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बायोकॉन की COVID दवा: लिमिटेड स्टडी पर मिली है मंजूरी- एक्सपर्ट्स 

कोरोना के इलाज में ‘इटोलीजुमैब’ इंजेक्शन के इस्तेमाल को मंजूरी, लेकिन स्टडी पर एक्सपर्ट्स ने उठाए सवाल

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COVID-19 के इलाज में मोनोक्लोनल एंटीबॉडी इंजेक्शन 'इटोलीजुमैब' को ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (DCGI) ने सीमित इस्तेमाल की इजाजत दे दी है. इस दवा को बनाने वाली बायो फार्मास्युटिकल कंपनी बायोकॉन का दावा है कि कोविड-19 के मॉडरेट और गंभीर मरीजों पर इसका इस्तेमाल किया जा सकता है और परिणाम सकारात्मक आए हैं.

ड्रग कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया (डीसीजीआई) ने इस दवा के इस्तेमाल के लिए सशर्त मंजूरी दी है. ये शर्त है- दवा का इस्तेमाल सिर्फ इमरजेंसी में हो और रेस्ट्रिक्टेड हो. रेस्ट्रिक्टेड इस्तेमाल का मतलब है कि जिस किसी कोविड-19 के मरीज को इलाज के दौरान ये दवा दी जाएगी, उसके लिए पहले मरीज की मौखिक और लिखित सहमति जरूरी होगी.

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बता दें, ये दवा पहले से ही मार्केट में उपलब्ध है.

इटोलीजुमैब का इस्तेमाल स्किन से संबंधित बीमारी सोरायसिस के इलाज में होता है. बंगलुरु की दवा कंपनी बायोकॉन ने 2006 में इस दवा को डेवलप किया था. क्यूबा के एक कैंसर रिसर्च इंस्टिट्यूट, सेंटर फॉर मॉलिक्यूलर इम्यूनोलॉजी ने इसे अर्ली स्टेज एसेट के तौर पर लाइसेंस दिया था. सोरायसिस के इलाज के लिए अल्जुमैब (ALZUMAb) ब्रांड नाम के तहत 2013 में इसे भारत के ड्रग रेगुलेटर से मंजूरी मिली और तब से इस दवा की मैन्यूफैक्चरिंग और मार्केटिंग हो रही है.

अब कोविड के लिए इस्तेमाल की मंजूरी मिलने पर इसे ‘वंडर ड्रग’(चमत्कारी) बताया जा रहा है. लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि मंजूरी जिस स्टडी पर आधारित है, उसमें कई कमियां हैं.

120 दिनों में मिली मंजूरी

बायोकॉन ने 11 जुलाई को जारी किए गए एक प्रेस नोट में बताया है कि इस दवा का रैंडमाइज्ड कंट्रोल्ड ट्रायल किया गया है.

दवा का ट्रायल मुंबई और दिल्ली के 4 हॉस्पिटल में 30 कोरोना वायरस मरीजों पर किया गया है. ट्रायल के दौरान जिन मरीजों को इटोलीजुमैब दिया गया उन्हें वेंटिलेटर्स की जरूरत नहीं पड़ी. वो ठीक हो गए जबकि जिन मरीजों को इटोलीजुमैब नहीं दिया गया उनमें से कुछ की मौत हो गई.

बायोकॉन की एग्जीक्यूटिव चेयरपर्सन किरण मजूमदार शॉ का कहना है कि “इटोलीजुमैब पहली नोवेल बायोलॉजिकल थेरेपी है जिसे दुनिया भर में कहीं भी मॉडरेट से गंभीर COVID-19 मरीजों के इलाज के लिए मंजूरी दी गई है.”

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 120 दिनों के अंदर कंपनी ने दवा का ट्रायल शुरू करने से लेकर बाजार में बेचने की मंजूरी ली है.

