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'झुंड' अमिताभ बच्चन की नहीं, डायरेक्टर नागराज मंजुले की फिल्म है

Jhund के डायरेक्टर Nagraj Manjule पर अंबेडकर और फूले का असर रहा है, इस फिल्म में भी उसकी झलक मिलती है

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बॉलीवुड फैन्स फिल्म झुंड(Jhund) को अमिताभ बच्चन की फिल्म होने की वजह से देख रहे हैं, लेकिन वो लोग जो मराठी फिल्म इंडस्ट्री को फॉलो करते रहे हैं, उनके लिए ये फिल्म पूरी तरह से नागराज मंजुले की फिल्म है और इसकी एक वजह है.

झुंड, बॉलीवुड में नागराज मंजुले की डेब्यू फिल्म है. उनके एक दशक से भी कम समय के अब तक के करियर में उन्होंने मराठी सिनेमा के मानकों को बदला है. साल 2014 में आई Fandry उनकी पहली फिल्म थी. नागराज मंजुले की फिल्म मेकिंग के क्लासिक एलिमेंट्स हैं, उनकी आइकनग्राफी, उनका ड्राई, डार्क ह्यूमर और चीजों को व्यंगात्मक और प्रभावी ढंग से इस तरह पेश करना. ये वो बाते हैं जिनकी वजह से थियेटर से निकलने के बाद भी फिल्म से जुड़ी तस्वीरें आपके दिमाग में लंबे समय तक बनी रहती हैं और ये फिल्म झुंड में भी नजर आता है.

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फिल्म झुंड की कहानी नागपुर के स्पोर्ट्स टीचर विजय बारसे के जीवन पर आधारित है. फिल्म में इस कैरेक्टर का नाम है, विजय बोराडे. बारसे अपने शहर में एक बार स्लम के बच्चों को प्लास्टिक की बाल्टी से फुटबॉल खेलते हुए देखते हैं और तब एक दिन उन्हें फुटबॉल लाकर देते हैं. उन बच्चों के चेहरे की चमक और खुशी, जिन्हें पहली बार असली फुटबॉल से खेलने का मौका मिला था, बारसे के दिमाग में बस जाती है. उन्हें खेल की उस क्षमता का एहसास होता है जो उन बच्चों के जीवन को बदल सकती है. इसके बाद वो इन्हें प्रशिक्षित करने को अपने जीवन का मिशन बना लेते हैं.

बाकी की फिल्म में आपको वही कहानी दिखेगी कि कैसे जिन्हें कमजोर समझा जाता रहा, वो कुछ बड़ा करके दिखाते हैं. हालांकि इसके अलावा भी फिल्म में कई चीजें हैं, इसलिए इसे स्पोर्ट्स फिल्म कहकर एक खांचे में नहीं डाल सकते.

एक इंटरव्यू में मंजुले ने कहा है कि उन्होंने इस फिल्म के लिए अच्छा खासा समय नागपुर के स्लम में रहने वाले बच्चों के साथ बिताया. इनमें से कई बच्चों ने फिल्म में काम भी किया है. मंजुले ने इनके जीवन को करीब से देखा, उनके बोलने का तरीका सीखा और हर बात पर गौर किया. उन्हें अपने इस अनुभव से फिल्म के लिए काफी मदद मिली इसलिए उनका चित्रण स्पष्ट रूप से प्रमाणिक नजर आता है.

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मंजुले की फुले-अंबेडकरवादी राजनीति

मंजुले का राजनीतिक झुकाव सभी जानते हैं. वह फुले-अंबेडकरवादी विचारधारा को लेकर कई बार बता चुके हैं कि उनके जीवन में कई मौकों पर इस विचारधारा का प्रभाव रहा है.

हालांकि पिछली कुछ फिल्मों और शॉर्ट फिल्म्स में उनकी पॉलिटिक्स के बारे में कम ही बताया गया है और उनकी आइकनग्राफी, उस फिल्म के कैरेक्टर की जिंदगी की शांत दर्शक जैसी रही है.

लेकिन फिल्म झुंड उनकी पॉलिटिक्स को मिस करने का कोई मौका नहीं देती. महाराष्ट्र के एंटी कास्ट मूवमेंट के बड़े नामों के फोटो फ्रेम्स और कट आउट्स आपको देखते नजर आएंगे. फिल्म में सभी कैरेक्टर अभिवादन करने के लिए एक दूसरे को जय भीम कहते हैं और साथ ही डॉ. बीआर अंबेडकर की जयंती पर बच्चों का डांस भी है. ये वहां के बच्चों के लिए एक त्योहार जैसा है.

मंजुले व्यंग्य के माहिर हैं. अगर आपने फैंड्री देखी हो, तो इसका लास्ट सीन आपके दिमाग में जरूर होगा.

