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लिंगायत कौन हैं और कर्नाटक की राजनीति में क्या है इनकी अहमियत?

‘लिंगायत’ को अलग धर्म की मान्यता देने पर कर्नाटक सरकार राजी 

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कर्नाटक में इस वक्त जो भी हो रहा है वो सब विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर ही हो रहा है. राज्य में करीब तीन माह में विधानसभा चुनाव होने हैं. कर्नाटक की सिद्धारमैया की कांग्रेस सरकार ने लिंगायत और वीरशैव लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जा देने की सिफारिश केंद्र सरकार को भेज दी है.

कांग्रेस के इस फैसले को लिंगायत समुदाय को अपनी ओर  खींचने की कोशिश है जो आमतौर पर बीजेपी के समर्थक माने जाते रहे हैं. कर्नाटक में करीब 17 परसेंट लिंगायत हैं और 100 विधानसभा सीटों पर इनकी मौजूदगी है.

आइए आपको बताते हैं ‘लिंगायत’ कौन होते हैं? और कर्नाटक की राजनीति में इनकी इतनी अहमियत क्यों है?

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कौन हैं लिंगायत/वीरशैव?

बारहवीं सदी में समाज सुधारक संत बासव ने हिंदू जाति व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन छेड़ा और लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की. दक्षिण भारत में बासव को भगवान बासवेश्वरा भी कहा जाता है. बासव मानते थे कि समाज में लोगों को उनके जन्म के आधार पर नहीं बल्कि काम के आधार पर वर्गीकृत किया जाना चाहिए. बासव वेदों और मूर्तिपूजा के भी खिलाफ थे.

आम मान्यता ये है कि बासव के विचारों को मानने वालों को ही लिंगायत और वीरशैव कहा जाता है. हालांकि, लिंगायत खुद को वीरशैव से अलग बताते हैं. उनका कहना है कि वीरशैव बासव से भी पहले से हैं. वीरशैव शिव को मानते हैं, जबकि लिंगायत शिव को नहीं मानते हैं. लिंगायत अपने शरीर पर गेंदनुमा आकार का एक इष्टलिंग बांधते हैं. उनका मानना है कि इससे मन की चेतना जाग्रत होती है.

लिंगायतों से वीरशैव के विरोधाभास की एक वजह यह भी है कि बासव हिंदू धर्म की जिस जाति व्यवस्था के खिलाफ थे, वही व्यवस्था लिंगायत समाज में पैदा हो गई. लिंगायत संप्रदाय में पुरोहित वर्ग की स्थिति वैसी ही हो गई जैसी बासव के समय ब्राह्मणों की थी. सामाजिक रूप से लिंगायतों को उत्तरी कर्नाटक की प्रभावशाली जातियों में गिना जाता है.

कर्नाटक की राजनीति में क्या है अहमियत?

लिंगायत संप्रदाय कर्नाटक में संख्या बल के हिसाब से मजबूत और राजनीतिक के लिहाज से प्रभावशाली है. कर्नाटक के अलावा लिंगायत/वीरशैव की आस-पास के राज्यों जैसे महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में भी अच्छी खासी आबादी है.

कर्नाटक में लिंगायतों की आबादी करीब 17 फीसदी है. ये राज्य की करीब 100 सीटों पर सीधा असर डालते हैं. यही वजह है कि 224 सदस्यों वाली कर्नाटक विधानसभा में 52 विधायक लिंगायत समुदाय से हैं.

लिंगायतों को कर्नाटक में बीजेपी का पारंपरिक वोट माना जाता है. दरअसल, बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बीएस येदियुरप्पा भी लिंगायत समुदाय से आते हैं. ऐसे में कांग्रेस की नजर लिंगायतों पर है.