एक चैनल इंटरव्यू में किरण मजूमदार शॉ ने इस दवा के फुल कोर्स की कीमत 32,000 रुपये बताई. उन्होंने कहा कि ICU ट्रीटमेंट की कीमत के मुकाबले ये कम है.
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“30 मरीजों पर ट्रायल दवा को कारगर बताने के लिए काफी नहीं”

फिट से बातचीत में मेदांता लीवर इंस्टिट्यूट के चेयरमैन डॉक्टर अरविंदर सॉइन कहते हैं “इस दवा के ट्रायल में 30 मरीजों को शामिल किया गया. 10 मरीज जिन्हें दवा नहीं दी गई उनमें 3 की मौत हो गई. ये साफ नहीं है कि वो मरीज शुरूआत में कितने गंभीर थे. छोटे सैंपल ट्रायल में कई अहम सवालों के जवाब नहीं मिल पाते. 30 मरीजों के आधार पर ये कहना कि ये ‘वंडर ड्रग’ है, ये मुनासिब नहीं है.”

महाराष्ट्र के महात्मा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के मेडिकल सुप्रिटेंडेंट और डायरेक्टर प्रोफेसर-मेडिसिन डॉ. एसपी कलंत्री कहते हैं- इस दवा को फेज 2 ट्रायल के आधार पर मंजूरी दी गई है. फेज 3 के क्लीनिकल ट्रायल से सरकार ने इन्हें छूट दे दी है. फेज 3 में हजारों लोगों पर ट्रायल किया जाता है. सरकार ने इन्हें सीधे फेज 4 करने को कहा है. फेज 4 यानी दवा देने के बाद साइड इफेक्ट की निगरानी करें और तब सरकार को इसकी जानकारी दें.

ऐसी दवा ‘कंपैशनेट ड्रग’ कहलाती हैं. इसके कई नियम होते हैं. सरकार इसकी तब इजाजत देती है, जब काफी गंभीर बीमारी है और कोई दवा नहीं है और दवा का कोई क्लीनिकल ट्रायल नहीं हो सकता. जबकि इटोलिजुमैब ड्रग के साथ ये बात लागू नहीं होती. भारत में इसका क्लीनिकल ट्रायल हो सकता था. लेकिन सिर्फ 30 मरीजों का छोटा ट्रायल कर फॉर्मैलिटी पूरी कर ली गई.

डॉक्टर अरविंदर सॉइन कहते हैं कि किसी भी दवा के लिए फेज 3 ट्रायल जरूरी होता है- ये बताने के लिए कि ये ड्रग पहले से चल रहे स्टैंडर्ड ट्रीटमेंट से बेहतर है.

डॉ. एसपी कालंत्री के मुताबिक इस दवा का अगर सावधानी से इस्तेमाल नहीं किया गया तो गंभीर साइड इफेक्ट्स भी हो सकते हैं. इंफेक्शन हो सकता है और उससे मौत भी हो सकती है. कुपोषण, टीबी से जूझ रहे मरीजों में इस इंफेक्शन का खतरा ज्यादा है.

साथ ही दवा का पीयर रिव्यू न होना भी एक कमी है.

“विदेशों में कोई दवा आती है तो उसकी रिसर्च साइंटिफिक जर्नल में पब्लिश करते हैं. साइंटिफिक कम्युनिटी उसे देखती है और राय देती है. जबकि यहां ऐसा करने की बजाय सीधे मीडिया के जरिये इसका प्रचार किया जा रहा है. ये साइंस के मूलभूत प्रिंसिपल के खिलाफ है. रेमडेसिविर, हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन इन सभी दवाओं की रिसर्च पब्लिश हुई है, तब ये दवाएं इस्तेमाल की जा रही हैं.”
डॉ. एसपी कलंत्री
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COVID-19 के इलाज में क्यों इस्तेमाल होगी ये दवा?

सोरायसिस के इलाज में इस्तेमाल होने वाली दवा COVID-19 के इलाज में क्यों इस्तेमाल की जा रही है?

दरअसल, सोरायसिस भी इम्यून सिस्टम की गड़बड़ी से होता है. इम्यून सिस्टम हेल्दी कोशिकाओं(Cell) पर ही हमला कर देता है. इससे त्वचा की कई कोशिकाएं बढ़ जाती है, जिससे त्वचा पर सूखे और कड़े चकत्ते बन जाते हैं, क्योंकि त्वचा की कोशिकाएं त्वचा की सतह पर बन जाती हैं.

COVID-19 में भी इम्यून सिस्टम की गड़बड़ी देखी जाती है. हमारे शरीर में जब भी कोई बैक्टीरिया या वायरस घुसता है तो हमारा इम्यून सिस्टम उससे लड़ता है और उसे कमजोर करके खत्म कर देता है.

