असम (Assam) में 10 फरवरी को एक हिंदुत्व संगठन- कुटुम्ब सुरक्षा परिषद ने मिशनरी स्कूलों को 15 दिनों के अंदर यीशु और मैरी की तस्वीरों और मूर्तियों सहित ईसाई (Christians) 'प्रतीकों' को हटाने की धमकी दी थी.
Explainer: असम में 'जादू-टोने' के खिलाफ पारित बिल से ईसाई समाज क्यों नाराज है?
1. इस बिल के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?
ये बिल "बुरी प्रथाओं" के खिलाफ है. "कोई भी व्यक्ति अगर जादू टोने से किसी के इलाज करने का काम करता हो, जिसके पीछे खतरनाक उद्देश्य हो और जिससे आम लोगों का शोषण हो"- ऐसे कामों को इस बिल में "बुरी प्रथा" के रूप में परिभाषित किया गया है.
यह कुछ बीमारियों और स्वास्थ्य संबंधित परेशानियों के इलाज के लिए उपचार पद्धतियों पर प्रतिबंध लगाता है, साथ ही किसी भी "धार्मिक प्रथाओं के भ्रामक विज्ञापन" को भी रोकता है.
बिल के अनुसार, "कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपचार पद्धतियों के माध्यम से बीमारियों को ठीक करने के किसी भी झूठे दावे से संबंधित किसी भी प्रकार की दवा, उपचार से संबंधित किसी भी प्रकार के विज्ञापन में भाग नहीं ले सकता."
21 फरवरी को सदन में पेश किया गया यह विधेयक 26 फरवरी को असम विधानसभा में चर्चा के बीच पारित हो गया. किसी भी व्यक्ति द्वारा "जादुई उपचार" को कॉग्निजेबल और गैर-जमानती अपराध बनाते हुए, विधेयक में कहा गया है:
पहली बार अपराध करने पर, दोषी को एक साल की कैद की सजा होगी, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है या 50,000 रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
अगर वही बाद में दोषी भी पाया गया तो उसको जेल की सजा का सामना करना पड़ेगा जिसे पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है या 1 लाख रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
इसमें कहा गया है कि एक पुलिस अधिकारी, जो सब-इंस्पेक्टर के पद से नीचे का न हो, को ऐसे मामलों के लिए निरीक्षण करने की शक्ति है, अगर उसके पास इस बात का कारण हो कि इस अधिनियम के तहत कोई अपराध किया गया है या अपराध होने की संभावना है.
Expand2. 'जादुई उपचार शब्द ईसाई धर्म में मौजूद नहीं है'
असम क्रिश्चियन फोरम (एसीएफ) के अध्यक्ष और गुवाहाटी आर्चडायसीस के आर्चबिशप जॉन मूलचेरा ने द क्विंट को बताया कि यह कानून उपचार प्रथाओं और तरीकों के बारे में, बीमारी से निपटने के लिए "विश्वास और प्रार्थना" की भूमिका को लेकर "गलत धारणाओं" पर आधारित है, साथ ही यह धार्मिक "विविधता" का सम्मान करने में विफल है.
"ईसाई धर्म में जादुई उपचार नाम का कोई शब्द नहीं है. हमने इसके बारे में पहली बार असम विधानसभा में सुना. हम केवल उपचार नहीं करते हैं- यह हमारी प्रार्थना का हिस्सा है. हमारे पास हर दूसरे धर्म की तरह ही उपचार प्रार्थनाएं हैं. जब कोई बीमार व्यक्ति हमारे पास आता है, तो हम उसके लिए व्यक्तिगत रूप से या समूह में एक साथ खड़े होकर प्रार्थना करते हैं. हम लोगों को ठीक करने के लिए जादू नहीं करते हैं. सरकार इसे अवैध और दंडनीय क्यों बना रही है, यह हमारी समझ के बाहर है."
आर्चबिशप जॉन मूलचेराविधेयक के बारे में बात करते हुए, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा था कि, "हम असम में evangelism (इंजीलवाद) पर अंकुश लगाना चाहते हैं और इस संबंध में हीलिंग पर प्रतिबंध एक मील का पत्थर है."
उन्होंने कहा था कि जादुई उपचार "आदिवासी लोगों के धर्म परिवर्तन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक खतरनाक चीज है."
