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बॉलीवुड के राजपूत राजा- चमचमाती तलवार के साथ ‘हिंदुओं’ के धर्म योद्धा

फिल्में इतिहास तो नहीं हैं, लेकिन उनके जरिए इतिहास को नए सिरे से लिखने की कोशिश की जा रही है.

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फिल्म सम्राट पृथ्वीराज’ का अंत इस टिप्पणी के साथ होता है कि पृथ्वीराज चौहान की मौत उत्तर भारत में हिंदू राज का अंत था और यह कि भारत में अगले 755 साल तक, यानी 1947 में आजादी तक विदेशी आधिपत्य रहेगा. यह टिप्पणी फिल्म के राजनैतिक मकसद को पूरा करती है और साफ तौर से इतिहास को नए सिरे से लिखती है. इसके अलावा यह उन मान्यताओं को भी उजागर करती है जिनका कोई ऐतिहासिक संदर्भ तो नहीं, लेकिन ऐसी राजनीति को पुष्ट जरूर करती हैं.

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सबसे बड़ी धारणा तो यह है कि ‘मुस्लिम’ शासक विदेशी थे और सांस्कृतिक रूप से हमारे दुश्मन, और यह भी कि वे ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों से बमुश्किल अलग थे. एक बात और मानी जाती है जिसका कोई ऐतिहासिक तथ्य मौजूद नहीं है. वह यह कि, राजपूत राजा समय से परे एक योद्धा जाति है जो उत्तर भारत में ‘मुसलिम आक्रांताओं’ से लोहा लेती रही. यह मान्यता इतनी व्यापक है- जैसा कि फिल्मकार की टिप्पणी में भी स्पष्ट है- कि राजपूत शब्द बहुत आसानी से ऐतिहासिक रूप से ‘हिंदू’ शब्द में घुल-मिल जाता है.

इस तरह, जब 'सम्राट पृथ्वीराज' और 'पद्मावत' जैसी फिल्मों में राजपूतों को क्रमशः 12वीं और 14वीं शताब्दी के वीर नायकों के तौर पर दिखाया जाता है तो फिल्मकार एक बात से चूक जाते हैं. वह यह कि जिन राजपूतों को रुतबे, पहचान और ताकत के प्रतीक के रूप में स्थापित किया जा रहा है, वे दरअसल 15वीं शताब्दी से पहले प्रकट ही नहीं हुए थे.

राजपूत थे कौन?

हम अपनी बात की शुरुआत ‘राजपूत’ शब्द से करते हैं. इस शब्द को ढूंढने के लिए 15वीं शताब्दी के ग्रंथों पृथ्वीराज रासो, कान्हादादे प्रबंध और हम्मीरा महाकाव्य को खंगाला जा सकता है. लेकिन इससे पहले के ग्रंथों में यह शब्द नदारद है या छुटपुट ही मिलता है. वैसे ‘राजपूत’ शब्द को संस्कृत शब्द ‘राजपुत्र’ से गड्डमड्ड नहीं किया जाना चाहिए. ‘राजपुत्र’ शब्द का जिक्र कई शिलालेखों में मिलता है जिसके मायने सामंत या स्थानीय सेनापति होता था.

15वीं शताब्दी के ऐतिहासिक संदर्भों में राजपूत कुलीन क्षेत्रीय पहचान लेकर उभरे. यह वह काल था जब दिल्ली की सल्तनत कमजोर पड़ रही थी और मुगल साम्राज्य का प्रकट होना अभी बाकी था. राजनीतिक अस्थिरता बढ़ रही थी और क्षेत्रीय दावेदारों की अरमान परवान चढ़ रहे थे.

वैसे इतिहास गवाह है कि इलाकेदार बड़े साम्राज्यों की प्रशासनिक और सैन्य कमजोरियों का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं. 15वीं शताब्दी इस मामले में अलग थी कि इस दौरान कई क्षेत्रीय भाषाओं और साहित्यिक विधाओं का उद्भव हुआ. इसके साथ ही राजपूतों के गुणों का बखान करने वाले चारण कवि भी पनपने लगे.

पृथ्वीराज रासो और पद्मावत जैसे ग्रंथ अपने विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भों के आधार पर अतीत की एक सुंदर परिकल्पना करते हैं. इनकी विशेषता यह है कि 15वीं शताब्दी और 16वीं शताब्दी के राजाओं की वंशावलि का भी इनमें उल्लेख है. दिल्ली के सुल्तानों ने जब भी उत्तर भारत में बढ़त बनाने की कोशिश की, इन राजपूत राजाओं (या इन ग्रंथों के नायकों) ने उनका विरोध किया था, भले ही वे नाकाम रहे हों.