इसमें नायक का परिवार सुअर के मृत शरीर को लेकर एक स्कूल की दीवार के पास से गुजर रहा होता है और इस दीवार पर एक लाइन से डॉ. अंबेडकर, सावित्रीबाई फुले, शाहू महाराज और गाडगे बाबा के चित्र बने हुए हैं. ये सभी एंटी कास्ट मूवमेंट से जुड़े बड़े नाम हैं. फिल्म में नायक का परिवार कैकादी समुदाय से आता है और उनका काम गांव में सुअरों को पकड़ना है, लेकिन इस काम की वजह से उन्हें गांव के लोग लगातार अपमानित करते हैं और उनका मजाक बनाते हैं.

यही व्यंग्य फिल्म झुंड में भी दिखता है, जब बैकग्राउंड में सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा... गाना चल रहा होता है और तभी फिल्म की सबसे दुखद घटना सामने आती है.

वहीं एक दूसरे सीन की बात करें तो जब गरीबी,आभाव और सामाजिक दबाव जैसी रुकावटों को तोड़ते हुए प्लेन स्लम के बच्चों को लेकर विदेश के लिए रवाना होता है, तो ऐसी दीवार के ऊपर से गुजरता है, जिस पर लिखा है- इस दीवार को पार करना वर्जित है.

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फिल्म में क्षेत्रीय भाषाएं

मंजुले ने ये दिखाने की भी हिम्मत की है कि एक मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म में गोंडी भाषा भी बोली जा सकती है और ये एक या दो डायलॉग में नहीं, कई दृश्यों में है. फिल्म में रिंकू राजगुरु ने एक कैरेक्टर प्ले किया है, जो गोंड समुदाय से आता है और घर में गोंडी भाषा बोलता है, मराठी नहीं.

क्षेत्रीय भाषाओं का राष्ट्रवाद पुनरुत्थान पर है, जिसमें महाराष्ट्र भी शामिल है और इसकी वजह से कई बार प्रांतीय और कम बोली जाने वाली भाषाओं को हाशिये पर रख दिया जाता है.

फिल्म फैंड्री में भी नायक जाब्या का परिवार कैकादी भाषा में बात करता था, जो मराठी से अलग भाषा है.

झुंड में आपको वो बातें भी नजर आएंगी जो इसे नागराज मंजुले की बाकी फिल्मों से जोड़ती हैं. इस फिल्म में भी मंजुले ने एक छोटा सा किरदार निभाया है, जैसा कि उन्होंने फैंड्री और सैराट में किया था.

ये तीनों फिल्में जिसे मंजुले ने डायरेक्ट किया है, बाल फिल्में हैं. हाल में दिए एक इंटरव्यू में मंजुले ने कहा भी है कि उन्हें बच्चों के साथ काम करना बहुत अच्छा लगता है और वो जानते हैं कि उनसे अच्छा काम कैसे करवा सकते हैं. नागराज मंजुले की फिल्म में जितने बाल कलाकार नजर आए हैं, उनमें लगभग सभी उन्हीं की खोज हैं.

मंजुले निचली जाति से और एक बहुत गरीब परिवार से आते हैं. उनकी फिल्म के बाकी किरदारों की पृष्ठभूमि भी ऐसी ही है. फिल्म झुंड में स्लम के बच्चों का किरदार निभाने वाले ज्यादातर कलाकार असल में नागपुर के स्लम से ही आते हैं.

मंजुले उनके लिए भी बहुत वफादार हैं जिन लोगों के साथ वो काम करते हैं. फैंड्री और सैराट के लीड एक्टर्स को उन्होंने झुंड में भी अहम रोल दिए हैं. फिल्म का संगीत झिंगट फेम के अजय—अतुल ने दिया है. वहीं Sudhakar Reddy Yakkanti ने एक बार फिर मंजुले की फिल्म के लिए सिनमैटोग्राफी की है.

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मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्म में अंबेडकरवाद

नागराज मंजुले की फिल्म झुंड पूरी तरह से पॉलिटिकल फिल्म है. इसमें एंटी कास्ट एस्थेटिक्स से लेकर हाशिये पर रह रहे लोगों के चित्रण और एक खास तबके को मजबूत करने वाले न्याय की अपील से लेकर नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी पर कमेंट जैसी सभी बातें शामिल हैं.

हालांकि मंजुले का काम हमेशा से ही पॉलिटिकल रहा है, लेकिन इसमें कभी कोई उपदेश या शिक्षा देने की कोशिश नहीं की गई है. झुंड को देखकर ऐसा लग सकता है कि कई जगहों पर इस फिल्म ने वो बाउंड्री क्रॉस की है और इसकी पहला शिकार बनी है इसकी कहानी, जिसकी वजह से फिल्म थोड़ी लंबी खिंच गई है, खास करके इंटरवल के बाद सेकेंड हाफ में.

हालांकि फिल्म के स्ट्रॉन्ग पॉइंट्स स्टोरी टेलिंग की इन कमजोरियों पर भारी पड़ते हैं और उम्मीद की जा सकती है कि मुख्यधारा की इस बॉलीवुड फिल्म में अंबेडकरवाद का स्थिर और शांत चित्रण, इस तरह की दूसरी फिल्मों के लिए भी प्रेरणा बनेगा.

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