बता दें कि, लोगों को ईसाई बनने के लिए प्रेरित करने की गतिविधि को इंजीलवाद कहते हैं, इसमें अक्सर यात्रा करके दूसरे धर्म के लोगों को ईसाई धर्म के बारे में बताया जाता है.
सीएम ने आगे कहा, "हम इस विधेयक को लागू करने जा रहे हैं क्योंकि हमारा मानना है कि धार्मिक संतुलन के लिए यथास्थिति बनाना जरूरी है. मुसलमानों को मुस्लिम ही रहने दें, ईसाइयों को ईसाई ही रहने दें, हिंदुओं को हिंदू ही रहने दें."
एक बयान में, असम क्रिश्चियन फोरम ने कहा कि उनकी टिप्पणियां "भ्रामक और अनावश्यक दोनों" थीं.
"असम कैबिनेट का यह दावा कि ईसाई (जिनकी आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में लगभग 11 लाख है) जादुई उपचार में शामिल हैं, ये गलत और भ्रामक है. हमारी कई डिस्पेंसरियां और अस्पताल मान्यता प्राप्त चिकित्सा ढांचे के अंदर काम करते हैं, जो बीमारों को आवश्यक सेवाएं देने का काम करते हैं."
असम क्रिश्चियन फोरमExpand3. 'बिल लोगों को धर्म का पालन करने की इजाजत देने की संवैधानिक गारंटी को कमजोर करता है'
असम क्रिश्चियन फोरम के प्रवक्ता एलन ब्रूक्स ने द क्विंट को बताया कि संविधान का अनुच्छेद 25 लोगों को धर्म का पालन करने के अधिकार की गारंटी देता है. उन्होंने कहा, इस तरह के आरोप और ईसाई प्रथाओं को गलत तरीके से प्रचारित करना "इस संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर करता है."
"सभी धर्मों में प्रार्थना एक यूनिवर्सल प्रैक्टिस है, जिसका उपयोग दिव्य उपचार का आह्वान करने के लिए किया जाता है. इसे जादुई उपचार के रूप में लेबल करना आस्था और जीवन के गहन आध्यात्मिक आयामों को सरल बनाता है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, एक व्यक्ति को अपने चुने हुए धर्म का पालन करने का अधिकार है. इसलिए, ईसाइयों के खिलाफ कोई भी आरोप इस संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर करता है."
एलन ब्रूक्स, प्रवक्ता, असम क्रिश्चियन फोरमब्रूक्स ने कहा कि ऐसे बाबा हैं जो लोगों को बीमारियों से 'ठीक' करने का वादा करके लुभाते हैं. "लेकिन सरकार उन पर नकेल नहीं कसती. सरकार की नजर अचानक हमारे काम-काज पर क्यों पड़ गई है?"
इस बीच, असम आदिवासी ईसाई समन्वय समिति (ATCC) ने असम सरकार से विधेयक पर पुनर्विचार करने का आह्वान किया है.
"हम विधेयक के शब्दों में संभावित अस्पष्टता से असहमत हैं, विशेष रूप से 'धर्मांतरण' या 'रूपांतरण' जैसी अवधारणाओं के साथ-साथ 'जादुई उपचार' या 'जादू से उपचार' जैसे शब्दों के उपयोग को लेकर. इसमें स्पष्टता की आवश्यकता है और किसी भी गलत व्याख्या से बचना चाहिए जिससे कैसे भी परिणाम हो सकते हैं. 'प्रचार' और 'धर्मांतरण' या धार्मिक 'धर्मांतरण' में अंतर है. हर व्यक्ति अंतरात्मा की स्वतंत्रता और बिना किसी दबाव के धर्म अपनाने का अधिकार रखता है."
असम आदिवासी ईसाई समन्वय समिति (ATCC)Expand4. 'असम में मिशनरी स्कूलों को निशाना बनाए जाने पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं?'
असम क्रिश्चियन फोरम ने यह भी सवाल किया कि ईसाई मिशनरियों को कथित तौर पर धमकियां देने पर "असामाजिक तत्वों" के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
24 फरवरी को संमिलिता संतान समाज ने एक पोस्टर अभियान के माध्यम से अपने परिसरों से ईसाई प्रतीकों और चर्चों को हटाने और "धार्मिक उद्देश्यों के लिए शैक्षणिक संस्थानों" के उपयोग को रोकने की बात की थी.
