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जब डायरेक्टर ने राज कपूर को पूरी यूनिट के सामने जड़ा थप्पड़

आज राज कपूर का 95 वां जन्मदिन है.

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कई फिल्मी सितारों का करियर लॉन्च करने वाले शख्स केदार शर्मा जब ‘विष कन्या’ की शूटिंग कर रहे थे, तो एक बड़ी अजीबोगरीब समस्या से उनका वास्ता पड़ा. उन्होंने एक नए लड़के को क्लैपर की नौकरी दी थी. लड़के के पिता उनके करीबी मित्र थे. लेकिन जब भी लड़के को क्लैप करना हो, वह पहले अपने बाल ठीक करता, फिर फ्रेम के लिए पोज देता और उसके बाद ही क्लैप करता!

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हर तरफ घूरती आंखों के बावजूद, वह लड़का हर बार ऐसा ही करता. फिर एक दिन, शर्मा सूरज ढलते समय क्लोज-अप शॉट्स लेना चाहते थे. उन्होंने हाथ जोड़कर लड़के से कहा कि वह फिर से तमाशा ना करे, कम-से-कम एक बार के लिए, नहीं तो 65-80 किमी का सफर तय कर उन्हें दोबारा उसी जगह शूट के लिए आना पड़ेगा.

लड़का राजी तो हो गया लेकिन उसने फिर वैसा ही किया, इस बार तो हीरो की दाढ़ी क्लैपर बोर्ड में फंस गई और शॉट खराब हो गया. शर्मा ने तमतमाते हुए पूरी यूनिट के सामने ही लड़के को जोर का थप्पड़ दे मारा. लड़के ने चुपचाप इसे सह लिया, लेकिन उस रात शर्मा बहुत परेशान रहे और उन्हें एक नए हकीकत का एहसास हुआ. असल में वह लड़का कैमरे के सामने रहना चाहता था, पीछे नहीं.

शर्मा ने अपनी अगली फिल्म,‘नील कमल’ में लड़के को बतौर हीरो चुना, तब उसके सामने थी मधुबाला. एक नई अदाकारा. वह लड़का था रणबीर राज कपूर, जिन्हें हम मशहूर राज कपूर के नाम से जानते हैं.

आगे जाकर कपूर दिलीप कुमार और देव आनंद के साथ हिंदी सिनेमा के पवित्र त्रिमूर्ति में शरीक हो गए. बॉक्स ऑफिस पर एक के बाद एक धमाकेदार फिल्मों की झड़ी लगा दी और जनता के बीच जबरदस्त उन्माद पैदा कर दिया.

लेकिन उनकी पहचान बाकी दोनों एक्टर से बिलकुल अलग थी, क्योंकि बतौर अभिनेता काम शुरू करते ही उनके अंदर निर्देशन की भूख भी जाग गई थी, और उन्होंने खुद को अभिनेता-निर्देशक के रूप में स्थापित कर लिया. आजाद देश की नई रोशनी में जगमगाते हुए कपूर भी अपने साथियों की तरह अपने देशवासियों को अंग्रेजी शासन के विध्वंस का सामना करने वाले नेकदिल इंसान मानते थे.

आवारा और श्री 420 जैसी उनकी शुरुआती फिल्मों में मुश्किल हालात का सामना करते, बेदर्द दुनिया से इंसाफ की मांग करते शख्स को ही दर्शाया गया है, लेकिन उनकी कहानियों में हमेशा आशावाद की झलक दिखती थी.

देशवासियों ने उन्हें माथे पर बिठाया, हैरानी की बात यह है कि दूर देशों में उनके दर्शकों की तादाद बढ़ती चली गई, युद्ध की मार झेल रहे सोवियत संघ के लोगों में वो उम्मीद का प्रतीक बनकर उभरे.

कपूर, जिन्होंने खुद को चार्ली चैपलिन की मनोहर चाल का हिंदुस्तानी प्रतिरूप बना लिया, अभिनेता से कहीं बेहतर निर्देशक थे. जहां दिलीप कुमार ने मेथड एक्टिंग का रास्ता अख्तियार किया, कपूर ने अतिशयोक्तिपूर्ण चाल-ढाल और चेहरे की भाव-भंगिमा पर ज्यादा जोर दिया, यह आम आदमी के गम और खुशी को व्यक्त करने की वो असामान्य शैली थी जो पुराने जमाने की नाटकीय परंपरा में शामिल थी. शायद उन्हें इस बात का गहरा एहसास हो चुका था इसलिए बाद की फिल्मों में उन्होंने कैमरे के सामने दूसरों को निर्देशन देने का फैसला ले लिया.

कुल मिलाकर उनकी फिल्म इस विचार पर बनी होती थी कि वो फिल्मों में उपदेश देते हुए नजर ना आएं, और समाजिक असमानता की कड़वी गोली गुनगुनाने वाले गीत और नाच के जरिए ही परोस दिए जाएं, जिसमें पलायनवाद की हल्की झलक होती थी. इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन के बाकी साथियों से अलग वो भावनात्मक खुलेपन को बौद्धिक ईमानदारी से ज्यादा तवज्जोह देते थे.

उन्हें लोगों की बहुत गहरी समझ थी, और उन्हें मालूम था वो कौन सी बातें हैं जो लोगों को सिनेमाघरों तक खींच कर लाती हैं. वो रफी जैसे कद्दावर की जगह मुकेश की आवाज का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि मुकेश को गुनगुनाना आसान था, आम आदमी के लिए उस आवाज से जुड़ना आसान था.

उनकी हीरोइनें झरनों के नीचे झीने सफेद कपड़ों में दिखती थीं जो किसी सनसनीखेज चाल जैसी लग सकती है, लेकिन दर्शकों के लिए बड़ा आकर्षण का काम करती थी, और कपूर महिलाओं पर आधारित कई सफल और सामाजिक संदेश वाली फिल्में बनाने में कामयाब हुए. सबसे बड़ी बात यह कि संगीत की उनकी समझ हिंदी सिनेमा के इतिहास की आधारशिला मानी जाती है.

पीछे मुड़ कर देंखे तो बतौर निर्देशक उनकी कामयाबी अभिनय में उनकी उपलब्धियों पर भारी पड़ती हैं. लेकिन यादों में राज कपूर आज भी वो आम इंसान, वो अवारा और वो जोकर हैं. उनके संगीत वैश्वीकरण से अरसों पहले सरहदों के पार तत्वों का मेल बयां करते थे. 2006 के फ्रैंकफर्ट बुक फेयर में प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी ने अपने उद्घाटन भाषण में जब राज कपूर के गीत दोहराए तो लोगों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे.

मेरा जूता है जापानी

ये पतलून इंग्लिशतानी

सर पे लाल टोपी रूसी

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

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