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1 अक्टूबर से लोन होगा सस्ता, रेपो रेट के साथ और भी हैं वजहें  

बैंकों की ओर से रेपो रेट कटौती का फायदा न देने के बाद आरबीआई ने एक्सटर्नल बेंचमार्क का रास्ता अपनानया है

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आरबीआई ने बैंकों से कहा है कि वे फ्लोटिंग पर्सनल, हाउसिंग या ऑटो लोन की ब्याज दरें एक्सटर्नल बेंचमार्क से जोड़ें ताकि ग्राहकों को रेपो रेट में कटौती का फायदा मिल सके. रिजर्व बैंक ने यह फैसला क्यों लिया? लोन की ब्याज दरों को रेपो रेट जैसे एक्सटर्नल बेंचमार्क रेट से जोड़ने से ग्राहकों को कितना फायदा होगा. आखिर इंटरनल और एक्सटर्नल रेट में क्या अंतर है. क्या एक्सटर्नल रेट से ग्राहक को हमेशा फायदा ही होगा. उनका EMI का बोझ अब क्या कम हो जाएगा. आइए समझते हैं.

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कैसे जुड़ेगा लोन रेट एक्सटर्नल बेंचमार्क रेट से?

1 अक्टूबर से अधिकतर बैंक यह कोशिश करेंगे कि आपके ऑटो, होम, पसर्नल लोन और एमएसएमई लोन को एक्सटर्नल बेंचमार्क से जोड़ दें. आरबीआई के ताजा सर्कुलर के मुताबिक बैंकों से कहा गया कि वे अब Maginal cost of funds-based lending rate यानी MCLR के बजाय लोन को एक्सटर्नल बेंचमार्क से जोड़ें. इनमें आरबीआई के रेपो रेट, ट्रेजरी बिल या फिर फाइनेंशियल बेंचमार्क्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड- FBIL की ओर से पेश रेट शामिल हैं.

बैंकों के पास चार ऑप्शन हैं- 1. रिजर्व बैंक का रेपो रेट. 2. FBILकी ओर से प्रकाशित भारत सरकार के तीन महीने के ट्रेजरी बिल पर दिया जाने वाला रेट 3. FBILकी ओर से प्रकाशित भारत सरकार के छह महीने के ट्रेजरी बिल पर दिया जाने वाला रेट और 4. FBILकी ओर से प्रकाशित कोई दूसरा बेंचमार्क रेट

क्या है मौजूदा व्यवस्था?

अभी बैंक Maginal cost of funds-based lending rate यानी MCLR जैसे इंटरनल बेंचमार्क पर लोन रेट तय करते हैं. यह कई चीजों पर निर्भर करता है. बैंक की ओर से दिए जाने वाले फिक्स्ड डिपोजिट रेट, उसके फंड सोर्स पर आने वाला खर्चा और सेविंग्स पर दिए जाने वाले रेट का हिसाब लगाने के बाद इसे तय किया जाता है. इस बेंचमार्क पर आपके लोन पर ब्याज तय करते समय बैंक MCLR में अपना मुनाफा जोड़ देते हैं. इस तरह से वो ब्याज दर तय होती है, जिसे आपको अपने लोन पर देना पड़ता है.

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आरबीआई को एक्सटर्नल बेंचमार्क की सिफारिश क्यों करनी पड़ी?

दरअसल यह बड़ा नीतिगत मामला बन गया था. रिजर्व बैंक लगातार इस कोशिश में है लोन रेट सस्ता किया जाए. इसके लिए उसने रेपो रेट में अब तक 110 बेसिस प्वाइंट की कटौती कर दी है. रेपो रेट वह दर है , जिस पर बैंक रिजर्व बैंक से लोन लेते हैं. आरबीआई बैंकों के लिए यह दर कम तो कर रहा था लेकिन बैंक अपने ग्राहकों का लोन सस्ता नहीं कर रहे थे. दरअसल बैंक सस्ते रेपो रेट का इस्तेमाल अपनी वित्तीय स्थिति मजबूत करने में लगे हुए थे.

