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जिसने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखीं उसने सूरज-चांद नहीं देखा

सत्यजीत रे सहजता से और बिना किसी झटके के अपनी फिल्मों में रंग भरते हैं

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जिसने सत्यजीत रे की फिल्में नहीं देखीं उसने सूरज-चांद नहीं देखा
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“सत्यजीत रे को देखकर मेरे भीतर जो अवर्णनीय भाव उभरे उन्हें मैं कभी भूल नहीं सकता. उनका लंबा कद, सौम्य व्यवहार और भेदने वाली निगाहें. ये मेरे भीतर स्वभाविक तौर पर उभरा कि ऐसी उत्कृष्ठ रचनाएं कोई ऐसा ही व्यक्ति बना सकता है. अनजाने में मेरे भीतर उनके प्रति गहरा सम्मान उभरा…. उनकी फिल्मों में शांति है, गहरी संवेदनाएं हैं, इंसानों के प्रति अथाह प्रेम और समझ है और इन सबने मुझे बहुत प्रभावित किया है….सत्यजीत रे की फिल्मों को नहीं देखने का मतलब है सूरज और चांद को देखे बगैर दुनिया में रहना.”  
एंड्रयू रॉबिन्सन की किताब ‘सत्यजीत रे- द इनर आई’ से
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भारत के महान फिल्मकार सत्यजीत रे के बारे में ये शब्द जापान के महान फिल्मकार अकीरा कुरोसावा के हैं. कुरोसावा का मानना था कि सत्यजीत रे “फिल्म उद्योग के एक दिग्गज हैं” और विश्व सिनेमा पर जब भी बात होगी उसमें सत्यजीत रे का जिक्र जरूर होगा. कुरोसावा का कहना था कि

“पाथेर पांचाली को देखने के बाद मेरे जेहन में जो भाव उभरे उसे मैं कभी भूल नहीं सकता. उसके बाद मुझे उस फिल्म को देखने के कई अवसर मिले. और जब भी मैंने उसे देखा मैं पहले से कहीं अधिक अभिभूत हुआ. जैसे कोई बड़ी नदी पूरी पवित्रता और महानता के साथ बहती है, ये सिनेमा भी कुछ वैसा ही है. लोग जन्म लेते हैं, अपना जीवन जीते हैं और फिर अपनी मृत्यु कुबूल करते हैं. रे सहजता से और बिना किसी झटके के अपनी फिल्मों में रंग भरते हैं और वो फिल्में दर्शकों को गहरे उत्साह से भर देती हैं. वो ऐसा कैसे कर पाते हैं? उनकी सिनेमा तकनीक में कुछ भी असंगत या बेतरतीब नहीं है. उनमें उनकी श्रेष्ठता के राज छिपे हैं.”

( एंड्रयू रॉबिन्सन की किताब ‘सत्यजीत रे- द इनर आई’ से )

सत्यजीत रे सहजता से और बिना किसी झटके के अपनी फिल्मों में रंग भरते हैं
फोटो:Twitter
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यह भी पढ़ें: पुण्यतिथि विशेष: सत्यजीत रे की फिल्मों के बेमिसाल सीन

दुनिया के दिग्गज निर्देशक हैं रे के मुरीद

कुरोसावा ही नहीं कुछ अपवादों को छोड़ कर विश्व सिनेमा से जुड़े सभी लोग सत्यजीत रे की फिल्मों से प्रभावित रहे हैं. इस दौर के बड़े निर्देशक मार्टिन चार्ल्स स्कोर्सेसे कहते हैं कि “कान फिल्म फेस्टिवल में 1970 के दशक के मध्य में मैंने सत्यजीत रे को पहली बार देखा था.

