
अब बीजेपी की बदली रणनीति पर आते हैं. 5 महीने में बीजेपी ने अपनी गलतियों में सुधार किया. बताते हैं कैसे?
पहला सुधार-टिकट वितरण और माइक्रोमैनेजमेंट: बीजेपी ने 9 सीटों पर सभी जातियों को साधने वाले उम्मीदवारे उतारे. मसलन. कुंदरकी सीट से ठाकुर रामवीर सिंह को उतारना. इनकी पहचान और पकड़ मुस्लिम मतदाताओं में अच्छी है. चुनाव के दौरान इनकी एक फोटो भी वायरल हुई. जिसमें ये जालीदार टोपी पहने दिखे. सपा उम्मीदवार हाजी रिजवान ने बयान दिया. बीजेपी के साथ जो मुसलमान हैं वो बिकाऊ और दलाल टाइप के मुसलमान हैं. बीजेपी ने इसे लपक लिया और मुसलमान मतदाताओं में सेंधमारी की.
बीजेपी ने पिछली बार मझवां और कटेहरी सीट निषाद पार्टी के लिए छोड़ दी थी. लेकिन इस बार बीजेपी ने दोनों जगहों से अपने उम्मीदवार उतारे. फैसला सही साबित हुआ.
दूसरा सुधार- हिंदुत्व के एजेंडे को धार दी: लोकसभा चुनाव के दौरान यूपी में बीजेपी ने इंडिया गठबंधन की पिच पर चुनाव लड़ा था. लेकिन उपचुनाव में बीजेपी अपना नैरेटिव सेट करने में सफल हुई. सबका साथ सबका विकास जैसे नारों की जगह बटेंगे तो कटेंगे, एक हैं तो सेफ है जैसे नारें दिए. हिंदुत्व के एजेंडे को धार मिली. इन नारों की गूंज में अखिलेश के संविधान और आरक्षण के मुद्दे को जगह ही नहीं मिल सकी.
अब सवाल आता है कि क्या बीजेपी को बीएसपी और ओवैसी के चुनाव लड़ने से फायदा मिला. इसका कुछ हद तक जवाब हां में है. लोकसभा चुनाव में ओवैसी की पार्टी AIMIM ने यूपी में चुनाव नहीं लड़ा. लेकिन उपचुनाव में कुंदरकी, मीरापुर और गाजियाबाद से उम्मीदवार उतारे. तीनों जगहों पर AIMIM चौथे नंबर पर रही.
बीएसपी भी इस उपचुनाव में एक्टिव दिखी. मायावती ने 14 साल बाद किसी उपचुनाव में उम्मीदवार खड़े किए. हालांकि तीसरे नंबर से ऊपर नहीं बढ़ पाई. बसपा ने इससे पहले पिछला उपचुनाव 2010 में लड़ा था.
उपचुनाव के नतीजे आ चुके हैं. कुल हासिल बीजेपी को सफलता का नया नारा बटेंगे तो कटेंगे और एक हैं तो सेफ हैं मिल चुका है. जो कुछ हद तक जीत दिलाने में बूस्टर का काम करता दिख रहा है. अखिलेश यादव ने हार के बाद ट्वीट किया. असत्य का समय हो सकता है लेकिन युग नहीं. अब तो असली संघर्ष शुरू हुआ है. शायद अखिलेश यादव समझ चुके हैं कि लोकसभा चुनाव की जीत के फ्लो से 2027 में कामयाबी नहीं मिलने वाली. बल्कि पीडीए के फॉर्मूले को धार देते हुए नए सिरे से कमर कसने की जरूरत है.
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