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Bihar: लोकसभा चुनाव में क्या RJD और बेहतर कर सकती थी, तेजस्वी चूके कहां?

अगर बिहार में तेजस्वी यादव बड़ी लकीर खींच पाते, तो बीजेपी की मुश्किलें और बड़ी हो सकती थी. साथ ही वे नीताश कुमार को ‘किंग मेकर’ बनने से भी रोक पाते.

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Bihar Election Result 2024: सियासत की धुरी माने जाने वाले बिहार (Bihar Politics) में इस बार के चुनावी चौसर में ऐसा लग रहा था कि इंडिया ब्लॉक एनडीए को कड़ी टक्कर देगा और जीत-हार के आंकड़े चौंकाने वाले भी हो सकते हैं लेकिन नतीजों के सामने आने के बाद एक सवाल सियासत के केंद्र में है कि क्या आरजेडी और बेहतर कर सकती थी. दल के दारोमदार तेजस्वी यादव अगर चूके हैं, तो किन मोर्चे पर?

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हालांकि, चार सीटों पर जीत के साथ आरजेडी ने ‘कमबैक’ जरूर पुख्ता किया है. 2019 के चुनावों में आरजेडी का बिहार में खाता नहीं खुला था. जबकि 2019 में एनडीए ने 40 में से 39 सीटों पर जीत दर्ज कर दबदबा बनाया था सिर्फ एक किशनगंज की सीट पर कांग्रेस को जीत मिली थी.

इस बार इंडिया ब्लॉक ने एनडीए के 39 के आंकड़े को 30 पर लाया है. NDA को पीछे धकेलने में आरजेडी के कर्ता-धर्ता तेजस्वी यादव को बड़ा श्रेय जाता दिख रहा है. लेकिन सबसे ज्यादा 23 सीटों पर चुनाव लड़कर आरजेडी का स्ट्राइक रेट आशातीत नहीं है.

आरजेडी उम्मीदवारों की जीत में लालू प्रसाद यादव की बेटी मीसा भारती भी शामिल हैं, जिन्होंने पाटलिपुत्रा सीट पर बीजेपी के रामकृपाल यादव को हराया है. पहले, मीसा भरती इस सीट पर दो बार चुनाव हार चुकी थीं.

उधर, उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने 80 लोकसभा सीटों में से सर्वाधिक 37 सीटों पर जीत हासिल की है. जबकि SP की सहयोगी कांग्रेस ने छह सीटों पर जीत दर्ज की है. समाजवादी पार्टी की इस जीत ने बीजेपी को बहुमत के आंकड़े तक पहुंचने से रोका है. साथ ही इंडिया ब्लॉक में दम भी भरा है.

SP- कांग्रेस के चुनावों में मजबूत प्रदर्शन की वजह से उत्तर प्रदेश में कई केंद्रीय मंत्रियों को भी हार का सामना करना पड़ा है. पांच साल पहले 62 सीटों पर जीत हासिल करने वाली बीजेपी 33 सीटों पर सिमट गई है. अलबत्ता बीजेपी का वोट शेयर भी नीचे गिरा है.

SP की इस जीत के पीछे अखिलेश यादव की रणनीतिक कौशल ने राजनीतिक धुरंधरों का ध्यान खींचा है. दरअसल, अखिलेश यादव विधानसभा चुनाव हारने के बाद से लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटे थे.

अखिलेश यादव ने PDA (पिछड़ा- दलित-अल्पसंख्यक ) फॉर्मूले पर फोकस किया और उसी हिसाब से टिकट भी बांटे. मतलब अखिलेश ने यादव-मुस्लिम (MY) की बजाय पीडीए को खासा तवज्जो दी. उनकी यह सोशल इंजीनियरिंग की केमिस्ट्री चुनावी नतीजों में परलक्षित होती दिख रही है.

अखिलेश यादव की इस रणनीति की चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि हिंदी पट्टी बिहार का चुनावी ताना-बाना भी कास्ट कंबीनेशन के इर्द- गिर्द घूमता रहा है.

उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में भी आरजेडी के लिए यादव-मुस्लिम (M-Y) का फैक्टर पहले से महत्वपूर्ण रहा है. बिहार ने NDA को झटका दिया है, लेकिन यह पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश की तरह नहीं है.

अगर बड़ी लकीर खींच देते तो..

जाहिर तौर पर अगर बिहार में तेजस्वी यादव बड़ी लकीर खींच पाते, तो बीजेपी की मुश्किलें और बड़ी हो सकती थी. साथ ही वे नीताश कुमार को ‘किंग मेकर’ बनने से भी रोक पाते.