जब हमारा इम्यून सिस्टम जरूरत से ज्यादा सक्रिय होकर बीमारी से लड़ने की बजाय हमारे शरीर को ही नुकसान पहुंचाने लगता है, तो उसे 'साइटोकाइन स्टॉर्म' कहते हैं. इससे मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर का खतरा होता है, जिससे मौत हो सकती है.

‘इटोलिजुमैब’ दवा इम्यून सिस्टम के ओवर रिएक्ट करने पर उसे डाउन करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इसी वजह से इसे कोरोना के मरीजों को मॉडरेट या गंभीर स्टेज पर, जिन मरीजों को ऑक्सीजन सपोर्ट की जरूरत है, उन्हें ही दिया जा सकता है. शुरुआती स्टेज पर इसे इसलिए नहीं दिया जा सकता क्योंकि उस समय शरीर संतुलित तरीके से वायरस से लड़ने और उसे खत्म करने की कोशिश करता है.

डेक्सामेथासॉन (Dexamethasone) भी करता है 'साइटोकाइन स्टॉर्म' को कंट्रोल

डॉक्टर अरविंदर सॉइन के मुताबिक भारत में COVID-19 मरीजों में ‘साइटोकाइन स्टॉर्म’ को काबू में करने के लिए 3 दवाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है. इनमें से कोई भी स्टैंडर्ड यूज के लिए नहीं है यानी वो हर मरीज के लिए इस्तेमाल नहीं की जा रही.

इन दवाओं में डेक्सामेथासॉन, टॉसिलिजुमैब, और अब इटोलिजुमैब भी शामिल है. तीनों का सेल्यूलर मैकेनिज्म ऑफ एक्शन, माल्यिकुलर लेवल मैकेनिज्म अलग है. लेकिन इन तीनों दवाओं का अल्टीमेट रिजल्ट ‘साइटोकाइन स्टॉर्म’ पर कंट्रोल है.

डॉ. एसपी कलंत्री कहते हैं- डेक्सामेथासॉन की कीमत काफी कम है. ये 100 रुपये तक में आ जाती है. वहीं इटोलिजुमैब का कोर्स काफी महंगा- 32 हजार का है. डेक्सामेथासॉन काफी पुरानी दवा है. दशकों से इसका इस्तेमाल हो रहा है. डॉक्टर-नर्स को अच्छे से जानकारी है कि इसे कैसे देना है.

साथ ही वो कहते हैं कि डेक्सामेथासॉन का बड़े पैमाने पर फेज 3 ट्रायल भी हो चुका है जबकि इटोलिजुमैब का फेज 3 ट्रायल नहीं हुआ. ऐसे में नई दवा (इटोलिजुमैब) जिसके साइड इफेक्ट्स के बारे में पता नहीं हैं, ये एक गरीब देश के अंदर कितना जस्टिफाइड होगा?

यूके की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक टीम ने अस्पताल में भर्ती करीब 2 हजार मरीजों पर स्टडी की, जिन्हें डेक्सामेथासॉन दिया गया था और इस ग्रुप की तुलना 4 हजार ऐसे लोगों से की गई थी, जिन्हें ये दवा नहीं दी गई थी. वेंटिलेटर पर रहे मरीजों के लिए मौत का रिस्क 40% से घटकर 28% और ऑक्सीजन की जरूरत वाले लोगों के लिए मौत का रिस्क 25% से घटकर 20% पाया गया.

डॉ. एसपी कलंत्री का ये भी मानना है कि इटोलिजुमैब ड्रग ट्रायल के लिए 10 मरीजों के कंट्रोल ग्रुप में भी डेक्सामेथासॉन का इस्तेमाल होना चाहिए था. लेकिन ये इस्तेमाल नहीं किया गया. इससे कंट्रोल ग्रुप को कमजोर कर दिया गया. ऐसे में दोनों ग्रुप बराबर नहीं रहे. अगर कंट्रोल ग्रुप में डेक्सामेथासॉन होता तो मुमकिन था कि लोगों की जान ऐसे ही बच जाती. दोनों ग्रुप बैलेंस्ड नहीं थे.

हालांकि बायोकॉन के मुताबिक इटोलिजुमैब का ट्रायल मई में शुरू हुआ जबकि डेक्सामेथासॉन को जून में मंजूरी मिली है.

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