‘अपु ट्राइलॉजी’ से जैसे रे ने जादू रच दिया
फोटो:Twitter

मैं उनकी “अपु ट्राइलॉजी” (पाथेर पांचाली, अपराजितो, अपुर संसार), देवी, महानगर और चारूलता जैसी क्लासिक फिल्में देखते हुए बड़ा हुआ. मेरी नजर में ये सभी बेजोड़ हैं. सिनेमाई कंटेट और श्रेष्ठता के आधार पर मैं सत्यजीत रे को बीती शताब्दी के 10 सर्वश्रेष्ठ निर्देशकों में से एक मानता हूं.” ( टाइम्स ऑफ इंडिया 19 मई, 2010)

1991 में सिनेमा में अपनी दुर्लभ मास्टरी और मानवतावादी नजरिये से पूरी दुनिया के सिनेमा प्रेमियों और फिल्मकारों पर गहरी छाप छोड़ने के लिए विशेष ऑस्कर- अकादमी मानद पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इस सम्मान के लिए माहौल बनाने में मार्टिन स्कोर्सेसे का बड़ा हाथ था.

उस समय सत्यजीत रे बीमार चल रहे थे और इसलिए 1992 में उन्हें यह सम्मान कोलकाता में सौंपा गया. उसके कुछ समय बाद वो दुनिया छोड़ कर चले गए. 1992 में ही उन्हें भारत रत्न भी दिया गया.

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सिनेमा का महाकाव्य हैं सत्यजीत रे की फिल्में

सत्यजीत रे का जन्म 2 मई, 1921 को कोलकाता में हुआ था. शिक्षा प्रेसिडेंसी कॉलेज और विश्व भारती विश्वविद्यालय में हुई. करियर की शुरुआत उन्होंने बतौर पेंटर की.

1948 में लंदन में इटली के फिल्मकार वित्तोरियो दे सिका की फिल्म “बाइसिकल थीफ” देखने के बाद वो फिल्म निर्माण की तरफ मुड़े. बंगाल के मशहूर साहित्यकार बिभूतिभूषण बंदोपाध्याय के उपन्यास “पाथेर पंचाली” पर उसी नाम से पहली फिल्म बनाई. इस फिल्म को 1955 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और 1956 में कान फिल्म समारोह में भी इसने पुरस्कार जीता.

पहली ही फिल्म से सत्यजीत रे सिनेमा जगत में चर्चा के केंद्र में आ गए. "पाथेर पांचाली" आज भी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाती है. उन्होंने "पाथेर पांचाली" की कहानी को आगे बढ़ाते हुए दो और फिल्में बनाई "अपराजितो" और "अपुर संसार". इसलिए इन तीनों फिल्मों को “अपु ट्राइलॉजी” कहा जाता है. इसका केंद्रीय किरदार अपु है. उसके और उसके परिवार के जरिए एक गरीब व्यक्ति के जीवन के संघर्षों को दर्शाया गया है. "अपु ट्राइलॉजी" सिनेमा का महाकाव्य है. इनमें वो सहज प्रवाह है जिसका जिक्र कुरोसावा ने किया था.

सिनेमा का महाकाव्य हैं सत्यजीत रे की फिल्में
फोटो:Twitter

इस बारे में खुद सत्यजीत रे कहा कहते थे कि वो जीवन के बदलावों को बहुत गहराई से महसूस करने की कोशिश करते हैं. बच्चे से किशोर और फिर युवा होने की प्रक्रिया में एक लय है. आप यह दावे से नहीं कह सकते कि किस पल एक बच्चा… किशोर में बदला और फिर युवा हुआ. जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव और परिवर्तन के बीच एक स्वभाविक लय होती है. उनकी फिल्मों में वही लय देखने को मिलती है.

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सत्यजीत यानी सादगी, उदारता, दरियादिली

सत्यजीत रे पर लिखने वाले एंड्रयू रॉबिन्सन कहते हैं कि जीवन के आखिरी पलों में भी वो कुछ नया सीखने की कोशिश करते रहे. उन पलों में भी जब उनकी सेहत बिगड़ने लगी और घूमना-फिरना कम हो गया.

पत्नी बिजोया रॉय के साथ सत्यजीत रे
फोटो:Twitter

उन्होंने रॉबिन्सन से 1982 में कहा था कि “जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है आदमी फैसले कम सुनाता है” और जिंदगी में “सबसे महत्वपूर्ण चेतनाओं को जागृत रखना होता है और काम करते रहना होता है.” सत्यजीत रे को उनके करीबी माणिक बुलाते थे. उनकी पत्नी बिजोया का कहना था कि “माणिक के बारे में मुझे सबसे अधिक उनकी सादगी, ईमानदारी, उदारता और दरियादिली पसंद थी. उनमें एक बड़ी खासियत यह थी कि वो हर किसी से बड़ी सहजता के साथ घुल-मिल जाते थे. ये एक महान व्यक्तित्व की पहचान होती है.”

