सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे लगा दिया है. उत्तराखंड की नैनीताल हाईकोर्ट ने हल्द्वानी के बनभूलपुरा गफूर बस्ती में रेलवे की भूमि पर अतिक्रमण हटाने के आदेश दिए थे. कोर्ट के इस आदेश के बाद हजारों लोगों ने कैंडल मार्च निकाला. महिलाएं, छोटे बच्चे, बुजुर्ग और नौजवान अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई के खिलाफ सड़क पर बैठे हैं. ये सभी राज्य सरकार और कोर्ट से राहत दिए जाने की गुहार लगा रहे हैं. सोशल मीडिया पर यह मामला चर्चा का विषय बना हुआ है. ऐसे में जानते हैं हल्द्वानी की जिस जमीन को लेकर हल्ला मचा हुआ है उसका इतिहास क्या है? ये जमीन किसकी थी और आगे चलकर कैसे हस्तांतरण होता गया?
पहले जानिए सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा है?
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करते हुए हल्द्वानी के हजारों लोगों को राहत दी. कोर्ट ने हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में रेलवे की जमीन से अतिक्रमण हटाने के हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगा दी है. कोर्ट ने कहा कि 7 दिन में अतिक्रमण हटाने का फैसला सही नहीं है. सुनवाई के दौरान जस्टिस संजय कौल ने कहा कि इस मामले को मानवीय पहलुओं से देखना चाहिए. जस्टिस कौल ने कहा कि मामले में समाधान की जरूरत है.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा "7 दिनों में 50,000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है. 50 हजार लोगों को रातों-रात बेघर नहीं किया जा सकता. रेलवे को विकास के साथ साथ इन लोगों के पुनर्वास और अधिकारों के लिए योजना तैयार की जानी चाहिए." सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और रेलवे को नोटिस जारी किया.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस कौल ने कहा "मुद्दे के दो पहलू हैं. एक, वे पट्टों का दावा करते हैं. दूसरा, वे कहते हैं कि लोग 1947 के बाद चले गए और जमीनों की नीलामी की गई. लोग इतने सालों तक वहां रहे. उन्हें पुनर्वास दिया जाना चाहिए. सात दिन में इतने लोगों को कैसे हटाया जा सकता हैं?”
कोर्ट ने राज्य और रेलवे को "व्यावहारिक समाधान" खोजने के लिए कहा है.
कोर्ट में कहा गया कि स्थानीय निवासियों के नाम नगर निगम के हाउस टैक्स रजिस्टर के रिकॉर्ड में दर्ज हैं और वे वर्षों से नियमित रूप से हाउस टैक्स का भुगतान करते आ रहे हैं.
कोर्ट में यह भी कहा गया कि याचिकाकर्ताओं और उनके पूर्वजों का लंबे समय से भौतिक रूप से कब्जा है, कुछ भारतीय स्वतंत्रता की तारीख से भी पहले, को राज्य और इसकी एजेंसियों द्वारा मान्यता दी गई है और उन्हें गैस और पानी के कनेक्शन और यहां तक कि आधार कार्ड नंबर भी दिए गए हैं.
हाई कोर्ट, राज्य सरकार, रेलवे और स्थानीय लोगों का क्या कहना है?
हाई कोर्ट ने इस मामले में सुनवाई करते हुए अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था. उसके बाद अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई के विरोध में स्थानीय कारोबारी, दुकानदार और आम लोग सड़क पर उतर आए हैं. उनका कहना है कि उनकी कई पीढ़ियां यहां पर सालों से रह रही हैं, ऐसे में उन्हें बेघर नहीं किया जाए.
वहां के लोगों का कहना है कि इसे अतिक्रमण कहना पूरी तरह गलत है. हम लोग वर्षों से यहां रह रहे हैं और किसी भी कीमत पर अपने घरों को बचाएंगे. धरना दे रहे लोगों का कहना है कि रेलवे ने इस मामले में अदालत को भी गुमराह किया है और उसने इस बारे में कोई सबूत पेश नहीं किए कि यह उसकी जमीन है.
