ADVERTISEMENTREMOVE AD
मेंबर्स के लिए
lock close icon

इमरान खान की कुर्सी को खतरा, समझिए कैसे पाकिस्तान में बेपनाह ताकतवर होती गई सेना

Imran Khan आर्मी के चहेते थे, लेकिन अब नहीं. पहले भी पाकिस्तानी सेना अपनी पसंदीदा सरकारों को गिरा चुकी है

Published
कुंजी
9 min read
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

पाकिस्तान (Pakistan) के पीएम इमरान खान (Imran khan) की कुर्सी पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. पाकिस्तानी संसद में उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया गया है. समझा जाता है कि भले ही इमरान पर आफत सियासत के रास्ते आई है लेकिन उनकी राह में कांटे सेना ने बोए हैं. पाकिस्तान की राजनीति में सेना (Military) की दखलंदाजी आजादी के बाद से ही देखने को मिली है. आप पाकिस्तानी सेना की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि वहां तीन बड़े सैन्य तख्तापलट (Military Intervention) देखने को मिले. पांच जनरलों ने देश की सत्ता चलाई. 1947 से अब तक यानी लगभग 75 वर्षों में से 35 साल तो सीधे तौर पर पाकिस्तान सेना के नियंत्रण में रहा. इसके अलावा जब भी वहां चुनी हुई सरकार बनी उसमें सेना का दखल देखने को मिला है. नवाज शरीफ और बिलावल भुट्‌टो ने 2018 में हुए आम चुनाव में सेना पर धांधली का आरोप लगाया था. आइए जानते हैं कैसे आजादी से अब पाकिस्तान में सेना का दबदबा बढ़ा...

ADVERTISEMENTREMOVE AD

पहले जानते हैं आखिर क्या वजहें थीं जिससे सेना ताकतवर बनी

पाकिस्तान में आजादी के कुछ वर्षों बाद ही कई गंभीर समस्याएं देखने को मिली थीं. विभाजन, दंगे और शरणार्थियों की वजह से देश पर बोझ बढ़ रहा था. वहीं कायद-ए-आजम की मौत और लियाकल अली खान की हत्या के बाद देश में राजनीतिक संकट खड़ा हो गया. नेतृत्व के अभाव में मुस्लिम लीग की पकड़ भी पहले से कमजोर होने लग गई थी. इन सबके के कारण देश में सेना और सिविल सर्विस कर्मियों यानी नौकरशाही की शक्तियां बढ़ीं जिनका देश के राजनीतिक इतिहास पर प्रभाव पड़ा. इसके साथ ही शुरुआती वर्षों में ही संविधान भंग कर दिया गया और सैन्य शासन देश पर थोपा गया जिससे संस्थाओं के काम-काज प्रभावित हुए. जहां एक ओर राजनीतिक नेतृत्व का अभाव था वहीं दूसरी ओर संस्थाएं कमजोर हो गई थीं इनके परिणाम स्वरूप सेना और ताकतवर होती गई.

जिस ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने सरकार बनाई थी उसकी उन प्रांतों में पकड़ मजबूत नहीं थी जो प्रांत पाकिस्तान का हिस्सा बने थे. शुरुआत के तीन वर्षों के बाद ही पार्टी समय के साथ नहीं चल सकी और उसका विभाजन हो गया. इसके बाद पार्टी व्यक्ति विशेष के इर्द-गिर्द कई समूहों में टूट गई. पार्टी और इससे अलग होने वाले व्यक्तियों, दाेनों ही आम जनता में अपनी पैठ मजबूत नहीं कर पाए थे. कई मतभेद उभर कर सामने आए थे.

आजादी के नौ साल बीत जाने के बाद भी पाकिस्तान का संविधान नहीं बना था. बिना संविधान और अस्थिर राजनीति के बीच पाकिस्तान में 4 प्रधानमंत्री, 4 गवर्नर जनरल और एक राष्ट्रपति ने देश पर शासन भी कर लिया था. 1954 में संविधान सभा में बिल लाया गया जिसके अंतर्गत गवर्नर जनरल को प्रधानमंत्री के परामर्श पर कार्य करना था. लेकिन गवर्नर जनरल ने बिल पारित होने से पहले ही मंत्रिमंडल को बर्खास्त कर दिया, सभा भंग कर दी गई और यह कहते हुए आपातकाल लगा दिया कि 'संस्थाएं काम नहीं कर पा रही थीं.' तब गवर्नर जनरल के असंवैधानिक कार्य को कोर्ट ने वारा वैधता दी. अक्टूबर 1954 में प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने एक अन्य मंत्रिमंडल का गठन किया. जिसमें अयूब खान रक्षा मंत्री बने क्योंकि वे उस समय कमांडर इन चीफ थे. संविधान लागू होने से पहले 17 अप्रैल से 12 अगस्त 1955 तक पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रहे मोहम्मद अली बोगरा का इस्तीफा ले लिया गया.

