पहले हिंदी फिल्मों में 'नायक' बेहद हैंडसम और चुस्त-दुरुस्त-तंदुरुस्त ही होते थे, ऐसी उम्मीद की जाती थी कि उनमें किसी तरह की कोई कमी न हो, उसके पास हमेशा हर समस्या का समाधान हाजिर हो...और सबसे बड़ी बात - वो 'वन मैन आर्मी' हो, जो बड़ी से बड़ी मुसीबत का अकेले मुकाबला करे, और हर बार जीते. लेकिन बीत गया वो जमाना, जब ये 'सपनों के राजकुमार' टाइप हीरो ही बॉलीवुड की पहचान हुआ करते थे. वक्त के साथ हिंदी फिल्मों की कहानियों और नायकों के किरदारों में जबरदस्त बदलाव आया है.
हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में जिन छोटी-बड़ी बीमारियों से जूझते हुए लोगों को हम देखकर अमूमन नजरअंदाज कर देते हैं, अब बॉलीवुड उन बीमारियों पर आधारित फिल्में बनाकर समाज में जागरुकता फैलाने का बेशकीमती काम कर रहा है. और इसके लिए फिल्म के नायक/नायिका को ही इन बीमारियों से पीड़ित दिखाया जाता है. दर्शक भी ऐसी फिल्मों को बेहद पसंद कर रहे हैं, क्योंकि ये असल जिंदगी के ज्यादा करीब हैं. हाल के वर्षों में बॉलीवुड में बनी कुछ ऐसी ही फिल्मों और उनके विषयों पर आइए डालते हैं एक नजर.
द स्काई इज पिंक (2019) - पल्मनरी फाइब्रोसिस
इस फिल्म में प्रियंका चोपड़ा एक ऐसी बच्ची की मां बनी हैं, जो पल्मनरी फाइब्रोसिस नाम की जानलेवा बीमारी से जिंदगी की जंग लड़ रही है. जायरा वसीम ने प्रियंका की बेटी का रोल अदा किया. इस बीमारी में फेफड़ों के ऊतकों में घाव बन जाते हैं, जिससे मरीज को सांस लेने में गंभीर समस्या होती है. ये फिल्म आयशा चौधरी नाम की एक लड़की की जिंदगी से प्रेरित है, जो महज 18 साल की उम्र में इस बीमारी से लड़ते हुए इस दुनिया से चली गई थी.
हिचकी (2018) - टॉरेट सिंड्रोम
इस फिल्म में रानी मुखर्जी ने एक ऐसी टीचर का किरदार निभाया, जो टॉरेट सिंड्रोम नाम की बीमारी से पीड़ित है. इस बीमारी में शरीर की नर्व्स ठीक से काम नहीं करती, जिस वजह से इससे पीड़ित व्यक्ति असामान्य हरकतें करने लगता है- जैसे अचानक आवाजें निकालना, हिचकी लेना, शद्बों को दोहराना, बार-बार सूंघना, बार-बार पलके झपकाना और होंठों को हिलाना. इस वजह से पीड़ित को रोजाना की जिंदगी में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. फिल्म में दिखाया गया कि कैसे टॉरेट सिंड्रोम की वजह से रानी मुखर्जी को टीचर की नौकरी काफी जद्दोजहद के बाद हासिल हो पाती है. उसके बाद बच्चों को पढ़ाते हुए कैसे तरह-तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है.
इस फिल्म में रानी का किरदार अमेरिकन मोटिवेशनल स्पीकर और टीचर ब्रैड कोहेन से प्रेरित है, जो कि टॉरेट सिंड्रोम के चलते तमाम परेशानियां झेलकर भी एक कामयाब टीचर बने. उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी थी- ‘फ्रंट ऑफ द क्लास: हाउ टॉरेट सिंड्रोम मेड मी द टीचर आई नेवर हैड’. ये फिल्म इसी पर आधारित है.
गुजारिश (2010) - क्वाड्रिप्लेजिया
‘हूज लाइफ इज इट एनीवे’ और ‘द सी इनसाइड’ जैसी फिल्मों से प्रेरित संजय लीला भसाली की फिल्म ‘गुजारिश’ में ऋतिक रोशन को क्वाड्रिप्लेजिया नाम की बीमारी से पीड़ित दिखाया गया. किसी दुर्घटना में जब स्पाइनल कॉर्ड पर गंभीर चोट लगती है तो ये बीमारी होती है. इसमें पूरे शरीर पर लकवा मार जाता है और मरीज के हाथ, पैर, धड़ सब सुन्न पड़ जाते हैं. ऐसे में मरीज बिना किसी की मदद के हिल-डुल भी नहीं सकता.
ये फिल्म एथन नाम के एक जादूगर की कहानी है, जो क्वाड्रिप्लेजिया की वजह से पिछले चौदह साल से बिस्तर पर अपनी जिंदगी गुजार रहा है. आखिरकार इस बेबस जिंदगी से तंग आकर वो अदालत से 'इच्छा मृत्यु' की मांग करता है.
क्वाड्रिप्लेजिया की वजह से अपनी लाचार जिंदगी से निराश इस किरदार के दर्द को रूपहले पर्दे पर बेहद संजीदगी से उतारा गया है. फिल्म देखते हुए दर्शक भी एथन के दर्द और असहाय स्थिति को महसूस करते हैं. फिल्म इस मुद्दे पर भी सवाल खड़े करती है कि ऐसी अवस्था में पहुंच चुके मरीजों को इच्छा मृत्यु दी जानी चाहिए या नहीं.