यहां के लोगों का कहना है कि वे वर्षों से सीवर लाइन, बिजली, पानी आदि का बिल चुकाते आ रहे हैं. इस इलाके में घरों के अलावा मंदिर, मस्जिद, ट्यूबवेल, पानी की टंकियां, प्राइमरी स्कूल, सरकारी स्कूल भी हैं, ऐसे में इन्हें अतिक्रमण बताकर कार्रवाई की बात कहना पूरी तरह गलत है. कुछ परिवारों ने अपनी बात रखते हुआ मीडिया रिपोर्ट्स में कहा है कि हम 40-50 सालों से इन जमीनों पर बने घरों में रह रहे हैं. हम में से कई लोग उन्हीं घरों में पैदा हुए हैं जो अब अगले 10 दिनों में बेघर होने की कगार पर हैं.
जबकि राज्य सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि यह भूमि राज्य सरकार की नहीं बल्कि रेलवे की भूमि है. वहीं रेलवे की तरफ से कहा गया कि हल्द्वानी में रेलवे की 29 एकड़ भूमि पर अतिक्रमण किया गया है, जिनमें करीब 4365 अतिक्रमणकारी मौजूद हैं. हाई कोर्ट के आदेश पर इन लोगों को पीपी एक्ट में नोटिस दिया गया, जिनकी पूरी सुनवाई रेलवे ने कर ली है. किसी भी व्यक्ति के पास जमीन के वैध कागजात नहीं पाए गए थे.
कोर्ट में दायर रिट प्रिटिशन (PIL) में क्या कहा गया?
उत्तराखंड की नैनीताल हाई कोर्ट में दायर रिट प्रिटिशन (PIL) में बताया गया है कि हल्द्वानी रेलवे स्टेशन से सटे हुए इलाके को आमतौर पर गफ्फूर बस्ती कहा जाता है. उसके ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, व्यक्तिगत वास्तविक अधिकार और कानूनी मुद्दों से संबंधित दृष्टिकोण प्रस्तुत किए जा रहे हैं. जिनकी सुनवाई के दौरान इन पर गौर किया जाना चाहिए.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की संक्षिप्त जानकारी का उल्लेख करते हुए पीआईएल में दर्शाया गया है कि :-
1800 की शुरुआत में हल्द्वानी की बस्ती भौगोलिक रूप से एक गैर-मौजूदा टाउनशिप थी. धीरे-धीरे यह डेवलप होती गई. इसका अतीत कुछ इस तरह से है :
1815 में तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के भोटिया के बीच युद्ध हुआ था. यह लड़ाई लंबे समय तक बिना रुके चलती रही थी.
1816 में ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच एक समझौता हुआ था, जिसे सगौली संधि कहा जाता है. इस संधि के परिणामस्वरूप गढ़वाल और कुमाऊं के क्षेत्रों को ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ जोड़ा गया था. जैसा कि यह क्षेत्र आज भी यहां मौजूद हैं.
1816 की सगौली संधि के परिणामस्वरूप ईस्ट इंडिया कंपनी ने नेपाल साम्राज्य से गढ़वाल और कुमाऊं के विलय के लिए उस समय 2 लाख रुपये की राशि का भुगतान किया था. आज के समय में यह दोनों क्षेत्र व्यापक टोपोग्राफिकल डिविजन में बंटे हुए हैं.
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से पता चलता है कि वर्ष 1834 में हल्द्वानी खास के क्षेत्र ने पहली बार अपना क्षेत्रीय अस्तित्व तब हासिल किया था जब इसे इसके संस्थापक मिस्टर ट्रेल द्वारा अस्तित्व में लाया गया था.
ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक बुनियादी राजनीतिक इरादे से इस क्षेत्र को हल्द्वानी खास का नाम दिया था. हल्द्वानी के भवर क्षेत्र में आंतरिक पहाड़ियों के निवासियों को बसाने के उद्देश्य से वे इस क्षेत्र का उपयोग करना चाहते थे. उन निवासियों को उस भूमि पर स्वामित्व और मिट्टी की जुताई जैसे अधिकार देने का इरादा ईस्ट इंडिया कंपनी का था.