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सत्ता की सीढ़ी है लिंगायतों का समर्थन

कर्नाटक की राजनीति में लिंगायत संप्रदाय का प्रभाव काफी पहले से रहा है. अस्सी के दशक की शुरुआत में लिंगायतों ने जनता दल के नेता रामकृष्ण हेगड़े को अपना हितैषी माना और उन्हें अपना समर्थन दिया. हालांकि, जल्दी ही ये भरोसा टूट गया और अगले इलेक्शन में लिंगायत कांग्रेस नेता वीरेंद्र पाटिल की ओर झुक गए.

लिंगायतों के समर्थन के बल पर ही वीरेंद्र पाटिल 1989 में कांग्रेस को सत्ता में लेकर आए. हालांकि, कुछ ही दिनों बाद किसी विवाद को लेकर राजीव गांधी ने पाटिल को मुख्यमंत्री पद से हटा दिया. इसके बाद लिंगायतों ने दोबारा हेगड़े का रुख किया. हेगड़े से लिंगायतों का लगाव तब भी बना रहा जब वे जनता दल से अलग होकर जनता दल यूनाइटेड में आ गए. रामकृष्ण हेगड़े के निधन के बाद लिंगायतों ने बीएस येदियुरप्पा को अपना नेता चुना और 2008 में वह सत्ता में आए. जब येदियुरप्पा को कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो लिंगायतों ने 2013 के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार से अपना बदला लिया.  

बहरहाल, अब बीजेपी ने विधानसभा चुनावों में येदियुरप्पा को एक बार फिर से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया है. इसके पीछे की वजह लिंगायत संप्रदाय में उनका मजबूत जनाधार है. लेकिन कांग्रेस येदियुरप्पा के लिंगायत वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है. लिंगायतों की अलग धार्मिक पहचान की मांग उठने से कांग्रेस को येदियुरप्पा के जनाधार को तोड़ने का मौका मिल गया है.

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सिद्धारमैया ने एक तीर से साधे कई निशाने

कर्नाटक की सिद्धारमैया सरकार ने लिंगायत समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने के लिए केन्द्र से सिफारिश की है. इस फैसले के बाद विवाद खड़ा हो गया है बीजेपी ने इसे वोट बैंक की राजनीति कहा है. उधर, कांग्रेस का कहना है कि इस फैसले को चुनाव से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि ये मांग कई दशकों से उठ रही थी.

हालांकि, कांग्रेस का दावा ठीक भी है. लेकिन सिद्धारमैया ने यह फैसला विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लेकर एक तीर से कई निशाने साधे हैं. कर्नाटक में लिंगायतों की अच्छी खासी आबादी है. पिछले कई सालों से लिंगायत बीजेपी का वोटबैंक रहे हैं. ऐसे में सिद्धारमैया का ये फैसला लिंगायतों को कांग्रेस के पाले में ला सकता है.

दूसरा, राज्य सरकार ने लिंगायत को अलग धर्म की मान्यता देने की सिफारिश केंद्र सरकार से की है. केंद्र में बीजेपी सरकार है, ऐसे में गेंद अब बीजेपी के पाले में है. अगर, केंद्र राज्य सरकार के फैसले को मंजूरी देता है तो भी सिद्धारमैया सरकार की जीत है और अगर इसमें रोड़ा अटका तो भी कांग्रेस ने तो लिंगायतों को रिझाने के लिए पासा फेंक ही दिया है.

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अलग धर्म से लिंगायतों को क्या लाभ?

लिंगायत को धार्मिक अल्पसंख्यक दर्जा मिलने से इस समुदाय के लोगों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण और शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिल सकेगा. हालांकि, कांग्रेस सरकार की सिफारिश के बाद लिंगायत और वीरशैव समुदाय के लोग भिड़ गए.

वीरशैव समुदाय ने कहा कि लिंगायत समुदाय को अलग धर्म की मान्यता देने का राज्य सरकार का फैसला विशुद्ध रूप से राजनीति से प्रेरित है.

लिंगायतों (वीरशैव और लिंगायत) को अब तक किसी भी तरह के आरक्षण का लाभ नहीं मिलता था. लेकिन अलग धर्म की मान्यता उन्हें आरक्षण का लाभ लेने का मौका दे सकती है.

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