आरबीआई की ओर से अब तक 110 बेसिस प्वाइंट की कटौती की गई है. कॉल मनी रेट में 78 बेसिस प्वाइंट की कमी आई है. मार्केट रेपो रेट में 73 बेसिस प्वाइंट की कमी आई है. दस साल का बेंचमार्क यील्ड 102 बेसिस प्वाइंट कम हुआ है. साफ है कि बैंकों पर दबाव घटा है. लेकिन बैंकों ने फरवरी और जून के बीच रुपये में दिए गए नए लोन की दरों में सिर्फ 29 बेसिस प्वाइंट की कटौती की है. साफ है कि घटी दरों का फायदा लोन ग्राहकों को नहीं मिल रहा था. यही वजह है कि आरबीआई ने रेपो रेट जैसे एक्सटर्नल बेंचमार्क से लोन दरों को जोडने का निर्देश दिया.

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क्या नई व्यवस्था से EMI कम हो जाएगी?

अगर रेपो रेट में और कटौती होती है तो EMI घट सकती है. क्योंकि एक्सटर्नल बेंचमार्क रेट फ्लोटिंग लोन से जुड़े होंगे. लेकिन काफी कुछ रेट, री-सेट पीरियड पर भी निर्भर होगा. रिजर्व बैंक ने कहा है हर तीन महीने में ब्याज दरों को एक बार री-सेट करना जरूरी होगा. फर्ज कीजिये कि अक्टूबर में मौद्रिक नीति समीक्षा के बाद रेपो रेट में कटौती का ऐलान कर दिया गया तो जरूरी नहीं कि लोन इंटरेस्ट जनवरी में री-सेट होगा. बैंक चाहें तो नई दर री-सेट करने के बाद रेपो रेट में कटौती का फायदा ग्राहक को दे सकते हैं. लेकिन बड़ा सवाल ये है क्या वे ग्राहकों को दोनों का फायदा देंगे?

बहरहाल अगर मान लिया जाए कि आरबीआई अगली बार रेपो रेट में में 25 बेसिस प्वाइंट की कटौती करता है और आपका लोन इससे लिंक है तो आइए देखते हैं कि 20 साल के लिए लिए गए 30 लाख रुपये के EMI पर इसका क्या फर्क पड़ेगा.

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क्या नई व्यवस्था से बढ़ेगी पारदर्शिता?

माना जा रहा है कि एक्सटर्नल बेंचमार्क से लोन रेट को जोड़ने का फायदा ग्राहकों को मिलेगा क्योंकि हर लोन लेने वालों को उसके लोन पर फिक्स्ड रेट और इस पर बैंक की ओर से लिया जाने वाला मुनाफा पता होगा. इस तरह बैंक दूसरे बैंकों के लोन रेट से अपने लोन रेट की तुलना कर सकते हैं. ग्राहक को पता होगा कि आरबीआई ने रेपो रेट में कितनी कटौती की है और बैंक उस पर अपना कितना फायदा ले रहा है. तो इस तरह से पारदर्शिता बढ़ेगी और इसका फायदा लोन कस्टमर को होगा.

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फिर भी अगर-मगर बना हुआ है?

नई व्यवस्था से लोन सस्ता हो सकता है. लेकिन बैंक इसकी भरपाई के लिए डिपोजिट रेट घटा सकते हैं. यानी स्प्रेड एक बार फिर बढ़ सकता है. यह भी कहा जा रहा है बैंक फिक्स्ड डिपोजिट के रेट भी प्लोटिंग कर सकते हैं. एक तय ब्याज, फिक्स्ड डिपोजिट प्रोडक्ट की खासियत है. यानी बैंकों का मुनाफा चाहे कितने भी दबाव में हो, बैंकों को फिक्स्ड डिपोजिट पर ग्राहकों को तय ब्याज देना होगा.

विश्लेषकों का मानना है आरबीआई के एक्सटर्नल बेंचमार्क पर जोर देने के बावजूद बैंक इससे बचने का रास्ता निकाल सकते हैं. यानी आरबीआई की बात तो वो सिद्धांत तौर पर मान लेंगे लेकिन कोई एक ऐसा प्रैक्टिकल तरीका अपनाएंगे जिससे वह कर्ज सस्ता करने से बच सकें. मसलन वह अपना रेट एक्सटर्नल रेट से ऊपर रखेंगे ताकि उनके मौजूदा स्प्रेड पर फर्क न पड़े. बैंकों के लोन रेट और डिपोजिट रेट के अंतर को स्प्रेड कहते हैं. यानी बैंक डिपोजिट रेट कम रख कर अपने स्प्रेड को बढ़ाए रख सकते हैं. बैंक दूसरे तरीकों से ग्राहकों को एक्सटर्नल बेंचमार्क रेट में कमी का फायदा देने से बच सकते हैं.

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