लोकसभा चुनावों से पहले NDA के लिए कमजोर कड़ी माने जा रहे जेडीयू का लोकसभा चुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन ने बिहार की सियासत के साथ सत्ता में भी नीतीश कुमार का कद बड़ा होता दिख रहा है. बिहार में चिराग पासवान की अगुवाई में LJP (R) (एनडीए के घटक) की पांच सीटों पर जीत के भी मायने निकाले जाने लगे हैं.

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हालांकि, तेजस्वी यादव ने आरजेडी के साथ सहयोगी दलों के उम्मीदवारों के समर्थन में धुआंधार चुनावी सभा की. नौकरी, रोजगार, महंगाई के मुद्दे उछाले. महागठबंधन की सरकार में रहते हुए खुद के काम भी गिनाए. 17 महीने में बिहार में दी गई 5 लाख नौकरियों का क्रेडिट लेने की भरसक कोशिशें की.

इसके अलावा बीजेपी-जेडीयू के खिलाफ नैरेटिव सेट करने में वे हर रणनीति का इस्तेमाल करते रहे. तेजस्वी की रैलियों में उमड़ती भीड़ ने NDA के दिग्गजों को पूरे चुनाव में परेशान किए रखा.

जनवरी महीने में नीतीश कुमार का महागठबंधन से अलग होकर बीजेपी के साथ सरकार बनाने के बाद तेजस्वी यादव पूरे बिहार की यात्रा पर निकले थे. इस यात्रा के साथ तेजस्वी यादव ने सियासती माहौल को अपने पक्ष में करने की कोशिशें की.

इन तमाम प्रयास के बाद भी लोकसभा चुनावों में आरजेडी उलटफेर करने में बड़ा रोल नहीं निभा सकी. विपक्ष के कमजोर प्रदर्शन के पीछे चुनाव प्रचार में तेजस्वी यादव का अकेला पड़ जाना, भी एक वजह है.

उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान की तरह बिहार में प्रचार के दौरान उन्हें विपक्षी दिग्गजों का साथ कम मिला. जबकि एनडीए ने चुनाव प्रचार और वोटों के तार जोड़ने में पूरी ताकत झोंक दी थी.

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वोट शेयर के लिहाज से देखें तो लोकसभा चुनावों में आरजेडी का वोट शेयर सबसे अधिक 22.14 प्रतिशत है. हालांकि, इस वोट शेयर को तेजस्वी यादव सीटों में बदलनें में कामयाब नहीं हो सके. बिहार में आरजेडी ने सभी दलों से ज्यादा 23 सीटों पर चुनाव लड़ा था.

उधर आरजेडी के सहयोगी दल कांग्रेस को 9.20 प्रतिशत और भाकपा-माले का वोट शेयर 3.16 प्रतिशत है.

दूसरा महत्वपूर्ण यह है कि पिछले लोकसभा चुनावों की तुलना में इंडिया ब्लॉक को बिहार में आठ सीटों का फायदा हुआ है.

इनमें आरजेडी के अलावा कांग्रेस को 3, भाकपा माले को 2 सीटों पर जीत मिली है. भाकपा- माले का स्ट्राइक रेट अच्छा रहा है. गठबंधन में उसके हिस्से तीन सीटें आई थी.

इस चुनाव में बीजेपी का वोट शेयर 20.52 प्रतिशत जेडीयू का वोट शेयर 18.56 प्रतिशत है.

इसके साथ ही, 16 सीटों पर चुनाव लड़े जेडीयू को 12 और 17 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली बेजीपी के खाते में भी 12 सीटें आई हैं. यानी जेडीयू और बीजेपी का स्ट्राइक रेट आरजेडी की तुलना में ज्यादा है.

M-Y के साथ दूसरे समीकरण

RJD के वोट शेयर तस्दीक करते हैं कि उसने M-Y के समीकरण को साधा है. पिछले चुनावों में बिहार में आरजेडी को यादव वोटों के बिखराव का नुकसान होता रहा है.

इस चुनाव में RJD की पहली कोशिश यादव वोटों के बिखराव को रोकना था. इसे रोकने में लालू प्रसाद यादव की भी सीधी नजर बनी रही. 23 में से आठ सीटों पर आरजेडी ने यादवों को टिकट दिए.

