कर्नाटक में क्या होगा? सिद्धारमैया बचा ले जाएंगे अपनी सरकार या फिर पीएम मोदी का जलवा रहेगा बरकरार? अब सबके दिमाग में यही पहेली है और सब के सब किसी ना किसी तरह से इसका जवाब चाहते हैं. कर्नाटक में 12 मई को चुनाव होंगे और 15 को नतीजे आएंगे लेकिन इतना इंतजार भारी लग रहा है.
ओपिनियन पोल से भी इसका जवाब कहीं से नहीं मिल रहा है कि कर्नाटक में इस बार किसकी सरकार बनेगी? एक्सपर्ट की बातें भी घुमावदार हैं जो जवाब तक नहीं पहुंचाती.
चलिए हम मदद कर देते हैं. 40 साल से ऐसा रिकॉर्ड है जो एक बार को छोड़कर बना हुआ है, इसलिए सारा रोमांच इस बात पर है कि क्या ये रिकॉर्ड 15 मई को टूटेगा?
कर्नाटक में 40 सालों से एक ही फॉर्मूला चला आ रहा है कि जिस पार्टी की केंद्र में सरकार मतलब कर्नाटक में उसकी हार. 1978 से अब तक यही होता आया है कि कर्नाटक उसी पार्टी को सत्ता सौंपता है जो केंद्र में सत्ता से बाहर हो. इतने सालों में सिर्फ एक बार यानी 2013 में ऐसा हुआ है, जब राज्य में वो पार्टी (कांग्रेस) जीती जिसकी केंद्र में सरकार (कांग्रेस) थी. लेकिन संयोग देखिए, कर्नाटक जीतने के सालभर के बाद कांग्रेस के हाथ से केंद्र की सत्ता निकल गई.
कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए कर्नाटक में जीत 2019 के लोकसभा चुनाव के लिहाज से भी बेहद अहम है. कांग्रेस ने लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देने की सिफारिश करके दांव खेला है, तो बीजेपी अध्यक्ष सालभर से अभियान चलाए हुए है. दोनों हर कीमत पर कर्नाटक में सत्ता हासिल करना चाहती हैं.
दोनों पार्टियां जान लें कि 40 सालों में कर्नाटक और दिल्ली की गद्दी एक साथ किसी को नहीं मिली है. एक मिलती है, तो दूसरी फिसल जाती है.
देश की दूसरी लहरों से बेअसर कर्नाटक
कर्नाटक के लोगों पर देश के दूसरे हिस्सों की लहर का असर नहीं पड़ता. 1977 में जनता पार्टी की लहर, 1980 में इंदिरा लहर और फिर राजीव लहर में भी कर्नाटक के लोगों ने अपने लिए अलग फैसला लिया.
इसी से अंदाज लगाइए कि 1977 में कांग्रेस की करारी हार हुई और जनता पार्टी ने उसे दिल्ली की गद्दी से बेदखल कर दिया. लेकिन सालभर के अंदर यानी 1978 में कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस की जबरदस्त जीत हुई और सुस्त पड़ी कांग्रेस को ऑक्सीजन मिल गई. इसके बाद से देश के दूसरे हिस्सों के ट्रेंड से ठीक उलट कर्नाटक की जनता ने अलग फैसला लिया और उन्होंने यही ट्रेंड पकड़ रखा है.
कर्नाटक के लोग केंद्र में काबिज पार्टी को राज्य की गद्दी नहीं सौंपते. 2013 में कांग्रेस की जीत से लगा कि ट्रेंड बदल गया है, पर कांग्रेस ने कर्नाटक तो जीत लिया, पर साल भर के अंदर दिल्ली गंवा दिया.
1978 से कर्नाटक में क्या चल रहा है?
केंद्र में जनता पार्टी - 1978 के विधानसभा चुनाव
1977 में इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में जबदस्त लहर के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी थी. इंदिरा गांधी के बाद मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने. जनता पार्टी को सालभर पहले ही केंद्र में भारी बहुमत मिला था. अनुमान लगाया जा रहा था कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी का पलड़ा भारी रहेगा. पर कांग्रेस ने दो-तिहाई बहुमत के साथ राज्य में सरकार बनाई. जनता पार्टी की लहर कर्नाटक में हवा हो गई.
1983 विधानसभा चुनाव- केंद्र में कांग्रेस सरकार
इस बार केंद्र में कांग्रेस सरकार थी. तीन साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी भारी बहुमत के साथ प्रधानमंत्री बनकर लौटी थीं. ऐसे में कर्नाटक चुनाव कांग्रेस को केकवॉक लग रहे थे. लेकिन कर्नाटक ने फिर सरप्राइज किया. रामकृष्ण हेगड़े की अगुआई में जनता पार्टी की जीत हुई और बीजेपी के 18 विधायकों और निर्दलीयों के साथ मिलकर सरकार बनी. कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा.
