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महिलाओं को ऑटोइम्यून बीमारियों का खतरा ज्यादा है: क्या आप जानते हैं इसकी वजह?

जेनेटिक और हार्मोंस से लेकर प्लेसेंटा तक, यहां कुछ ऐसी वजहें बताई जा रही हैं, जो वैज्ञानिकों ने ढूंढी हैं.

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पॉप स्टार सेलिना गोमेज ने साल 2017 में एक दुर्लभ ऑटोइम्यून डिजीज ल्यूपस (lupus) का शिकार होने के बाद किडनी ट्रांसप्लांट कराया था.

जैसा कि ल्यूपस बीमारी कुख्यात है, इसका पता लगना बेहद मुश्किल है. यह पुरुषों की तुलना में महिलाओं में 8 गुना ज्यादा पाई जाती है.

आसान शब्दों में कहें तो ऑटोइम्यून डिजीज (autoimmune disease) ऐसी हालत है, जिसमें आपके शरीर का इम्यून सिस्टम अपने आप चालू हो जाता है.

ऐसा तब होता है, जब आपका इम्यून सिस्टम जरूरत से आगे बढ़कर काम करने लगता है, या आपके शरीर की खुद की कोशिकाओं और बाहरी तत्वों के बीच भ्रमित हो जाता है.

भारत के बारे में वैसे कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है मगर यूएस नेशनल स्टेम सेल फाउंडेशन का कहना है, दुनिया की 4 प्रतिशत से ज्यादा आबादी को ऑटोइम्यून बीमारी है.

मगर मामला इतने पर ही खत्म नहीं हो जाता.

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ल्यूपस के अलावा चाहे मल्टीपल स्कलेरोसिस (multiple sclerosis), रुमेटाइड आर्थ्राइटिस (rheumatoid arthritis), क्रोहन डिजीज (Crohn’s disease), सोरायसिस (psoriasis), हाशिमोतो डिजीज (Hashimoto's disease) या 80 किस्म की दूसरी ऑटोइम्यून कंडीशन में से कोई भी हो, अगर आप महिला हैं, तो आपको इनमें से किसी के भी होने की संभावना ज्यादा है.

असल में ऑटोइम्यून डिजीज का लैंगिग भेदभाव इतना तगड़ा है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं में इनके होने की संभावना दोगुनी है.

हालांकि यह निष्कर्ष वैसे तो मामलों को देखते हुए आकलन भर है, और बीमारी अभी भी सबसे बड़े मेडिकल रहस्यों में से एक है. इसकी एक वजह यह है कि हम सबसे पहले तो जानते ही नहीं हैं कि ऑटोइम्यून डिजीज होती क्यों हैं.

निश्चित रूप से इस पर अलग-अलग दावे हैं, जींस से लेकर प्लेसेंटा तक, हर सवाल के जवाब में अलग-अलग वैज्ञानिक ने अलग-अलग जवाब दिए हैं.

प्लेसेंटा में छिपा है राज

यह देखते हुए कि ऑटोइम्यून बीमारियां महिलाओं में आमतौर पर 15 से 55 साल के बीच की रिप्रोडक्टिव उम्र के दौरान सामने आती हैं, कुछ अध्ययन में शामिल विशेषज्ञों का मानना ​​​​है कि महिलाओं के रिप्रोडक्टिव सिस्टम में वजह छिपी हो सकती है.

अमेरिका की एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज के रिसर्चर ने साल 2019 में किए एक अध्ययन के बाद ‘प्रेग्नेंसी कंपनसेशन हाइपोथिसिस’ (pregnancy compensation hypothesis या PCH) का दिलचस्प सिद्धांत पेश किया.

“हमारा दावा है कि प्रेगनेंसी के दौरान अपनी तरह के अनोखे इम्यून सिस्टम की जरूरत को पूरा करने के लिए मां के इम्यून सिस्टम में बड़े पैमाने पर बदलाव होता है.”
रिसर्च में शामिल विशेषज्ञ
स्टडी के रिसर्चर का कहना है कि यह पुराने जमाने में तो अच्छा था, लेकिन मौजूदा दौर में जबकि महिलाओं को बच्चे कम और ज्यादा अंतर पर होते हैं, प्लेसेंटा से मिलने वाले बार-बार पुशबैक की कमी संतानोत्पत्ति की उम्र में इम्युनिटी सिस्टम को ओवरड्राइव में भेजती है.

ऐसा पहली बार नहीं है जब किसी ने महिलाओं में बड़े पैमाने पर होने वाली बीमारियों के लिए ‘महिला अंगों’ को जिम्मदार माना है. प्राचीन ग्रीस में हिप्पोक्रेटस— जिन्हें आधुनिक मेडिकल साइंस का जनक माना जाता है— भी मानते थे कि महिलाओं की बीमारियां गर्भाशय (uterus) से शुरू होती हैं.

इम्यूनोलॉजिस्ट और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER पुणे) की रिसर्चर डॉ. विनीता बल इस दावे से पूरी तरह सहमत नहीं हैं.

फिट से बातचीत में वह कहती हैं, “ऐसी महिलाएं जो कभी गर्भवती नहीं हुईं, उनमें भी ऑटोइम्यून डिजीज का खतरा अधिक होता है. इस तरह अकेले प्लेसेंटा इस संबंध की व्याख्या नहीं कर सकता है.”