द हिंदू के मुताबिक, ये पोस्टर गुवाहाटी, बारपेटा, जोरहाट और शिवसागर शहरों में मिशनरी द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों की दीवारों पर चिपकाए गए थे. असमिया भाषा में लिखे पोस्टर में लिखा है, "स्कूल को एक धार्मिक संस्थान के रूप में इस्तेमाल करना बंद करने की यह अंतिम चेतावनी है...भारत विरोधी और असंवैधानिक गतिविधियां बंद करें, वरना..."
द हिंदू ने संमिलिता संतान समाज के एक सदस्य के हवाले से कहा, "हम ईसाइयों के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन हम धर्मांतरण के उद्देश्य से धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल के खिलाफ हैं. मिशनरी स्कूल ईसाई धर्म के प्रचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं, न कि भारत या भारतीय संस्कृति पर."
ब्रूक्स का दावा है कि सरकार इस तरह के कृत्यों के खिलाफ ईसाइयों को सुरक्षा देने में विफल रही है. उन्होंने कहा, "असमाजिक तत्व जनता में जहर उगल रहे हैं. सरकार ऐसे तत्वों को खुला क्यों छोड़ रही है? हमारे संस्थानों ने हमेशा सभी धर्मों और संस्कृतियों के लोगों को जगह दी है."
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एक अन्य हिंदुत्व संगठन- संमिलिता संतान समाज ने 24 फरवरी को असम के कई शहरों में एक पोस्टर अभियान शुरू किया जिसमें स्कूलों को "भारत विरोधी गतिविधियों को रोकने" के लिए "अंतिम चेतावनी" दी. मिशनरी स्कूलों की दीवारों पर ऐसे पोस्टर चिपकाए गए थे.
हिंदुत्व संगठनों का दावा हैं कि इन संस्थानों का उपयोग "धार्मिक उद्देश्यों" के लिए किया जा रहा है- इसी बीच सोमवार, 26 फरवरी को असम विधानसभा में ध्वनि मत से पारित एक कानून ने ईसाई समुदाय में "तनाव" की स्थिति पैदा कर दी.
असम के नए बिल का नाम है - असम हीलिंग (प्रिवेंशन ऑफ एविल) प्रैक्टिसेस बिल, 2024. आसान भाषा में बताएं तो ये बिल जादू-टोना और झाड़-फूंक से इलाज करने की परंपरा के खिलाफ है.
ये बिल "निर्दोष लोगों का शोषण करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे से इस्तेमाल की जाने वाली गैर-वैज्ञानिक जादुई उपचार प्रथाओं" को अपराध घोषित करता है. विधेयक में कहा गया है कि इसका उद्देश्य एक सुरक्षित, विज्ञान-आधारित वातावरण को बढ़ावा देना है और हानिकारक प्रथाओं से लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा करना है.
इस बिल के किन प्रावधानों को ईसाई समुदाय गलत मान रहा है? इस बिल को लेकर क्या आपत्तियां हैं, इसमें और क्या कहा गया है? चलिए आपको बताते हैं.
इस बिल के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?
ये बिल "बुरी प्रथाओं" के खिलाफ है. "कोई भी व्यक्ति अगर जादू टोने से किसी के इलाज करने का काम करता हो, जिसके पीछे खतरनाक उद्देश्य हो और जिससे आम लोगों का शोषण हो"- ऐसे कामों को इस बिल में "बुरी प्रथा" के रूप में परिभाषित किया गया है.
यह कुछ बीमारियों और स्वास्थ्य संबंधित परेशानियों के इलाज के लिए उपचार पद्धतियों पर प्रतिबंध लगाता है, साथ ही किसी भी "धार्मिक प्रथाओं के भ्रामक विज्ञापन" को भी रोकता है.
बिल के अनुसार, "कोई भी व्यक्ति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपचार पद्धतियों के माध्यम से बीमारियों को ठीक करने के किसी भी झूठे दावे से संबंधित किसी भी प्रकार की दवा, उपचार से संबंधित किसी भी प्रकार के विज्ञापन में भाग नहीं ले सकता."