0

अब शुरु होता है सेना का खेल, कभी पीएम को हटाया तो कभी किया तख्तापलट

23 मार्च 1956 को पाकिस्तान में जो संविधान लागू हुआ था. जिसमें 58 (2 बी) में कुछ ऐसी बातें डाली गई थीं कि राष्ट्रपति वहां के प्रधानमंत्री को किसी भी वक्त बस यूं ही सत्ता से निकाल बाहर कर सकते थे. तब राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने इसी ताकत का इस्तेमाल कर चार प्रधानमंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया था. यहां आपको यह जानना जरूरी है कि राष्ट्रपति होने से पहले मिर्जा सेना के जनरल थे. मिर्जा ने जिन प्रधामंत्रियों को बदला उनमें चौधरी मोहम्मद अली (12 अगस्त 1955 से 12 सितंबर 1956) , हुसैन शहीद सोहरावर्दी (12 अक्टूबर 1956 से 17 सितंबर 1957), इब्राहिम इस्माइल चुंद्रीगर (17 अक्टूबर 1957 से 16 दिसंबर 1957) और फिरोज खान नून (16 दिसंबर 1957 से 7 अक्टूबर1958) शामिल थे.

1953 से 1958 के बीच पाकिस्तान में 8 प्रधानमंत्री हटाए गए. 1953 में जो संविधान बना था उसे दो साल बाद ही निरस्त कर दिया गया था. क्योंकि गुलाम मोहम्मद के उत्तराधिकारी जनरल इस्कंदर मिर्जा (जोकि रक्षा मंत्री के सचिव भी थे) को यह लगा कि नए संविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति पद के लिए उनका चुनाव नहीं हो सकता है. इसलिए उन्होंने अक्टूबर 1957 में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों को खारिज कर दिया और मार्शल लॉ की घोषणा कर दी. जनरल अयूब खान को चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ और मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक बनाया था. लेकिन उनका यह दांव उन्हीं पर भारी पड़ा क्योंकि राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को अपने अंदर समेटे जनरल अयूब खान ने महज कुछ ही सप्ताह में राष्ट्रपति मेजर जनरल इस्कंदर मिर्जा की सरकार का तख्तापलट कर दिया. यह पहला मौका था जब पाकिस्तान सैन्य शासन के अधीन आया था.

इस घटना के बाद अयूब खान को पाकिस्तान का राष्ट्रपति बनाया गया. यह पहला मार्शल लॉ आधिकारिक तौर पर 44 महीने तक चला था, लेकिन जनरल अयूब खान ने 1969 में ही पद छोड़ दिया और जनरल आगा मोहम्मद याह्या खान को अपना उत्तराधिकारी नामित किया. अयूब खान की तरह जनरल याह्या खान मुख्य मार्शल लॉ प्रशासक थे.

पाकिस्तान की राजनीति पर काफी शोध करने वाले कीथ बी. कालार्ड ने अपने पुस्तक में लिखा है कि सेना द्वारा औपचारिक रूप से सत्ता संभालने से पहले ही पाकिस्तान में राजनीतिक दल कमजोर पड़ चुके थे.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

जनता को आम चुनाव के सपने दिखाकर वर्षों किया सेना ने राज

पाकिस्तान में जितनी बार भी सैन्य शासन लगा है उतनी बाद वहां की जनता को हसीन सपने दिखाए गए. कहा गया कि लोकतंत्र को मजबूत बनाने का प्रयास हो रहा है, जल्द ही आम चुनाव कराने के सपने दिखाए गए, देश को आगे ले जाने की बातें कही गईं, लेकिन हकीकत कुछ और ही रही. आजादी से लेकर अब तक यानी लगभग 75 साल में 35 साल तक पाकिस्तान में सीधे तौर पर सेना का राज देखने को मिला. पाकिस्तान में 1956 से 1971, 1977 से 1988 तक और फिर 1999 से 2008 तक सैन्य शासन रहा है. जनरल अयूब खान, जनरल जिया उल हक और जनरल परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान सरकार को गिराकर सैन्य शासन किया था.