इन ग्रंथों में कल्पना की गई है कि अपने पूर्वजों की ही तरह इन शूरवीरों ने भी दिल्ली की ‘विदेशी’ सल्तनत से दो-दो हाथ किए. इस प्रकार चारण कवियों ने अपने संरक्षकों और उनके पुरखों की वीरता के बीच वंशानुगत रिश्ते जोड़े और इस पर जोर दिया कि मौजूदा राजा भी उतने ही बहादुर हैं. 15वीं शताब्दी में उत्तर भारत के राजनीतिक उठापटक के बीच बहादुरी के इन किस्सों ने राजपूत राजाओं की महत्वाकांक्षाओं में रंग भरे. पृथ्वीराज चौहान जैसी शख्सीयतें शौर्य का मूर्त और स्पष्ट प्रतीक हैं.

लेकिन सत्ता की दावेदारी के बावजूद ये क्षत्रप बहुत विनम्र और सामाजिक रूप से विविध पृष्ठभूमि वाले थे. रासो के रचनाकार ने पृथ्वीराज और उनकी क्षत्रिय योद्धाओं की मंडली को एक कुलीन आदर्श के रूप में पेश किया. चूंकि वह खुद भी उस उभरती हुई राजपूत पहचान और सामाजिक प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहा था.

इस प्रकार जब ‘सम्राट पृथ्वीराज’ और ‘पद्मावत’ जैसी फिल्में राजपूतों के रूप में अपने नायकों की कल्पना कती हैं तो वे न सिर्फ ऐतिहासिक दावे करती हैं बल्कि ऐतिहासिक नायकों पर 17वीं या 18वीं शताब्दी के राजपूतों की छवि को सुपरइंपोज करती हैं. ये फिल्मी नायक अधिक उदात्त होते हैं. उस दौर के अंदरूनी तनाव से अनजान. जबकि इन ऐतिहासिक पुरुषों ने कभी खुद को राजपूत कहा ही नहीं था.

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‘रचनात्मक आजादी’ की राजनीति

तथ्यों की तोड़ मरोड़ की जहां तक बात है, तो ऐसी फिल्मों की राजनीति को समझने की भी अपनी एक हद है, खास तौर से जब चंद्र प्रकाश द्विवेदी जैसे फिल्मकार साफ तौर से कहते हों कि उनका सोर्स मैटीरियल पृथ्वीराज रासो एक काव्य है, इतिहास नहीं. लेकिन ‘सम्राट पृथ्वीराज’ फिल्म में सिर्फ तथ्यों के लिहाज से सोर्स से भटकाव नहीं हुआ है. रासो में कुछ साहित्यिक रूपकों और अवधारणाओं की चतुराई पूर्ण व्याख्या भी है जो बहुत अहम है. ‘रचनात्मक आजादी’ के नाम पर ऐसी व्याख्याएं इतिहास को दोबारा लिखने की फिल्मकार की राजनीति को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं.

फिल्म में पृथ्वीराज और उनके क्षत्रिय साथियों को दर्शाने के लिए दो रूपकों का इस्तेमाल किया गया है- वे ‘हिंदू’ धर्म का पालन करते थे और औरतों को बराबरी का दर्जा देते थे. लेकिन रासो में क्षत्रिय धर्म के मायने है, बहादुरी और बर्ताव. यही राजपूत की खासियतें हैं. चूंकि राजपूत लोग विनम्र और अलग-अलग सामाजिक पृष्ठभूमि वाले थे, इसलिए क्षत्रिय धर्म सिर्फ उनकी महत्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति नहीं था, बल्कि उन्हें अनुशासित करने का एक जरिया भी था. उनके लिए यह जानना जरूरी था कि राजपूतों को कैसे बर्ताव करना चाहिए, और क्षत्रिय धर्म ने उन्हें ऐसा करना सिखाय़ा.

इसके बजाय फिल्म पृथ्वीराज को 'हिंदू' हितों के अगुवा के रूप में पेश करने के लिए ऐतिहासिक रूप से बेजान और कृत्रिम शब्द 'हिंदू'-धर्म का उपयोग करती है. क्षत्रिय धर्म जैसी साहित्यिक अवधारणा का दुरुपयोग, जोकि एक जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया को कमतर करता है, रासो के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बीच के क्षेत्रीय संघर्ष को ‘हिंदू मुसलमान’ भिड़ंत में बदल देता है. इसे कालदोष भी कहा जा सकता है, जब दो काल को हम एक साथ देखने लगें. इस अतीत काल की बात को हम वर्तमान काल में उतारने लगते हैं.

