"ले के पहला पहला प्यार" हो या "मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफून "... गुजरे जमाने के गीत-संगीत की जब बात चलती है, तो ये गाने बरबस जेहन पर दस्तक दे जाते हैं. इन गानों को गाया है शमशाद बेगम ने, जो 1940 से लेकर '70 के दशक तक देश की पहली फीमेल सिंगिंग सुपरस्टार रहीं.
कभी आर कभी पार लागा तीरे नजर, या फिर कजरा मोहब्बत वाला अंखियों में ऐसा डाला रीमिक्स धुनों पर डिस्कोथेक में थिरकते आज के युवा को शायद ही पता होगा कि यह शमशाद बेगम के उस दौर के गाने हैं, जब इस सिंगर पर फोटो खिंचवाने की भी पाबंदी थी.
कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं थी ,लेकिन आवाज मखमली और गजब का टैलेंट था. शमशाद के चाचा आमिर ने उन्हें चुपके से जिनोफोन म्यूजिक कंपनी में ऑडिशन दिला दिया. वहां कंपोजर गुलाम हैदर ने इस आवाज की खनक को पहचान लिया और 16 साल की उम्र में लाहौर ऑल इंडिया रेडियो में उन्हें गाने का मौका मिल गया.
अंग्रेजी हुकूमत का यह वह दौर था, जब प्लेबैक सिंगर का मतलब शायद ही किसी को पता होगा. खांटी इस्लामिक रवायत वाले घर में खूब खींचतान हुई. बुर्का पहनने की शर्त और फोटो न खिंचवाने की पाबंदी पर गाने की आजादी मिल गई. इस तरह एक टैलेंट का कामयाबी की तरफ सफर शुरू हुआ.
14 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग त्रासदी के दूसरे ही दिन शमशाद बेगम का जन्म लाहौर में हुआ था. पिता मियां हुसैन बख्श मान पेशे से मैकेनिक थे. मां गुलाम फातिमा हाउसवाइफ थीं. 1932 में शमशाद को एक हिंदू लॉ स्टूडेंट गणपतलाल बट्टो से मोहब्बत हो गई. जिस दौर में बाल विवाह का चलन था, गैर मजहब वाले से शादी तो नेक्स्ट टू इंपॉसिबल जैसा रहा होगा. जुनून का हिसाब यूं ही लगा लीजिए कि महज 15 साल की शमशाद ने तमाम दुश्वारियों के बावजूद गणपतलाल बट्टो से शादी कर ली.
पहला ब्रेक लेजेंडरी फिल्म मेकर महबूब खान ने दिया और शमशाद के कदम मुंबई की तरफ मुड़ गये. 1940 में प्राण स्टारर ‘यमला जट्ट’, ‘खजांची’, साल 1941 में ‘खानदान’ 1942 से फिल्मी प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत हुई.
उस समय के कंपोजर पंडित गोविंद राम, रफी गजनवी, राशिद अत्रे पंडित अमरनाथ के साथ शमशाद ने स्वर लगाए. उनकी क्रिस्टल क्लियर आवाज और खूबसूरत गायकी ने सभी को उनका मुरीद बना दिया. 1947 में आजादी के बाद गुलाम हैदर पाकिस्तान में जा बसे और शमशाद ने हिंदुस्तान को अपना वतन मान लिया. शमशाद नेशनल स्टार बन गईं.
फिर आया बॉलीवुड म्यूजिक का सुनहरा दौर. नौशाद ओपी नैयर, आर रामचंद्र, एसडी बर्मन उस दौर के शानदार कंपोजर के साथ शमशाद बेगम ने कई नायाब गाने रिकॉर्ड किए और शोहरत की सीढ़ी से कामयाबी की मंजिल तक पहुंच गईं.
‘तकदीर’, ‘हुमायूं’ (1945), ‘शहजादा’ (1946), ‘अनोखी अदा’, ‘आग’ (1948) से शमशाद बेगम प्लेबैक सिंगिंग की दुनिया में पहचान बन चुकी थीं. लेकिन उनका पहला प्यार उनके पति उनका परिवार ही था. तभी 1955 में उनके शौहर गणपतलाल बट्टो का रोड एक्सीडेंट में इंतकाल हो गया और शमशाद बेगम खामोश हो गईं, उन्होंने रिकॉर्डिंग बंद कर दी.
जिंदगी के बुरे वक्त से उबरकर 1957 में महबूब खान की 'मदर इंडिया' के गाने "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली रे" शमशाद बेगम ने प्लेबैक सिंगिंग में कमबैक किया. मुकेश, रफी, किशोर कुमार जैसे नामचीन सिंगर्स के साथ ड्युएट रिकॉर्ड किए.
खास बात यह कि शमशाद बेगम की गायकी का खुमार कुछ इस तरह जम चुका था कि लता मंगेशकर से लेकर आशा भोसले जैसी नई सिंगर से शमशाद बेगम की तरह गाने को कहा जाता था. सितारों जैसे रसूख के बावजूद शमशाद बेगम को अपने दायरे में ही रहना पसंद था. पब्लिक अपीयरेंस कम ही होते थे और इंटरव्यू तो लगभग न के बराबर.
वक्त के साथ यह दौर भी ढलने लगा और 1965 में शमशाद बेगम ने रिटायरमेंट ले लिया. इसके बाद वे अपनी बेटी उषा के साथ चकाचौंध से कोसों दूर रहने लगीं. वजह कुछ यूं ही रही होगी, जैसा उन्होंने 2012 को दिए एक इंटरव्यू में बताया था:
” मैंने जितने हिट्स दिए, मुझे उतना ही कम काम मिला”. बेटी उषा कहती हैं, ”इंडस्ट्री में पॉलिटिक्स बहुत ज्यादा है इसलिए उन्होंने मुझे कभी गाना सीखने का मौका नहीं दिया. वह नहीं चाहती थी कि मैं प्लेबैक सिंगर बनूं.’’
23 अप्रैल, 2013 को लंबी बीमारी के बाद मुंबई में शमशाद बेगम का इंतकाल हो गया. भारत सरकार ने संगीत में उनके योगदान के लिए उन्हें 2009 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. अपने दौर का संगीत हर किसी को यादों के आसमान में यूं ही ले उड़ता है. पुराने एहसास नये हो जाते हैं. एक कलाकार का फन कई जिंदगियों का हिस्सा बन जाता है. न जाने कितने मुरीद हो जाते हैं.
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