अयूब खान ने पूरे 9 साल तक पाकिस्तान पर राज किया था. उसके बाद जनरल याह्या खान ने सैन्य शासन किया. 1971 के युद्ध में भारत से मिली करारी हार के बाद जनरल याह्या खान को पद छोड़ना पड़ा. पाकिस्तान ने 4-5 जुलाई 1977 के दरमियान दूसरा सैन्य तख्तापलट देखा. जनरल जिया उल हक व उनकी सेना ने संसद को भंग कर दिया और भुट्टो को नजरबंद कर दिया. इसके बाद 4 अप्रैल, 1979 को भुट्टो को फांसी दे दी गई. 17 अगस्त 1988 को जिया की विमान हादसे में मौत हो गई. 1988 से 1999 पाकिस्तान में तक चार सरकारें आईं और चली गईं. 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने करगिल युद्ध को लेकर मुशर्रफ को आर्मी चीफ के पद से हटाने का फैसला किया था. लेकिन मुशर्रफ ने ही नवाज का तख्तापलट कर दिया.

पाकिस्तान में चुनी हुई सरकारें आईं और गईं लेकिन कोई भी प्रधानमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. यह भी कहा जाता है कि पाकिस्तान के चुनावों में सेना का दखल काफी ज्यादा रहता है.

इमरान खान की 2018 में जब सरकार बनी थी तब पहली बार दोनों प्रमुख विपक्षी दल पाकिस्तान पीपल्स फ्रंट (PPP) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज (PML-N) ने सेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. नवाज शरीफ और बिलावल अली भुट्‌टो ने सेना पर चुनावी धांधली के आरोप लगाए थे. आरोप था कि सेना ने ही इमरान को गद्दी दिलाई और आरोप है कि अब कर रही है उनकी विदाई.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

असैनिक कार्याें और राजनीति में सेना का हस्तक्षेप

पाकिस्तान में प्रशासन के जो असैनिक काम होते थे उसमें सेना की मदद ली जाती थी. 1974 में सिंध नदी के बांध में जब दरार आई थी और जब क्वेटा में रेल-सड़क मार्ग अवरुद्ध हो गया था तब सेना की मदद ली गई थी. 1949 में रावी नदी के पानी से जहांगीर की कब्र को बचाने के लिए सेना की मदद ली गई थी. इसके बाद लाहौर को बचाने के लिए सेना बुलानी पड़ी. 1952 में पटसन की तस्करी को रोकने के लिए सेना को इसमें शामिल किया गया. अहमदिया विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए सेना आई. इसके अलावा भी कई ऐसे मौके आए जब सेना को असैन्य कार्यों में लगाया गया.

राजनीति के क्षेत्र में सेना की भूमिका का एक अहम उदाहरण रावलपिंडी षड्यंत्र का मामला था जब सेना के 11 अधिकारियों और तीन असैन्य अधिकारियों ने 1956 में शीर्ष स्तर के सैन्य अधिकारियों को पकड़ने तथा साम्यवादी प्रकार की तानाशाही स्थापित करने के लिए सत्ता हथियाने की साजिश रची थी.
  • अयूब खान के शासनकाल (1958-1969) के दौरान रिटायर्ड सैन्य अधिकारियों का एक ऐसा वर्ग बन गया था जो निजी तथा सार्वजनिक उद्यमों की शीर्ष पदों पर काबिज हो गया था. क्योंकि तब नए संविधान में देश की सत्ता के ढांचे में सेना को संस्थागत रूप दिया गया था.

  • 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद स्थितियों में बदलाव आया 1969 तब अयूब खान को अपने सैनिक कमांडरों का समर्थन मिलना बंद हो गया. इसलिए अयूब ने याह्या खान को अपना पद दे दिया.

  • 1971 के युद्ध में भारत से मिली करारी हार और बांग्लादेश अलग होने की वजह से पाकिस्तान के लोगों का सेना पर से विश्वास उठ गया.