21 फरवरी को सदन में पेश किया गया यह विधेयक 26 फरवरी को असम विधानसभा में चर्चा के बीच पारित हो गया. किसी भी व्यक्ति द्वारा "जादुई उपचार" को कॉग्निजेबल और गैर-जमानती अपराध बनाते हुए, विधेयक में कहा गया है:
पहली बार अपराध करने पर, दोषी को एक साल की कैद की सजा होगी, जिसे तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है या 50,000 रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
अगर वही बाद में दोषी भी पाया गया तो उसको जेल की सजा का सामना करना पड़ेगा जिसे पांच साल तक बढ़ाया जा सकता है या 1 लाख रुपये का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
इसमें कहा गया है कि एक पुलिस अधिकारी, जो सब-इंस्पेक्टर के पद से नीचे का न हो, को ऐसे मामलों के लिए निरीक्षण करने की शक्ति है, अगर उसके पास इस बात का कारण हो कि इस अधिनियम के तहत कोई अपराध किया गया है या अपराध होने की संभावना है.
'जादुई उपचार शब्द ईसाई धर्म में मौजूद नहीं है'
असम क्रिश्चियन फोरम (एसीएफ) के अध्यक्ष और गुवाहाटी आर्चडायसीस के आर्चबिशप जॉन मूलचेरा ने द क्विंट को बताया कि यह कानून उपचार प्रथाओं और तरीकों के बारे में, बीमारी से निपटने के लिए "विश्वास और प्रार्थना" की भूमिका को लेकर "गलत धारणाओं" पर आधारित है, साथ ही यह धार्मिक "विविधता" का सम्मान करने में विफल है.
"ईसाई धर्म में जादुई उपचार नाम का कोई शब्द नहीं है. हमने इसके बारे में पहली बार असम विधानसभा में सुना. हम केवल उपचार नहीं करते हैं- यह हमारी प्रार्थना का हिस्सा है. हमारे पास हर दूसरे धर्म की तरह ही उपचार प्रार्थनाएं हैं. जब कोई बीमार व्यक्ति हमारे पास आता है, तो हम उसके लिए व्यक्तिगत रूप से या समूह में एक साथ खड़े होकर प्रार्थना करते हैं. हम लोगों को ठीक करने के लिए जादू नहीं करते हैं. सरकार इसे अवैध और दंडनीय क्यों बना रही है, यह हमारी समझ के बाहर है."आर्चबिशप जॉन मूलचेरा
विधेयक के बारे में बात करते हुए, असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने कहा था कि, "हम असम में evangelism (इंजीलवाद) पर अंकुश लगाना चाहते हैं और इस संबंध में हीलिंग पर प्रतिबंध एक मील का पत्थर है."
उन्होंने कहा था कि जादुई उपचार "आदिवासी लोगों के धर्म परिवर्तन के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक खतरनाक चीज है."
बता दें कि, लोगों को ईसाई बनने के लिए प्रेरित करने की गतिविधि को इंजीलवाद कहते हैं, इसमें अक्सर यात्रा करके दूसरे धर्म के लोगों को ईसाई धर्म के बारे में बताया जाता है.
सीएम ने आगे कहा, "हम इस विधेयक को लागू करने जा रहे हैं क्योंकि हमारा मानना है कि धार्मिक संतुलन के लिए यथास्थिति बनाना जरूरी है. मुसलमानों को मुस्लिम ही रहने दें, ईसाइयों को ईसाई ही रहने दें, हिंदुओं को हिंदू ही रहने दें."
एक बयान में, असम क्रिश्चियन फोरम ने कहा कि उनकी टिप्पणियां "भ्रामक और अनावश्यक दोनों" थीं.
"असम कैबिनेट का यह दावा कि ईसाई (जिनकी आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य में लगभग 11 लाख है) जादुई उपचार में शामिल हैं, ये गलत और भ्रामक है. हमारी कई डिस्पेंसरियां और अस्पताल मान्यता प्राप्त चिकित्सा ढांचे के अंदर काम करते हैं, जो बीमारों को आवश्यक सेवाएं देने का काम करते हैं."असम क्रिश्चियन फोरम
'बिल लोगों को धर्म का पालन करने की इजाजत देने की संवैधानिक गारंटी को कमजोर करता है'
असम क्रिश्चियन फोरम के प्रवक्ता एलन ब्रूक्स ने द क्विंट को बताया कि संविधान का अनुच्छेद 25 लोगों को धर्म का पालन करने के अधिकार की गारंटी देता है. उन्होंने कहा, इस तरह के आरोप और ईसाई प्रथाओं को गलत तरीके से प्रचारित करना "इस संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर करता है."
