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‘कामयाब’ रिव्यू: साइड हीरो का सम्मान है ये फिल्म

‘कामयाब’ फिल्म उन लोगों की बात करती है, जिनका काम सितारों की चमक में खो जाता है

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‘कामयाब’ रिव्यू: साइड हीरो का सम्मान है ये फिल्म

कोई बॉलीवुड में सक्सेस कैसे मापता है? वैसे कोई कहीं भी सक्सेस कैसे तय करता है? जब हम ‘कामयाब’ के सुधीर (संजय मिश्रा) से मिले, तो वह ऐसा शख्स मालूम हुआ, जिसे कोई ''कामयाबी'' की तस्वीर तो कतई नहीं मान सकता. अपने भूरे बालों के साथ सुधीर खस्ताहाल घर में बैठा हुआ है. टीवी एंकर उससे अपना एक डॉयलॉग बोलने के लिए कहता है. लेकिन इंटरव्यू की जैसी प्लानिंग थी, वैसा नहीं होता. लेकिन सुधीर ऐसा आदमी है, जो एक मिशन पर निकला है.

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जैसे-जैसे फिल्म चलती है, हमें पता चलता है कि सुधीर ने 70 और 80 के दशक में कई सारे रोल किए थे. इनमें से कई बॉलीवुड फिल्में सफल रहीं. अपनी अंतिम फिल्म में एक कांड में फंसने के चलते सुधीर फिल्में करना बंद कर देता है. लेकिन अब वो वापसी करने के लिए तैयार है.

हार्दिक मेहता की ''कामयाब'' बताती है कि कैसे मेनस्ट्रीम बॉलीवुड फिल्में एक्टर के बजाय स्टार पर फोकस करती हैं. आखिर दोनों के बीच अंतर क्या है?

स्टारडम की चकाचौंध में दूसरों का काम फीका पड़ जाता है. फिल्म इस मुद्दे पर बखूबी ध्यान दिलाती है, लेकिन इसमें गहराई से नहीं उतरती. ऊपर-ऊपर ही सही, यह भावनात्मक स्तर पर आपकी इच्छाओं को पूरा करती है.

संजय मिश्रा ने अपने किरदार के साथ बहुत शानदार काम किया है. उनका किरदार बूढ़ा होने के आने वाले नॉलेज और असुरक्षा को अच्छे तरीके से दिखाता है.

इस फिल्म का डॉयरेक्शन हार्दिक मेहता ने किया है. उन्होंने ही यह फिल्म भी लिखी है. फिल्म के डॉयलॉग राधिका आनंद ने लिखे हैं. कुलमिलाकर ''कामयाब'' बॉलीवुड के स्टार कल्चर पर अच्छी कमेंट्री है. आखिर बॉलीवुड में कामयाबी का मतलब क्या होता है?

क्या यह अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग हो सकती है? यह उन पुलिसवाले, डॉक्टर या हीरो के साथी के उन किरदारों की तरफ हमारी नजर घुमाती है, जिन्हें बॉलीवुड नजरंदाज कर देता है. जैसा सुधीर कहता है- ''बस एंजॉयिंग लाइफ और ऑप्शन क्या है ? '' यह कहानी रोजाना की जिंदगी के संघर्ष को भी दिखाती है.

फिल्म को मिलते हैं 5 में से 3.5 क्विंट्स

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