हालांकि वह इस बात से इनकार नहीं करती हैं कि प्लेसेंटा की सीमित भूमिका हो सकती है.

“यह कई वजहों में से एक हो सकता है, जिससे महिलाओं को पुरुषों की तुलना में अधिक खतरा है.”
डॉ. विनीता बल, इम्यूनोलॉजिस्ट और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER Pune) में रिसर्चर

डॉ. बल अपनी बात समझाते हुए कहती हैं, “पूरी तरह विकसित प्लेसेंटा का बनना और भ्रूण का बढ़ना जिसमें मां के ट्रांसप्लांटेशन एंटीजन (जिसे HLA कहा जाता है) के साथ 50 प्रतिशत मिसमैच है, इसका मतलब यह हो सकता है कि प्रेगनेंसी के दौरान प्लेसेंटा द्वारा स्थानीय तौर पर इम्यूनोसप्रेशन (इम्युनिटी को रोकना) का प्रयोग किया जाएगा. ऐसे में सप्रेसिव साइटोकिंस और दूसरे इम्यून कंपोनेंट जैसे कि रेगुलेटरी टी सेल्स (Tregs) महिलाओं को आने वाले समय में ऑटोइम्यून पैथोलॉजी में रुकावट के लिए ज्यादा सुगम बना सकते हैं.”

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हो सकता है यह जन्मजात हो

फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टीट्यूट, गुरुग्राम के इंटरनल मेडिसिन के डायरेक्टर डॉ. सतीश कौल ने फिट को बताया, “आमतौर पर महिलाओं में ऑटोइम्यून बीमारियों का खतरा ज्यादा होता है. यह आनुवंशिक कारणों समेत कई वजहों से हो सकता है.”

पहले भी कई रिसर्चर ने इस पर विचार किया है. असल में जहां तक ​​ऑटोइम्यून डिजीज की वजह वाले सिद्धांत की बात है, जेनेटिक्स और हार्मोनल बदलाव दो सबसे मजबूत दावे हैं.

एक सिद्धांत यह है कि यह पुरुषों में एक X और एक Y क्रोमोजोम्स के उलट महिलाओं में दो X क्रोमोजोम्स के कारण है.

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि X क्रोमोजोम्स में इम्यूनिटी संबंधी और इम्यून रेगुलेटरी जींस के ज्यादा कोड होते हैं, और इनकी गिनती ज्यादा होने से बड़ी संख्या में म्यूटेशन होने की संभावना बढ़ सकती है.

एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन के ‘फीमेल’ हार्मोन के बारे में क्या कहना है?

डॉ. विनीता बल कहती हैं, “हालांकि फीमेल हार्मोन अंतर को बताने के लिए एक स्पष्ट कारण है, लेकिन ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं है कि एस्ट्रोजेन या प्रोजेस्टेरोन (estrogen/progesterone) पैथोलॉजी में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं.”

डॉ. कौल के अनुसार बुनियादी वजह उन वजहों का संकलन है, जिनमें ऑटोइम्यून डिजीज की फैमिली हिस्ट्री और दूसरे पर्यावरणीय कारक भी कुछ महिलाओं में इस हालत के खतरे को बढ़ा सकते हैं.


फायदे के बजाय नुकसान हुआ

बीमारी की जानकारी और बेहतर इलाज की उपलब्धता बढ़ने के बजाय महिला और पुरुष बीमारियों के बीच इस विसंगति ने वैज्ञानिक अध्ययनों से महिलाओं की बीमारी की किस्मों को बाहर कर दिया है.

द गार्डियन में छपे एक लेख में बताया गया है कि मेडिकल साइंस के एनिमल ट्रायल के लिए किस तरह नर चूहों को पसंद किया जाता है, यहां तक ​​​​कि महिलाओं की बीमारियों का अध्ययन करते में भी. वजह? असुविधाजनक हार्मोनल उतार-चढ़ाव.

यह न केवल ऑटोइम्यून बीमारियों के आयामों की समझ के रास्ते में, बल्कि हार्ट की बीमारियों और महिलाओं में डिमेंशिया (dementia ) और अल्जाइमर (alzheimer) जैसी न्यूरोकाग्निटिव बीमारियों के विकास में महिलाओं और पुरुषों के बीच के अंतर को समझने में भी आड़े आता है.
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भले ही महिलाओं में ऑटोइम्यून बीमारियों के विकसित होने की संभावना अधिक होती है, फिर भी उन्हें मेडिकल फील्ड में लैंगिक भेदभाव के कारण बीमारी का पता लगाने और मेडिकल सहायता प्राप्त करने के लिए जूझना पड़ता है.

महिलाओं के दर्द और बीमारी के लक्षणों को खारिज किए जाने की संभावना ज्यादा होती है, और उनकी साइकियाट्रिक कंडीशन को ठीक से नहीं समझा जाता है. खासकर स्थायी दर्द (chronic pain) से पीड़ित महिलाओं के साथ ऐसा ही होता है.

ऑटोइम्यून डिजीज को डिकोड करना और महिलाओं पर इसके असर को समझना अब पहले से कहीं ज्यादा जरूरी हो गया है क्योंकि दुनिया में ऑटोइम्यून बीमारियों के मामलों में अस्पष्ट मगर लगातार बढ़ोत्तरी देखी जा रही है.

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