1815 से 1882 तक की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर उपरोक्त जो संदर्भ या शर्तें बताए गए हैं वे हिमालय गजेटियर में निहित हैं, जो 1882 के वर्षों में तत्कालीन ई टी एटकिंसन द्वारा कम्पाइल्ड किए गए थे.
इतिहास
इतिहास पर गौर करें तो जो जानकारी हमें (याचिकाकर्ता को) प्राप्त हुई उससे पता चलता है कि वर्ष 1834 में हल्द्वानी बस्ती या हल्द्वानी टाउनशिप का निर्माण हुआ था.
शुरू में हल्द्वानी खास में पड़ी संपत्ति पर पूरी तरह से अधिकार राजनीतिक रूप से उसके मालिक माने जाने वाले थॉमस गाउन के पास थे.
हिमालयन गजेटियर में इसका उल्लेख है कि 1896 में हल्द्वानी के पूर्वाधिकारी / मालिक थॉमस गाउन ने पिथौरागढ़ डिस्ट्रिक्ट के सबसे प्रतिष्ठित व्यवसायी दान सिंह के पक्ष में कन्वेयंस डीड के आधार पर इस संपत्ति का हस्तांतरण किया था.
थॉमस गाउन और दान सिंह के बीच जो डीड (स्वामित्व से संबंधित कानूनी दस्तावेज) हुई थी, जिसे अभी तक किसी ने नहीं देखा है. इसके बाद 1896 से उस संपत्ति के अलग-अलग हिस्से विभिन्न व्यक्तियों के नाम करते हुए उन्हें बेचना शुरु किया गया. यह जाहिर है कि जो मध्यस्थ या संपत्ति के पूर्व स्वामी थे, वे उस संपत्ति के रजिस्टर्ड या अनरजिस्टर्ड डीड द्वारा खरीदार नहीं हैं.
पीआईएल में इस मामले को लेकर जो मुख्य सवाल होगा वह यह कि 1896 में दान सिंह को जमीन दी गई थी क्या वह "नजूल भूमि" होगी या नहीं? अगर वह नजूल भूमि होगी तो किस कानूनी प्रावधान के तहत होगी, उस संपत्ति (भूमि) के स्वामित्व अधिकार के हस्तांतरण का तरीका क्या माना जाएगा.
स्थानीय निकाय, जो हल्द्वानी की आगामी टाउनशिप के स्थानीय प्रशासन के मामलों के शीर्ष पर रहे हैं, उसने अबतक मूल रूप से इस भूमि को नजूल लैंड के तौर पर वर्गीकृत किया था. चूंकि यह संपत्ति (भूमि) धीरे-धीरे टाउनशिप में विकसित हो रही थी, तब प्रशासनिक उद्देश्य के लिए संपत्ति (भूमि) का प्रबंधन करते समय ऐसा मान लिया गया था कि यह नजूल लैंड है. अन्य अधिकारियों द्वारा मांगे गए जवाब में इसे लेकर आधिकारिक ज्ञापन जारी किया गया था.
व्यक्तिगत अधिकारों को लेकर रेलवे की भूमि के सभी कब्जेदारों ने अपने संबंधित पट्टों के आधार पर दावा किया है कि वे नजूल भूमि के धारक हैं. ऐसे में 17 मई 1907 के उस पूरे दस्तावेज की जांच करना जरूरी हो जाता है, जिसे स्थानीय निकायों द्वारा अक्सर हल्द्वानी खास को नजूल भूमि के तौर पर मानने के लिए प्रमुख दस्तावेज के तौर पर देखा जाता है.
सरकारी आदेश में नजूल लैंड बताया
नगर पालिका विभाग का शासनादेश/कार्यालय ज्ञापान क्रमांक 1748/XI-10-1907 दिनांक 17 मई, 1907 एवं उसकी विषय-वस्तु नीचे दी गई है:-
गर्वमेन्ट ऑर्डर ऑफिस मेमो के तीसरे बिंदु से स्पष्ट होता है कि “सम्पूर्ण मौजा हल्द्वानी खास की जमीन नजूल भूमि है, जिसका एक हिस्सा कृषि उपयोग का है. यह स्थानीय नियमों के अनुसार संचालित होगी और इसको नजूल संम्पति माना जायेगा.
