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‘जलसा’ रिव्यू: विद्या बालन और शेफाली ने अपने किरदार से फिल्म को दमदार बनाया है

'जलसा' इनर कॉन्फ्लिक्ट, मातृत्व और वर्गों की कहानी है, जिसे इसके दो प्रमुख किरदारों ने शानदार ढंग से निभाया है.

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डायरेक्टर सुरेश त्रिवेणी (Suresh Triveni) की फिल्म ‘जलसा’ में विद्या बालन ने ड्राइवर का रोल अदा किया है. सुरेश ने इससे पहले विद्या बालन के साथ ‘तुम्हारी सुलू’ मूवी बनाई थी. इस फिल्म में विद्या बालन के किरदार का नाम माया है, जो एक मजबूत इरादों वाली लोकप्रिय पत्रकार है. वो एक ऐसी जर्नलिस्ट है, जो असहज सवालों को पूछने से कभी डरती नहीं और जैसे ही फिल्म शुरू होती है, वह एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना में उलझ जाती है. यह फिल्म ऐसी घटनाओं की एक सीरीज पर आधारित है जो लगभग सभी कैरेक्टर्स को चुनौती देता है और उन्हें इसका सामना करने के लिए प्रेरित करता है.

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फिल्म में एक्सीडेंट्स की शुरू में ही होते हैं. एडिटर शिवकुमार वी पणिकर और डीओपी सौरभ गोस्वामी द्वारा डर और पूर्वाभास के सीन को बहुत ही अच्छी तरह से दिखाया गया है.

क्या हम वास्तविक रूप में तभी होते हैं, जब कोई देख नहीं रहा होता है? जलसा में इसी सवाल के जवाब को तलाशने की कोशिश की गई है. जैसे ही हम माया मेनन की ऑफिस के शानदार अंदरूनी हिस्सों से उसके आलीशान घर में जाते हैं, हमें माया के जीवन की एक झलक मिलती है. हम वहां उसके बेटे से मिलते हैं, जिसकी देखभाल उसकी मां करती है. ये कहानी शानदार एक्टर्स के साथ जीवंत हो उठती है.

सूर्य कासिभटला सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित 10 वर्षीय एक युवा एक्टर हैं, जो इतनी गर्मजोशी और ईमानदारी के साथ कैरेक्टर आयुष की भूमिका निभाते हैं कि उन्हें देखकर खुशी होती है. विद्या बालन, शेफाली शाह और रोहिणी हट्टंगड़ी- तीन दमदार कलाकार फिल्म को और ज्यादा खूबसूरत बना देते हैं.

प्रज्वल चंद्रशेखर और सुरेश त्रिवेणी की स्क्रीनप्ले गहराई से भरी हुई है. रुकसाना और उसका परिवार माया और उसकी दुनिया को सहारा देने वाले वर्ग विशेषाधिकार का आनंद नहीं लेता है. जैसे ही रुकसाना का बेटा अपने एक तंग कमरे के घर से माया के सुंदर घर में रात बिताने के लिए आता है, यहां पता चलता है कि वो कितने अलग हैं. माया के घर में एक कैमरा लगा हुआ है, जिससे वह दिन भर अपने बेटे को देख सकती है.

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अपने और अपने परिवार का सपोर्ट करने के लिए काम करने वाली दो महिलाओं की कहानी, अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए अपनी समस्याओं से जूझ रही माताओं की और हर कीमत पर डरने और जीवित रहने से इनकार करने वाले व्यक्तियों की यह कहानी अपने आप में एक आकर्षण है. जब हम इन किरदारों को देख रहे होते हैं, तो जलसा बेहद खूबसूरत लगती है.

हालांकि जैसे-जैसे और कैरेक्टर्स सामने आते हैं और नई चीजें जुड़ती हैं एक क्लासिक केस बन जाता है. हमारे पास भ्रष्ट पुलिस और पावरफुल राजनेता हैं, संदिग्ध सौदे और अपराधबोध है. हालांकि गंभीर कार्रवाई करने की कोशिश और बिना ड्रैमेटिक अंदाज के हम एक ऐसी साजिश के साथ समाप्त हो जाते हैं, आधे-अधूरे कैरेक्टर्स को महसूस को महसूस करवाती है.

जब भी विद्या बालन और शेफाली शाह एक साथ फ्रेम साझा करते हैं, फिल्म जीवंत हो जाती है. एक कैरेक्टर कुछ छिपाने की कोशिश कर रहा है, दूसरा जवाब खोज रहा है. एक डिफेंसिव है, अपराध-बोध से ग्रस्त है और दूसरा गुस्से से भरा हुआ है कि उसके साथ कितना कुछ बुरा हो रहा है. विशेष रूप से शेफाली शाह की एक मंत्रमुग्ध करने वाली उपस्थिति है.

लेकिन स्टोरी में नई थीम्स जुडॉती हैं तो फिल्म लड़खड़ाती है. सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था, उत्पीड़न, असमानता फिल्म को उसके मूल से दूर ले जाता है और इसके प्रभाव को कुंद कर देता है. जलसा अपराध और सजा के बारे में इतना नहीं है, जितना कि रिश्तों और मानवता के बारे में है.

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