लाइलाज बीमारी की गिरफ्त में आने के बाद किसी भी इंसान को अपनी मौत मांगने का अधिकार होगा. 9 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने ‘लिविंग विल’ को मंजूरी देकर ये फैसला सुनाया है.
कोर्ट ने कहा कि इंसान को इज्जत के साथ जीने और इज्जत के साथ मरने का पूरा हक है. ऐसे में ठीक न हो सकने वाली बीमारी की चपेट में आने के बाद पीड़ित अपनी वसीयत खुद लिख सकता है, जो डाक्टरों को लाइफ सपोर्ट हटाने की मंजूरी यानी इच्छा मृत्यु (यूथनेशिया) की इजाजत देता है. ये फैसला तुरंत प्रभाव से लागू हो चुका है.
लिविंग विल के बारे में कोर्ट ने क्या कहा?
अगर किसी शख्स को कोई लाइलाज बीमारी हो जाती है, वो कोमा में है और उसके ठीक होने की उम्मीद नहीं है, ऐसी हालत में वो खुद एक लिखित दस्तावेज दे सकता है, जिसे 'लिविंग विल' कहा गया है. इस दस्तावेज में पीड़ित अपनी इच्छा मृत्यु मांग सकता है कि उसके शरीर को लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर न रखा जाए. लिविंग विल की पूरी प्रक्रिया कोर्ट की निगरानी में की जाएगी.
केस-2
बिना 'लिविंग विल' लिखे ही कोई शख्स अगर ऐसी लाइलाज स्थिति में होता है, तो उसके परिजन हाईकोर्ट में जाकर इच्छामृत्यु (यूथनेशिया) की मांग कर सकते हैं. इस केस में मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट के आधार पर कोर्ट तय करेगा कि पीड़ित को मृत्यु दी जाए या नहीं.
मेडिकल बोर्ड ही करेगा अंतिम फैसला
कोर्ट में याचिका पर बहस के दौरान केंद्र ने कहा था कि इसका दुरुपयोग भी हो सकता है. कोर्ट ने कहा कि हर केस में आखिरी फैसला मेडिकल बोर्ड की राय पर ही होगा. अगर कोई लिविंग विल करता भी है, तो भी मेडिकल बोर्ड की राय के आधार पर ही लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम हटाया जाएगा. कोर्ट ने कहा:
लिविंग विल की इजाजत दी जा सकती है, लेकिन जिसे इच्छा मृत्यु चाहिए, उस शख्स के परिवार की मंजूरी लेनी होगी. साथ ही डॉक्टरों की एक्सपर्ट टीम अगर ये कह दे कि बच पाना संभव नहीं है, तो एेसी हालत में इच्छा मृत्यु की इजाजत दी जा सकती है.
एक्टिव-पैसिव यूथनेशिया क्या है?
इच्छा मृत्यु (यूथनेशिया) को मंजूरी मिलने के बावजूद अब भी एक्टिव यूथनेशिया गैरकानूनी है. दरअसल, एक्टिव यूथनेशिया में लाइलाज बीमारी से जूझ रहे मरीज को इंजेक्शन देकर मौत दी जाती है. वहीं पैसिव यूथनेशिया में मरीज का लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा दिया जाता है, या मरीज का जिस भी तरीके से इलाज चल रहा है, उसे बंद कर दिया जाता है. ऐसे में मरीज की अपने आप मौत हो जाती है.
13 साल पुरानी याचिका पर आया फैसला?
करीब 13 साल पहले साल 2005 में एनजीओ कॉमन कॉज ने जनहित याचिका दायर की थी कि लाइलाज बीमारी की हालत में 'लिविंग विल' का हक होना चाहिए. एनजीओ की तरफ से ये भी साफ किया गया कि वो एक्टिव यूथनेशिया की वकालत नहीं कर रहा है. अब सुप्रीम कोर्ट ने इस 'लिविंग विल' को मंजूरी दे दी है.
अरुणा शानबॉग केस और इच्छा मृत्यु
35 साल से कोमा में पड़ी मुंबई की नर्स अरुणा शानबाग के लिए साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट से इच्छा मृत्यु की मांग की गई थी. इस मामले में कोर्ट ने अपने फैसले में ऐसे मरीजों के लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटाने की मंजूरी दी थी, जो खुद अपना फैसला करने की स्थिति में नहीं हो. केंद्र सरकार ने 15 जनवरी, 2016 को कोर्ट को जानकारी दी कि लॉ कमीशन ने अपनी रिपोर्ट में कुछ खास सुरक्षा उपायों के साथ इच्छा मृत्यु की मंजूरी देने की सिफारिश की थी.
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