हल्द्वानी खास में पड़ी संपत्ति को नजूल भूमि मानने के आधार के रूप में लिए गए इस डॉक्यूमेंट की शुरुआती लाइन में भले ही सरकारी आदेश या शासनादेश लिखा हुआ हो. लेकिन सही मायने में यह सरकारी आदेश नहीं होगा. क्योंकि यह एक प्रशासनिक संचार था, जो संयुक्त सचिव द्वारा कुमाऊँ जिले के आयुक्त के एक पत्र के जवाब के संदर्भ में किया गया था. जिसमें यह उल्लेख किया गया था कि उक्त भूमि, सगौली संधि के परिणामस्वरूप कब्जा कर ली गई थी, जिसे अब हल्द्वानी के एक अधिसूचित क्षेत्र की एक समिति को हस्तांतरित करने के लिए अधिकृत किया जा रहा है, जिसमें "संपूर्ण मौजा हल्द्वानी खास" शामिल है.
17 मई, 1907 के उक्त सरकारी आदेश में यह विशेष रूप से देखा गया कि भूमि का हस्तांतरण केवल इसके प्रबंधन के उद्देश्यों के लिए है और इसमें कृषि भूमि के छोटे क्षेत्र भी शामिल होंगे, जिसे "नजूल संपत्ति के रूप में प्रबंधित" किया जाना था.
वहीं हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि विवादित क्षेत्र रेलवे की संपत्ति है, नजूल की भूमि नहीं, जैसा कि निवासियों ने दावा किया है. 176 पेज के आदेश में, अदालत ने कब्जाधारियों /अतिक्रमणकर्ताओं के इस तर्क को खारिज कर दिया कि अतिक्रमित क्षेत्र नजूल भूमि है और वे संबंधित पट्टों के आधार पर नजूल भूमि के धारक हैं.
कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि "उर्दू शब्दावली के तहत, नजूल भूमि का अर्थ है एक भूमि, जिसे आमतौर पर 'जयाजाद मुंजापाता' कहा जाता है. 1857 के विद्रोह के एक अधिनियम के रूप में, जो बाद में महारानी के पास चली गयी. चूंकि 1857 के विद्रोह का कोई भी कार्य हल्द्वानी खास में कभी नहीं हुआ था, इसलिए 1834 में बनाए गए हल्द्वानी खास की भूमि का कोई भी हिस्सा, 'जयाजाद मुंजापाता' नहीं कहा जाएगा."
कार्यालय ज्ञापन यानी कि गर्वमेन्ट ऑर्डर ऑफिस मेमो की सामग्री पर विचार करते हुए, न्यायालय ने कहा कि यह एक सरकारी आदेश नहीं था और यह प्रतिवादियों/अतिक्रमणकर्ताओं पर कोई अधिकार प्रदान नहीं करता था, क्योंकि दस्तावेज़ नजूल नियमों के मुताबिक, केवल संपत्ति के प्रबंधन के उद्देश्यों के लिए निष्पादित किया गया था.
रेलवे का कहना है कि उसके पास मौजूद पुराना नक्शा, 1959 का नोटिफिकेशन, 1971 का रेवेन्यू रिकॉर्ड और 2017 के सर्वे के नतीजों के मुताबिक यह जमीन उसकी है.
एक रिपोर्ट के अनुसार प्रभावितों का पक्ष रखने के लिए बनी 'बस्ती बचाओ संघर्ष समिति' का कहना है कि हाई कोर्ट में रेलवे ने जो नक्शा दिया, वह 1959 का है. वहीं, लोगों के पास 1937 की लीज है यानी लोगों का दावा रेलवे से पुराना है.
बनभूलपुरा के जमीन की लड़ाई कई सालों से कोर्ट में लड़ी जा रही है. जहां एक तरफ दावा किया जा रहा है कि करीब 29 एकड़ की यह जमीन नजूल की है, वहीं रेलवे का कहना है कि यह उनकी जमीन है. नजूल भूमि पर अवैध कब्जाधारियों को फ्री होल्ड लीज अधिकार देने के लिए उत्तराखंड सरकार 2021 में नजूल नीति लाई थी, लेकिन इसका फायदा बनभूलपुरा के लोगों को इसलिए नहीं मिला, क्योंकि मामला कोर्ट में चल रहा था.