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स्टीवन स्पीलबर्ग को माफ कर दिया

सत्यजीत रे इतने उदार और महान थे कि उन्होंने एक बड़े विवाद को तूल नहीं दिया. उन्होंने एलियंस पर एक कहानी लिखी थी. 1960 के दशक में हॉलीवुड में उस पर फिल्म बनाने पर बात शुरू हुई. कोलंबिया पिक्चर्स के साथ करार भी हुआ था. लेकिन वो फिल्म नहीं बन सकी. उसके लगभग 15 साल बाद 1982 में स्टीवन स्पीलबर्ग की एलियन्स पर बनी ई.टी. रिलीज हुई.

स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म की कहानी और सत्यजीत रे की कहानी में काफी कुछ समानता थी. उस पर सत्यजीत रे ने कहा कि उनकी स्क्रिप्ट “द एलियन” के बगैर ई.टी. का निर्माण संभव नहीं था. दोनों में काफी समानता थी. स्पीलबर्ग ने जो सफाई दी वह बहुत से लोगों ने स्वीकार नहीं की.

बाद में स्टीवन स्पीलबर्ग के दोस्त मार्टिन स्कोर्सेसे ने भी कहा कि ई.टी., फिल्म सत्यजीत रे की कहानी से काफी हद तक प्रभावित थी. लेकिन सत्यजीत रे ने इस मामले को तूल नहीं दिया. वो इस मामले को वहीं छोड़ कर आगे बढ़ गए.

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समंदर की तरह व्यक्तित्व का विस्तार

सत्यजीत रे के व्यक्तित्व का विस्तार समंदर जैसा था. वो पेंटर थे. साहित्यकार थे. बच्चों की पत्रिका संपादित करते थे और हर साल एक फिल्म बनाते थे. अपने जीवन में उन्होंने 37 फिल्मों का निर्देशन किया. पटकथा लिखी. शुरुआती फिल्मों में रवि शंकर ने संगीत दिया और बाद में खुद सत्यजीत रे ने संगीत दिया.

‘जलसाघर’ बनाते वक्त उन्होंने गांव के लोगों से अभिनय करा लिया. उनके और कुरोसावा के बारे नोबल पुरस्कार विजेता मशहूर लेखक वी एस नायपॉल ने कहा था कि “वो दोनों अमेरिकी फिल्मकारों की तरह संपत्ति अर्जित करना नहीं चाहते थे.

वो 20वीं सदी में ठीक उसी तरह फिल्में बना रहे थे जैसे 19वीं सदी के लेखकों ने महान रचनाएं लिखीं. वो अपने समाज, अपनी संस्कृति और अपने दौर को सिनेमा जैसे आधुनिक माध्यम के जरिए बयां कर रहे थे. उनकी रचनाओं में गहरा जुड़ाव था. ये अलग-अलग दौर में अपने-अपने तरीके से दुनिया के बारे में अपना नजरिया पेश कर रहे थे.”

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रे के साथ जी लीजिए थोड़ा जीवन

नायपॉल ठीक कहते हैं. संपत्ति अर्जित करने वाले कलाकार वक्त की गर्द में दफ्न हो जाते हैं. समय के साथ लोग उन्हें भूल जाते हैं. लेकिन सत्यजीत रे जैसी महान शख्सियत देश और काल की सीमाओं को मिटा देते हैं. वो पानी और हवा की तरह पूरी दुनिया में फैल जाते हैं. वो जीवन हैं.

अगर आपको कभी समय मिले तो उनकी फिल्मों के जरिए थोड़ा जीवन जी लीजिएगा. इससे दिल और दिमाग पर पड़े अनेक ताले खुल जाएंगे. घोर निराशा के पलों में भी उम्मीदें अंगड़ाई लेने लगेंगी. नकारात्मकता के बीच कुछ अच्छा रचने और कुछ अच्छा करने का मन करेगा. जिंदगी खूबसूरत लगेगी.

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