"सभी धर्मों में प्रार्थना एक यूनिवर्सल प्रैक्टिस है, जिसका उपयोग दिव्य उपचार का आह्वान करने के लिए किया जाता है. इसे जादुई उपचार के रूप में लेबल करना आस्था और जीवन के गहन आध्यात्मिक आयामों को सरल बनाता है. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 के अनुसार, एक व्यक्ति को अपने चुने हुए धर्म का पालन करने का अधिकार है. इसलिए, ईसाइयों के खिलाफ कोई भी आरोप इस संवैधानिक सुरक्षा को कमजोर करता है."एलन ब्रूक्स, प्रवक्ता, असम क्रिश्चियन फोरम
ब्रूक्स ने कहा कि ऐसे बाबा हैं जो लोगों को बीमारियों से 'ठीक' करने का वादा करके लुभाते हैं. "लेकिन सरकार उन पर नकेल नहीं कसती. सरकार की नजर अचानक हमारे काम-काज पर क्यों पड़ गई है?"
इस बीच, असम आदिवासी ईसाई समन्वय समिति (ATCC) ने असम सरकार से विधेयक पर पुनर्विचार करने का आह्वान किया है.
"हम विधेयक के शब्दों में संभावित अस्पष्टता से असहमत हैं, विशेष रूप से 'धर्मांतरण' या 'रूपांतरण' जैसी अवधारणाओं के साथ-साथ 'जादुई उपचार' या 'जादू से उपचार' जैसे शब्दों के उपयोग को लेकर. इसमें स्पष्टता की आवश्यकता है और किसी भी गलत व्याख्या से बचना चाहिए जिससे कैसे भी परिणाम हो सकते हैं. 'प्रचार' और 'धर्मांतरण' या धार्मिक 'धर्मांतरण' में अंतर है. हर व्यक्ति अंतरात्मा की स्वतंत्रता और बिना किसी दबाव के धर्म अपनाने का अधिकार रखता है."असम आदिवासी ईसाई समन्वय समिति (ATCC)
'असम में मिशनरी स्कूलों को निशाना बनाए जाने पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं?'
असम क्रिश्चियन फोरम ने यह भी सवाल किया कि ईसाई मिशनरियों को कथित तौर पर धमकियां देने पर "असामाजिक तत्वों" के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई?
24 फरवरी को संमिलिता संतान समाज ने एक पोस्टर अभियान के माध्यम से अपने परिसरों से ईसाई प्रतीकों और चर्चों को हटाने और "धार्मिक उद्देश्यों के लिए शैक्षणिक संस्थानों" के उपयोग को रोकने की बात की थी.
द हिंदू के मुताबिक, ये पोस्टर गुवाहाटी, बारपेटा, जोरहाट और शिवसागर शहरों में मिशनरी द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों की दीवारों पर चिपकाए गए थे. असमिया भाषा में लिखे पोस्टर में लिखा है, "स्कूल को एक धार्मिक संस्थान के रूप में इस्तेमाल करना बंद करने की यह अंतिम चेतावनी है...भारत विरोधी और असंवैधानिक गतिविधियां बंद करें, वरना..."
द हिंदू ने संमिलिता संतान समाज के एक सदस्य के हवाले से कहा, "हम ईसाइयों के खिलाफ नहीं हैं. लेकिन हम धर्मांतरण के उद्देश्य से धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल के खिलाफ हैं. मिशनरी स्कूल ईसाई धर्म के प्रचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं, न कि भारत या भारतीय संस्कृति पर."
ब्रूक्स का दावा है कि सरकार इस तरह के कृत्यों के खिलाफ ईसाइयों को सुरक्षा देने में विफल रही है. उन्होंने कहा, "असमाजिक तत्व जनता में जहर उगल रहे हैं. सरकार ऐसे तत्वों को खुला क्यों छोड़ रही है? हमारे संस्थानों ने हमेशा सभी धर्मों और संस्कृतियों के लोगों को जगह दी है."
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)