पहले भी अतिक्रमण हटाने के आदेश दिए जा चुके हैं
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार कोर्ट ने कहा, "सभी लीज डीड, जिन पर हस्तक्षेपकर्ताओं द्वारा भरोसा किया गया था, किसी भी लीज डीड में ऐसा कोई संदर्भ नहीं मिलता है, कि 165 रेलवे अधिकारियों से कभी भी ऐसी कोई पूर्व मंजूरी ली गई थी, जो किसी विलेख के निष्पादन से पहले ली गई थी... दावा किए गए नजूल भूमि का पट्टा, जो केवल उपभोग के अधिकार तक ही सीमित है, इसे हस्तांतरण या पट्टे या बिक्री विलेख द्वारा आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है, जो 17 मई, 1907 के कार्यालय ज्ञापन के तहत और नजूल नियमों के तहत भी प्रतिबंधित था.
इस पृष्ठभूमि में अदालत ने कहा कि ऐसे अतिक्रमणकारियों के पास कानून के अनुसार कोई अधिकार और स्वामित्व नहीं है. इसलिए, उन्हें सभी व्यावहारिक उद्देश्यों के लिए अनधिकृत कब्जेदार माना जाएगा.
अतिक्रमण हटाने वाली जनहित याचिका सबसे पहले वर्ष 2013 में दायर की गई थी.
9 नवंबर 2016 को हाईकोर्ट ने 10 सप्ताह के भीतर रेलवे भूमि से अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था. हालांकि उस आदेश को लागू नहीं किया गया और राज्य ने आदेश को चुनौती देते हुए एक समीक्षा याचिका दायर की, जिसे 2017 में हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने खारिज कर दिया था.
इसके अलावा, वर्ष 2022 में, यह कहते हुए तत्काल रिट याचिका दायर की गई थी कि क्षेत्र में रेलवे भूमि पर किए गए अतिक्रमण को हटाने में देरी हुई थी. इस मामले की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने इस साल की शुरुआत में नैनीताल जिला प्रशासन को रेलवे अधिकारियों के साथ मिलकर अतिक्रमण हटाने की योजना तैयार करने का निर्देश दिया.
अधिवक्ता पीयूष गर्ग ने 2022 की रिट याचिका संख्या 30 में हस्तक्षेपकर्ताओं में से एक का प्रतिनिधित्व किया था उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में कहा कि यह सब 2013 में शुरू हुआ जब रविशंकर जोशी द्वारा एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें कहा गया था कि क्षेत्र में अवैध खनन है.
इज्जतनगर के एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर विवेक गुप्ता ने द इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा कि उनके पास पुराने नक्शे, 1959 की अधिसूचना, 1971 से राजस्व रिकॉर्ड और 2017 के सर्वे के नतीजे हैं, जो जमीन के स्वामित्व को साबित करते हैं. उन्होंने कहा कि कुमाऊं क्षेत्र के लिए और ट्रेनें उपलब्ध कराने के लिए रेलवे को इस जमीन की जरूरत है. वहीं अधिवक्ता पीयूष गर्ग ने कहा कि रेलवे के पास ऐसे दस्तावेज नहीं हैं जो उनकी जमीन की सीमा का सीमांकन करते हों.
बनभूलपुरा के निवासी 61 वर्षीय वारिस शाह खान ने द इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि “1947 में विभाजन के दौरान जो लोग देश छोड़कर चले गए, उन्होंने अपना घर छोड़ दिया. इसके बाद सरकार ने उन मकानों की नीलामी कर दी थी. अगर घर रेलवे की जमीन पर थे, तो सरकार ने इसकी नीलामी कैसे की और हमें विस्थापित व्यक्ति (मुआवजा और पुनर्वास) अधिनियम के तहत बेच दिया."
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