कश्मीर में आर्टिकल 370 और 35-A को लेकर हो रही सियासी फायरिंग के बीच ऐसा कुछ चल रहा है जो पहले कभी नहीं हुआ. वो है कश्मीर की लोकल पॉलिटिक्स में दुश्मन रही पार्टियों और नेताओं का पर्दे के पीछे हाथ मिलाना.
पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस की छिपी जुगलबंदी
महबूबा मुफ्ती की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और फारूक अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) एक दूसरे की धुरविरोधी रही हैं. जम्मू-कश्मीर में एक-दूसरे का विरोध ही इन पार्टियों की सियासत की बुनियाद रहा है. लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले ये पार्टियां मिलकर खेलती नजर आ रही हैं.
जम्मू और उधमपुर में पंजा Vs कमल
जम्मू और उधमपुर की सीटें 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जीती थीं. इस बार नेशनल कॉन्फ्रेंस का कांग्रेस से चुनाव पूर्व गठबंधन है. लिहाजा, एनसी ने जम्मू और उधमपुर सीट कांग्रेस के लिए छोड़ दीं. लेकिन हैरानी की बात है कि पीडीपी ने भी दोनों सीट पर उम्मीदवार नहीं उतारा.
दरअसल, 2014 में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद ने बीजेपी के जितेंद्र सिंह को खासी टक्कर दी थी. हालांकि, सिंह के 4,87,369 वोट के मुकाबले 4,26,393 वोट लेकर आजाद 60,976 वोट से हार गए थे. लेकिन पीडीपी उम्मीदवार को भी 30,461 वोट मिले थे. इसी तरह जम्मू सीट पर बीजेपी ने कांग्रेस को करीब 2.57 लाख वोट के अंतर से हराया था लेकिन पीडीपी उम्मीदवार को भी करीब 1.75 लाख वोट मिले थे.
इस बार दोनों सीटों पर उम्मीदवार ना उतारकर पीडीपी, कांग्रेस को बीजेपी से सीधे पंजा लड़ाने का मौका देना चाहती है.
श्रीनगर में एनसी को एडवांटेज
अब बात करते हैं सूबे की राजधानी श्रीनगर की. घाटी की इस हाई प्रोफाइल सीट पर मुख्य मुकाबला पीडीपी और एनसी के बीच रहता है. इस सीट पर एनसी चेयरपर्सन फारूक अब्दुल्ला एक बार फिर मैदान में हैं. उनके खिलाफ पीडीपी ने आगा सय्यद मोहसिन को उतारा है.
2014 के लोकसभा चुनाव में मोहसिन आजाद उम्मीदवार के तौर पर श्रीनगर से लड़े थे और कुल डले करीब 3.12 लाख वोट में से उन्हें महज 16,000 वोट मिले थे जो पीडीपी के विजेता उम्मीदवार का महज दस फीसदी था. माना जा रहा है कि पीडीपी ने जानबूझकर कमजोर उम्मीदवार उतारा है ताकि फारूक अब्दुल्ला को चुनौती ना मिले. श्रीनगर से बीजेपी के खालिद जहांगीर मैदान में हैं.
अनंतनाग की अजब कथा
साउथ कश्मीर की संवेदनशील अनंतनाग सीट का हाल सुनकर तो आप हैरान रह जाएंगे. पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती यहां से एक बार फिर किस्मत आजमा रही हैं. उनके मुकाबले एनसी ने हसनैन मसूदी और कांग्रेस ने प्रदेश के पार्टी अध्यक्ष जावेद अहमद मीर को उतारा है. ये शायद पहली बार होगा कि चुनाव पूर्व गठबंधन में लड़ रही दोनों पार्टियों ने एक ही सीट पर अलग-अलग उम्मीदवार उतारे हों.
माना जा रहा है कि बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला चुकीं महबूबा के खिलाफ लोगों में नाराजगी है. तो उनके खिलाफ किसी एक उम्मीदवार को एकजुट वोट ना पड़े. एनसी और कांग्रेस एक दूसरे का वोट काटेंगी और उसका फायदा महबूबा को होगा.
मकसद ये है कि संसद में जम्मू-कश्मीर की परंपरागत पार्टियों की ज्यादा से ज्यादा मौजूदगी हो.
कश्मीर के अखबार राइजिंग कश्मीर के एग्जीक्यूटिव एडिटर फैसल यासीन का मानना है
पीडीपी और एनसी एक दूसरे के खिलाफ लड़कर कांग्रेस या बीजेपी जैसी पार्टियों को सूबे में पैठ बढ़ाने का मौका देती रहीं. लेकिन इस बार रणनीतिक तरीके से ये दोनों पार्टियां खास तौर पर बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों को हराने के लिए लड़ रहीं हैं.फैसल यासीन, एग्जीक्यूटिव एडिटर, राइजिंग कश्मीर
अब बात हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की
14 फरवरी को हुए पुलवामा हमले के हफ्ते भर के अंदर हुर्रियत नेताओं की सुरक्षा हटा ली गई थी. कश्मीर के हालात पर नजर रखने वालों का मानना है कि सरकार का ये कदम भी दिखावे का है. दरअसल, हुर्रियत नेताओं ने कभी सुरक्षा की मांग की ही नहीं. सुरक्षा उन्हें जानबूझ कर दी जाती थी ताकि उनकी सियासी कार्यवाहियों पर एजेंसियां नजर रख सकें. यानी सुरक्षा का हटना तो हुर्रियत नेताओं को सूट करता है.
इससे पहले मार्च 2015 में पीडीपी और बीजेपी के गठबंधन ने एक दूसरे को फूटी आंख ना सुहाने वाले हुर्रियत नेताओं सय्यद अली शाह गिलानी, यासीन मलिक और मीरवाइज उमर फारुख जैसे अलगाववादी नेताओं की नजदीकियां बढ़ा दीं थीं. 2016 में ज्वॉइंट रेसिस्टेंस फोर्स की शक्ल में हुर्रियत नेताओं ने केंद्र के खिलाफ साझा प्लेटफॉर्म बना लिया था.
जानकारों का ये भी दावा है कि जमात-ए-इस्लामी और जेकेएलएफ जैसे संगठनों पर बैन कश्मीर की सियासत को शांति के बजाय वापस बंदूक की तरफ धकेलेगा. जम्मू-कश्मीर की 6 लोकसभा सीटों पर पांच फेज में चुनाव होने हैं. 11 अप्रैल यानी पहले फेज में बारामूला और जम्मू में वोट डलेंगे.
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