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जनसंघ से जुड़े भाजपाई मोदी के खिलाफ क्यों दबा रहे हैं नोटा का बटन?

लोग अब कह रहे हैं, ‘एक ही भूल, कमल का फूल’

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बनारस का वो इलाका जहां के लोग कहते हैं कि हम पैदाइशी भाजपाई हैं. यहां बीजेपी भी खुद को अजेय मानती है. उसे इस बात का गुमान रहता है कि पूरे यूपी में भले ही हार जाए, लेकिन बनारस के शहर दक्षिणी में उसे शिकस्त देना मुश्किल है. कहा तो ये भी जाता है कि इस इलाके से विपक्षी पार्टियां भी जीतने के लिए नहीं लड़ती, लेकिन आज उसी इलाके में ‘नोटा’ का बटन तलाशा जा रहा है. आइए जानते हैं क्यों?

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‘एक ही भूल, कमल का फूल’

देश के दूसरे हिस्सों की तुलना में नोटा अभी तक बनारस में चलन में पीछे था. फिर भी साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बनारस में 2051 वोट नोटा को मिले, जो कई उम्मीदारों के वोट से कहीं ज्यादा था, लेकिन इस बार लगता है कि ये आंकड़ा मजबूत होगा, क्योंकि यहां के लोग अफसोस करते हुए कह रहे हैं कि एक ही भूल,कमल का फूल.

बीजेपी के जन्म से भाजपाई अब दबाएंगे नोटा

बनारस के पक्के महाल के लाहौरी टोला में रहने वाले कृष्ण कुमार शर्मा उन लोगों में शामिल हैं जो 6 अप्रैल 1980 को मुबंई में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के दिन मौजूद रहे. तब अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी बीजेपी के चेहरे थे. कृष्ण कुमार शर्मा 15 साल की उम्र में हाई स्कूल की परीक्षा पास करने के बाद जनसंघ से जुड़ गए. इसके बाद से ही आजतक वो बीजेपी के सक्रिय कार्यकर्ता हैं, लेकिन पिछले एक साल से कृष्ण कुमार शर्मा बेहद निराश हैं, क्योंकि मंदिर बनाने वाली बीजेपी पर विश्वनाथ कॉरिडोर के नाम पर मंदिर तोड़ने का आरोप लग रहा है और इसी कॉरिडोर के कारण उन्हें बेघर होना पड़ा.

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विश्वनाथ कॉरिडोर बना नोटा की बड़ी वजह

सिर्फ कृष्ण कुमार ही नहीं उनकी तरह पक्के महाल के सैकड़ों लोग हताश और निराश हैं. दरअसल, पीएम मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट काशी विश्वनाथ मंदिर कॉरिडोर को लेकर पक्के महाल इलाके के 279 घरों को जमींदोज कर दिया गया और अभी भी कई मकानों पर अधिग्रहण का साया मंडरा रहा है. कॉरिडोर के नाम पर बेघर किए गए लोग मोदी सरकार से बेहद निराश हैं.

उन्हें लगता है कि जिस पार्टी को उन्होंने सिर आंखों पर बैठाया, जिसका झंडा कभी नीचे नहीं गिरने दिया. अब इन लोगों की परेशानी ये है कि जीवनभर बीजेपी का झंडा ढोया, बीजेपी के लिए लड़े और बीजेपी के लिए मरे. इन्हें दूसरा कोई स्वीकार नहीं करेगा और ये दूसरे के बन भी नहीं सकते, क्योंकि मूड और मिजाज से भाजपाई हैं.

लिहाजा बीजेपी को सबक सिखाने के लिए. अपना गुस्सा और अपनी खीज मिटाने के लिए नोटा को हथियार बना लिया है. कॉरिडोर से प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या लगभग पांच हजार से ऊपर है. माना जा रहा है इससे नाराज लोग जो मूलत:भाजपाई हैं, चुनाव के दौरान नोटा पर बटन दबा सकते हैं.

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मोदी के खिलाफ NOTA भी मैदान में

पक्के महाल के से उठी गूंज वाराणसी के दूसरे हिस्सों में भी सुनाई देने लगी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी के विकास को शोकेस के तौर पर दुनिया के सामने पेश किया और वाहवाही बटोरी, लेकिन शहर के अंदर कई ऐसे इलाके हैं जहां पानी, सड़क और सीवर जैसी बुनियादी समस्याएं सालों से बनी हैं.

अब तक होता ये आया था कि चुनावी सीजन में पीड़ित पब्लिक विरोध के तौर पर वोट नहीं देती थी, लेकिन नोटा समर्थकों ने इन्हें नया हथियार थमा दिया है. वाराणसी में नोटा पार्टी बनाने वाले क्रांति फाउंडेशन के राहुल सिंह कहते हैं कि, ‘बनारस में सालों से बीजेपी का राज है. सांसद, मेयर और विधायक सब बीजेपी के हैं. फिर भी यहां की क्या हालत है, इसे हर कोई देख रहा है. ऐसे में हम किसी राजनीतिक पार्टी का विरोध नहीं करते हुए नोटा के समर्थन में लोगों को जागरुक कर रहे हैं.’

क्रांति फाउंडेशन के कार्यकर्ता वाराणसी की सभी आठों विधानसभा के गांव-गांव और मोहल्ले-मोहल्ले में जाकर लोगों को नोटा के बारे में बता रहे हैं. राहुल सिंह के मुताबिक बनारस के लोगों में नोटा को लेकर उत्साह है और राजनैतिक पार्टियों का विरोध करने के लिए लोगों के पास सबसे अच्छा विकल्प है.

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नोटा कर सकता है जीत का मजा किरकिरा

डर इस बात का है कि नोटा के अधिक इस्तेमाल से कहीं नरेंद्र मोदी के बंपर जीत का गणित ना बिगड़ जाए. दूसरे शब्दों में कहें तो जिस बनारस में मोदी को टक्कर देने में विरोधियों के पसीने छूट रहे हैं, वहां चंद मुट्ठीभर नोटा समर्थकों ने बीजेपी की नींद उड़ा रखी है. अगर नोटा का आंकड़ा बढ़ता है तो इस यकीनन सीधे-सीधे मोदी की विफलता मानी जाएगी. साथ ही देशभर में अलग संदेश जाएगा. देश के अलग-अलग हिस्सों में नोटा को लेकर लगातार क्रेज बढ़ता जा रहा है.

  • साल 2013 से लेकर 2017 तक 1.37 करोड़ लोग नोटा को वोट दे चुके हैं
  • साल 2014 के लोकसभा चुनाव में 60 लाख लोगों ने नोटा का बटन दबाया था
  • बनारस में पिछले साल 2051 लोगों ने नोटा को वोट दिया था

नोटा के इस्तेमाल का बड़ा असर पिछले साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिला. इन राज्यों में बीजेपी से खफा लोगों ने जमकर नोटा का बटन दबाया, लिहाजा तीनों राज्य बीजेपी के हाथ से निकल गए. कम से कम 20 ऐसी सीटें थीं, जहां नोटा ने गहरा प्रभाव डाला था. इन सीटों पर प्रत्याशियों के बीच हार जीत का अंतर नोटा से कम था.

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