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पृथ्वीराज चौहान एक फेमिनिस्ट

इसी तरह पृथ्वीराज को फिल्म में महिला अधिकारों का पैरोकार दिखाना भी एक बड़ी दिक्कत है. फिल्म के जिस हिस्से में पृथ्वीराज और संयोगिता भागते और शादी करते हैं, वह यह नेरेटिव गढ़ता है कि प़ृथ्वीराज भारत के उपनिवेश बनने से पहले (या मुसलमानों के शासन के दौर में) महिलाओं के समान अधिकारों के लिए लड़ कर रहे थे. बेशक, रासो में औरतों के लिए जगह भी है, और उनकी भूमिका भी है लेकिन द्विवेदी की सोच से बहुत अलग है. रासो में वीर और श्रृंगार रस की साहित्यिक कलात्मकता है. इसमें युद्ध के मैदान में दिलेरी को दर्शाने के लिए वीर रस का इस्तेमाल किया गया है, जबकि श्रृंगार रस के जरिए पृथ्वीराज और तमाम स्त्रियों के प्रेम मिलन को दर्शाया गया है.

पृथ्वीराज अपने दौर के महान क्षत्रिय राजा इसलिए हैं क्योंकि वह जंग जीतने और स्त्रियों से प्रेम करने, दोनों में पारंगत हैं. रासो इन क्षत्रिय राजाओं के लिए एक अनुशासन कायम करने का भी काम करता है क्योंकि यह बताता है कि उन्हें जंग के मैदान में ही नहीं, निजी स्पेस- जहां औरतें होती हैं- में भी कैसे बर्ताव करना है.

इस लिहाज से रासो में औरतें एक सीमित भूमिका में हैं- वे अपने नायकों के नायकत्व में चार चांद लगाने के लिए हैं. दूसरी तरह फिल्म में पृथ्वीराज को महिला अधिकारों का हिमायती बताने की राजनीति न सिर्फ इसलिए खतरनाक है क्योंकि उसमें ऐतिहासिक त्रुटि है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वह एक समुदाय को चुनने की कोशिश करती है.

चूंकि ‘मुसलमान’ मोहम्मद गौरी में ये विशेषताएं नहीं हैं, जो पृथ्वीराज में हैं. फिल्म का खलनायक गौरी, फिल्म के नायक पृथ्वीराज से एकदम अलग है- पृथ्वीराज की शराफत और नैतिकता से महरूम है. स्त्री-पुरुष समानता के आधुनिक मूल्यों को रासो के कथित ‘हिंदू’ नायक से जोड़कर, जोकि उसके ‘मुसलिम’ प्रतिद्वंद्वी की बर्बरता से एकदम अलग है, यह फिल्म उस कृत्रिम सांप्रदायिक कटुता की राजनीति को मजबूत करती है जो आजकल के सामाजिक विमर्श का हिस्सा है.

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इतिहास को दोबारा क्यों नहीं लिखा जा सकता

राजपूतों को एक ऐसे योद्धा के रूप में दर्शाना, जो काल से परे है और ‘मुसलमान’ हमलावरों का विरोध कर रहा है, वैसा ही है, जैसे अंग्रेजों ने भारत में अपने औपनिवेशिक शासन को मजबूत करने के लिए इतिहास को नए सिरे से लिखा था.

हो सकता है कि फिल्मकार जानबूझकर अपने सोर्स मैटीरियल की गलत व्याख्या न कर रहे हों, लेकिन कई बार वे इसे शब्दशः पढ़ रहे होते हैं- बिना यह समझे कि इसे लिखने के पीछे ब्रिटिश शासकों का क्या मकसद था. बेशक फिल्ममेकिंग इतिहास लेखन नहीं है, लेकिन सिर्फ यही एक चूक नहीं होती- आप सिर्फ इतिहास लिख सकते हैं, उसे दोबारा, नए सिरे से नहीं लिख सकते.

(लेखक शिकागो यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्टूडेंट हैं और डिपार्टमेंट ऑफ द साउथ एशियन लैंग्वेजेज़ एंड सिविलाइजेशंस (एसएएलसी) में काम करते हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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