1985 विधानसभा चुनाव- केंद्र में कांग्रेस सरकार
राजीव लहर में कांग्रेस ने लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें जीतीं. कांग्रेस ने कर्नाटक की 28 में से 24 सीटें जीतीं. कर्नाटक में जनता पार्टी सरकार को आए दो साल ही हुए थे, पर सीएम रामकृष्ण हेगड़े ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा दे दिया और विधानसभा भंग करके दोबारा जनादेश हासिल करने का फैसला किया.
दिल्ली में काबिज कांग्रेस को उम्मीद थी कि वो लोकसभा चुनाव में भारी सफलता को विधानसभा में भी दोहराएगी, पर कर्नाटक ने फिर चकमा दे दिया. रामकृष्ण हेगड़े की अगुआई में जनता पार्टी की फिर जीत हुई. इस तरह कर्नाटक का रिकॉर्ड बरकरार रहा कि राज्य के लोग उस पार्टी को राज्य की बागडोर नहीं देते, जो केंद्र में काबिज हो.
1989 विधानसभा चुनाव- केंद्र में जनता दल की सरकार
कर्नाटक में फिर उल्टा हुआ. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई और जनता दल की गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री बने वीपी सिंह. जबकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी जीत हुई 224 सीटों में 178 सीटें, यानी तीन-चौथाई बहुमत.
1994 विधानसभा चुनाव- केंद्र में कांग्रेस सरकार
1994 में केंद्र में नरसिम्हा राव सरकार के कार्यकाल में कर्नाटक विधानसभा चुनाव हुए और ट्रेंड वही रहा. राज्य में सरकार बनी जनता दल की और मुख्यमंत्री बने एचडी देवेगौड़ा जो दो साल बाद यानी 1996 में प्रधानमंत्री भी बने.
1999 विधानसभा चुनाव- केंद्र में बीजेपी सरकार
इन दिनों केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली एनडीए की सरकार थी. अनुमान था कि कांग्रेस की कमजोर स्थिति देखते हुए राज्य में इस बार ट्रेंड बदल जाएगा. लेकिन यहां कांग्रेस जीत हासिल हुई और एसएम कृष्णा मुख्यमंत्री, बने जो आगे चलकर मनमोहन सिंह सरकार में विदेश मंत्री भी बनाए गए.
2004 विधानसभा चुनाव- केंद्र में यूपीए सरकार
इस बार कर्नाटक में किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला, पर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. केंद्र में वाजपेयी सरकार की हार चुकी थी. मनमोहन सिंह की अगुआई में यूपीए सरकार ने कामकाज संभाल लिया था. शुरुआत में कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर ने मिलकर कर्नाटक में सरकार बनाई, पर वो आधे कार्यकाल में ही गिर गई और बीजेपी ही सरकार बनाने का मौका मिला, जो सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. इसके मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा बने.
2008 विधानसभा चुनाव- केंद्र में यूपीए सरकार
बीएस येदियुरप्पा चली नहीं और कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने के पहले ही राज्य में विधानसभा चुनाव कराने पड़े. इस बार बीजेपी बहुमत के करीब पहुंच गई और येदियुरप्पा दोबारा मुख्यमंत्री बने. उस वक्त केंद्र में कांग्रेस के अगुआई वाली यूपीए सरकार थी. मतलब कर्नाटक के लोगों ने फिर राज्य की सत्ता के लिए ऐसी पार्टी को चुना जो केंद्र की सत्ता से बाहर थी.
2013 विधानसभा चुनाव- केंद्र में यूपीए सरकार
इन चुनाव के वक्त केंद्र में कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार थी और विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की ही जीत हुई. सिद्धारमैया मुख्यमंत्री बने. लेकिन अगले ही साल यानी 2014 में हुए चुनावों में कांग्रेस की जबरदस्त हार हुई और केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार ने कामकाज संभाला.
कर्नाटक में 2018 में क्या होगा?
अब एक बार फिर कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए तैयार हो रहा है, जिसे 2019 के लिए सेमीफाइनल जैसे देखा जा रहा है. दोनों बड़ी पार्टियों ने पूरी ताकत झोंक दी है.
रिकॉर्ड तो यही है कि कर्नाटक 40 साल से उल्टी चाल चल रहा है. केंद्र में काबिज पार्टी को राज्य की सत्ता नहीं सौंपता. इस लिहाज से कांग्रेस खुश हो सकती है, क्योंकि केंद्र में बीजेपी की सरकार है. हालांकि राजनीति इतिहास देखकर नहीं चलती, फिर भी कर्नाटक की 40 सालों की परंपरा टूटेगी या नहीं, ये जानने के लिए मई तक इंतजार करना होगा.
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