  • इसके बाद चुनाव हुए और भुट्‌टो ने सत्ता संभाली. लेकिन जब उन्हें सत्ता दी गई तब भी कुछ सैन्य शर्ते रखी गई थी. भुट्‌टो के दौर में 1970-1971 और 1975-1976 के दौरान सेना के रक्षा बजट में 89 फीसदी की वृद्ध की हुई. जोकि पिछली सरकारों की तुलना में सबसे ज्यादा थी लेकिन इसके बावजूद भी सेना में असंतोष था जोकि सरकार गिराने के लिए सेना व वायुसेना के अधिकारियों द्वारा रची गई साचिश में दिखा. इसके बाद 1977 में जनरल जिया उल हक भुट्‌टो की गिरफ्तारी करवाते हुए देश में सैन्य शासन का दौर फिर से शुरु कर देते हैं.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
  • जिया के राज में सैन्य अधिकारियों को न केवल प्रमुख मंत्रालयों पर नियुक्त किया गया बल्कि उनकी नियुक्ति संयुक्त सचिवों के पदों पर भी कर दी गई थी. जिया ने धर्म का सहारा लिया और प्रत्येक यूनिट के मौलवी का दर्जा बढ़ा दिया था. इसलिए 1977 में जब सैन्य शासन आया तो धार्मिक प्रवृत्ति के जनरलों का इसमें दबदबा रहा. इस्लाम के प्रति अविश्वास का आरोप लगाते हुए जिया ने जुनेजो सरकार को बर्खास्त कर दिया. उसके बाद इस्लामी कानून को बढ़ावा दिया.

  • वायु दुर्घटना में जिया की मौत के बाद बेनजीर भुट्‌टो और नवाज शरीफ ने बारी-बारी से दो-दो बार सत्ता संभाली.

  • जिया की मौत के बाद कार्यवाहक राष्ट्रपति रहे गुलाम इशाक खान ने सरकार बनाने के लिए बेनजीर को न्यौता देने से पहले कुछ समय लिया और उन्हें तभी न्यौता दिया जब वह सैनिकों के मामले में हस्तक्षेप न करने, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) और विश्व बैंक की सहमति केयरटेकर सरकार के आर्थिक सुधार कार्यक्रम को जारी रखने तथा जनरल जिया की विदेश नीति को जारी रखने की कुछ शर्ताें को मान गईं. भुट्‌टो के शासनकाल में भी सेना द्वारा सत्ता हथियान की अफवाहें खूब चली थीं.

  • बेनजीर के बाद नवाज जब सत्ता में आए तो उन्होंने संविधान के उस खंड को हटा दिया जिसका प्रयोग राष्ट्रपति द्वारा असैनिक सरकारों को बर्खास्त करने में किया जाता था. पाकिस्तान की राजनीति और सैन्य शासन पर पुस्तक लिख चुके शाहिद जावेद बुर्की ने लिखा है कि "पद मिलने के एक साल बाद नवाज शरीफ ने इतने अधिकार अपने हाथों में ले लिए थे जितने कि मुहम्मद अली जिन्ना और अयूब खान ने अपने दौर में प्राप्त किए थे.'

  • लेकिन जब नवाज गुप्त तरीके से सेनाध्यक्ष बदलना चाहते हैं, वो भी तब जब आर्मी चीफ कोलंबो में हो तब एक बार फिर बड़ा घटनाक्रम होता है और 1999 में जनरल परवेज मुशर्रफ ने तख्तापलट कर दिया और 2008 तक राज किया. मुशर्रफ ने नवाज को देश से बाहर भी निकलवा दिया था.

  • सन 2008 के पाकिस्तान के आम चुनाव में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को बहुमत मिला और 25 मार्च 2008 को यूसुफ रजा गिलानी ने प्रधानमंत्री का पदभार संभाला. तब ऐसा लग रहा था कि गिलानी अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लेंगे. हालांकि 19 जून 2012 को पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी को कोर्ट की अवमानना का दोषी मानते हुए पद से हटा दिया. उसके बाद पीपीपी के राजा परवेज अशरफ प्रधानमंत्री बने.

  • उसके बाद 2013 में जब पाकिस्तान के 70 साल के इतिहास में पहली बार पांच साल के नागरिक शासन के बाद पाकिस्तान में तय समय पर चुनाव हुए तो कईयों को लगा कि आखिरकार पाकिस्तान में लोकतंत्र आ गया है. लेकिन 28 जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री नवाज शरीफ अयोग्य ठहराया जाना, सीधे तौर पर इस बात की याद दिलाता है कि पाकिस्तान को तब भी ‘आभासी सरकार’ (यानी डीप स्टेट) ही चला रही है.

  • 2018 में जब इमरान खान की इंट्री हुई तब एक बार फिर यह कहा गया कि सेना की बदौलत इमरान को पीएम की कुर्सी मिली है.

  • वहीं अब चार साल बाद 2022 में जब पीएम इमरान पर 'अविश्वास' की तलवार लटक रही है तब भी यही कहा जा रहा है कि इसके बैकग्राउंड में सेना है.

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×