हालांकि तेजस्वी यादव अपने पिता के एम-वाय समीकरण से बाहर निकलते हुए आरजेडी को MY-BAAP यानी बहुजन, अगड़ा, आधी आबादी (महिलाएं) और पुअर (गरीब) की पार्टी बता रहे थे.

इंडिया और एनडीए के घमासान के बीच पूर्णिया में पप्पू यादव ने निर्दलीय चुनाव जीतकर सबको चौंकाया है. वे लालू यादव को चुनौती देकर मैदान में उतरे थे.

लोकसभा चुनावों से पहले पप्पू यादव कांग्रेस में शामिल हुए थे. लेकिन कांग्रेस के चाहने के बाद भी लालू प्रसाद ने पूर्णिया की सीट नहीं छोड़ी. यहां जेडीयू से आईं बीमा भारती को आरजेडी ने मैदान में उतारा. लेकिन बीमा भारती की करारी हार आरजेडी की रणनीतिक चूक के तौर पर देखा जा सकता है.

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अगर पप्पू यादव कांग्रेस से चुनाव लड़ते, तो मुमकिन था कि कोसी, सीमांचल के इलाके में वे इंडिया ब्लॉक के पक्ष में समीकरणों को साधने में जोर लगाते. इसी तरह सीवान में हेना शहाब का निर्दलीय चुनाव लड़ने भी आरजेडी को नुकसान होता दिख रहा है.

M-Y फैक्टर से बाहर निकलने और नीतीश कुमार के कोर वोट बैंक माने जाने वाले कोइरी- कुर्मी (लव- कुश) को तोड़ने के लिए लालू प्रसाद यादव ने इस बार बिसातें जरूर बिछाई, लेकिन कुछ कुशवाहा और दूसरी जातियों से जुड़े चेहरे को टिकट देने भर से समीकरणों में उलटफेर नहीं किया जा सकता है.

इसके अलावा, इंडिया ब्लॉक का हिस्सा बने और तीन सीटों पर चुनाव लड़ने वाली मुकेश सहनी की पार्टी वीआईपी को भी किसी सीट पर जीत नहीं मिली.

चुनाव प्रचार में तेजस्वी यादव और मुकेश सहनी लगातार एक साथ मंच पर नजर आ रहे थे, लेकिन नतीजों में इसका फायदा विपक्ष को नहीं मिला है.

आरजेडी ने नीतीश कुमार के लव-कुश वोट बैंक को साधने की भी कोशिशें की और कई कुशवाहा उम्मीदवार उतारे. औरंगाबाद में आरजेडी के अभय कुशवाहा ने जीत का परचम भी लहराया.

लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अलावा अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) का बड़ा हिस्सा नीतीश कुमार की ओर जाता दिखता है. महिलाओं का रूझान भी एनडडीए की तरफ जाता दिख रहा है.

ऐसे में आरजेडी नेतृत्व को सोचना होगा कि यादवों के साथ दूसरे सामाजिक समीकरणों से जुड़े फैक्टर को कैसे मजबूत बनाया जाए.

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मिथिलांचल, सीमांचल, तिरहुत

चुनाव लड़े 23 लोकसभा सीटों में से आरजेडी को जिन चार सीटों- बक्सर, पाटलिपुत्र, औरंगाबाद और जहानाबाद में जीत मिली है, वे मगध और शाहबाद के इलाके में हैं. सीपीआई-एमएल ने भी इसी इलाके से आरा और काराकाट की सीट जीती है.

जबकि मिथिलांचल, सीमांचल, तिरहुत क्षेत्र के अलावा दक्षिण और पश्चिम बिहार की कई प्रतिष्ठा वाली सीटों पर आरजेडी को हार का सामना करना पड़ा है.

दरभंगा से आरजेडी के पूर्व मंत्री ललित यादव, मधुबनी से हेवीवेट माने जाने वाले अली अशरफ फातमी, सीवान से पूर्व विधानसभा अध्यक्ष अवध बिहारी चौधरी जैसे चेहरे की हार हुई है.

एनडीए को झटका देने के लिए इन इलाकों में आरजेडी को अपना करिश्मा दिखाना जरूरी था. इन इलाके की कई सीटों पर आरजेडी को लगातार हार का सामना करना पड़ा है.

दूसरी तरफ मिथिलांचल, तिरहुत, दक्षिण- पश्चिम बिहार की अधिकतर सीटों पर एनडीए ने कब्जा जमाया है. इसलिए आरजेडी के सामने इसकी भी चुनौती है कि कैसे इन इलाकों में समीकरणों के तार वह जोड़े.

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