माइ नेम इस खान (2010) - एसपरजर्स सिंड्रोम
करण जौहर की इस फिल्म में लीड किरदार शाहरुख खान ने निभाया था, जिसे एसपरजर्स सिंड्रोम से पीड़ित एक व्यक्ति दिखाया गया. ये एक ऐसा मनोरोग है, जिसमें मरीज बचपन से ही किसी से नजर मिलकर बात नहीं कर पाता और लोगों से घुल-मिल नहीं पाता. वे सबसे कटे-कटे रहते हैं. इस बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को अपनी कही हुई बात याद नहीं रहती, इसलिए वे बार-बार अपनी बात दोहराते रहते हैं. वे बदलाव को पसंद नहीं करते और हर काम को अपने तरीके से करना चाहते हैं. उन्हें एक समय पर किसी एक विषय में ही दिलचस्पी होती है, और वे उसी के बारे में बात करना पसंद करते हैं. जिन लोगों में एसपरजर्स सिंड्रोम होता है, उन्हें दौड़ने-भागने में भी दिक्कत होती है. हालांकि उनमें आत्मविश्वास की कमी देखने को मिलती है, फिर भी वे अपनी पसंद के काम को बेहद मन लगाकर करते हैं.
‘माई नेम इज खान’ में एसपरजर्स सिंड्रोम से पीड़ित एक भारतीय मुस्लिम के संघर्ष और उसकी देशभक्ति की भावना को साबित करने के लिए जद्दोजेहद को बखूबी दिखाया गया. इस फिल्म में अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले के बाद वहां मुस्लिम समुदाय के लोगों के संघर्ष को भी दिखाया गया. शाहरुख ने अपनी बेहतरीन एक्टिंग से लीड किरदार में जान डाल दी.
पा (2009) - प्रोजेरिया
अमिताभ बच्चन के निभाए तमाम किरदारों में 'ऑरो' का किरदार सबसे यादगार और लीक से हटकर रहा है. आर. बाल्की के निर्देशन में बनी फिल्म 'पा' ने पहली बार भारतीय दर्शकों को 'प्रोजेरिया' नाम की दुर्लभ बीमारी से रूबरू करवाया.
प्रोजेरिया बच्चों में होने वाली एक बहुत ही खतरनाक बीमारी है. यह बीमारी लगभग 80 लाख लोगों में से किसी एक को होती है. इस बीमारी का पता बच्चे की लगभग 2 साल की उम्र होने तक चल जाता है और बहुत ही जल्द ये बीमारी बच्चे को मौत की ओर ले जाती है. इस बीमारी की वजह से बच्चा अपने बचपन में तेजी से बूढ़ा होने और उसका शरीर कमजोर होने लगता है. इसमें बच्चे की त्वचा, धमनियों और और मांसपेशियों में बदलाव आने लगता है. प्रोजेरिया से पीड़ित बच्चे के सिर के बाल झाड़ जाते हैं और उसके सिर का अकार बढ़ जाता है. साथ ही उसकी सारी नसें भी साफ साफ दिखाई देने लगती हैं.
‘ऑरो’ का किरदार निभाना जितना चुनौती भरा था, उससे भी कहीं ज्यादा मुश्किल था उस रोल के लिए हर बार सटीक मेकअप देना. इस लुक के लिए बिग बी को रोज 4 घंटे मेकअप के लिए देने पड़ते थे. इसके बाद शूट खत्म होने पर उसी मेकअप को उतारने में भी 2 घंटे का समय और लगता था. इस किरदार को पूरी शिद्दत से निभाना अमिताभ जैसे मंझे हुए एक्टर के ही बस की बात थी.
तारे जमीन पर (2007) - डिस्लेक्सिया
आमिर खान के डायरेक्शन में बनी इस फिल्म ने उन तमाम भारतीय पैरेंट्स की आंखें खोल दी, जो पढ़ाई में कमजोर अपने बच्चे की असली समस्या से वाकिफ ही नहीं थे. डिस्लेक्सिया एक तरह का लर्निंग डिसॉर्डर है, जिसमें बच्चों को पढ़ने, लिखने, स्पेलिंग को समझने या उन्हें याद रखने में दिक्कत होती है. इससे बच्चे का मन पढ़ाई में नहीं लगता और एग्जाम में उसके मार्क्स कम आते हैं. लेकिन बच्चे की बौद्धिकता के सामान्य स्तर से इस बीमारी का कोई लेनादेना नहीं होता है.
फिल्म में डिस्लेक्सिया से पीड़ित एक बच्चे ‘ईशान’ का किरदार चाइल्ड आर्टिस्ट दर्शील सफारी से निभाया था. आमिर खान ने छोटी से छोटी बारीकियों को ध्यान में रखते हुए दर्शील से इतनी बेहतरीन एक्टिंग करवाई, कि ये फिल्म एक मील का पत्थर साबित हुई. साथ ही इस डिसॉर्डर को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी और पढ़ाई में कमजोर बच्चों का के प्रति उनके नजरिए में भी बदलाव आया.
तो ये कहा जा सकता है कि बॉलीवुड भी वक्त के साथ अब इतना 'मैच्योर' हो चला है कि अब सिर्फ एंटरटेनमेंट के लिए ही फिल्में नहीं बन रहीं, बल्कि अवेयरनेस के लिए भी फिल्में बनाई जा रही हैं. गंभीर बीमारियों के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए फिल्मों के नायक और नायिकाओं को अब अपनी परंपरागत इमेज से बाहर निकल कर असल जिंदगी के ज्यादा करीब दिखने वाले किरदार निभाने में कोई गुरेज नहीं. आज के दौर में आखिर फिल्ममेकिंग महज एक बिजनेस नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी भी है.
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