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HIV रोगियों को ऐसा क्यों लगता है कि सरकार उनकी परवाह नहीं करती

दवाओं के मामले में किन हालातों का सामना कर रहे हैं HIV/AIDS के मरीज?

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11 जुलाई 2018 को, हरि शंकर, जो एक एनजीओ दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल (DNP Plus) के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हैं, एक संकट में फंसे हुए थे. DNP Plus एक ऐसा गैर सरकारी संगठन (NGO) है, जो एचआईवी/एड्स पीड़ित लोगों के लिए एक सहायक समूह के तौर पर काम करता है.

दिल्ली में सरकार की मदद से चलाए जा रहे 11 एआरटी (एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी) केंद्रों में से एक में HIV दवाएं खत्म हो गई थीं.

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HIV दवाओं का स्टॉक अक्सर खत्म हो जाता है

भारत की राजधानी में यह अनोखी स्थिति नहीं थी, जहां स्टॉक खत्म होना या एचआईवी दवाओं की कमी काफी आम है.

जब एलएनजेपी (लोक नायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल) ने हाथ खड़े कर दिए और दवा की कमी की बात स्वीकार की, तो हमने 20 रोगियों के लिए बाहर से दवाएं खरीदने का फैसला किया. हमने एक हफ्ते तक दवाएं खरीदी और इसे मरीजों को दिया ताकि उनकी दवा का कोर्स प्रभावित न हो.
हरि शंकर, प्रोजेक्ट डायरेक्टर, डीएनपी प्लस
दवाओं के मामले में किन हालातों का सामना कर रहे हैं HIV/AIDS के मरीज?
मरीज के दवाई की पर्ची दिखाते हुए डीएनपी प्लस के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हरि शंकर.
(फोटो क्रेडिट: आकांक्षा कुमार/फिट)
दवाओं के मामले में किन हालातों का सामना कर रहे हैं HIV/AIDS के मरीज?
जब दिल्ली के LNJP हॉस्पिटल में राल्टेग्रेविर टैबलेट खत्म हो गईं, तो एनजीओ ‘डीएनपी प्लस’ ने एचआईवी रोगियों के लिए दवाएं खरीदने के लिए पैसे जुटाए.
(फोटो क्रेडिट: डीएनपी प्लस के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हरि शंकर) 
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दिल्ली में एचआईवी दवाओं का स्टॉक खत्म होना काफी आम है.
(फोटो क्रेडिट: डीएनपी प्लस के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हरि शंकर) 
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डीएनपी प्लस के प्रोजेक्ट डायरेक्टर हरि शंकर के मुताबिक इस साल सितंबर में उन्हें कम से कम 20 HIV रोगियों के लिए बाहर से दवाएं खरीदनी पड़ी थी. 
(फोटो क्रेडिट: आकांक्षा कुमार/फिट)
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हरि शंकर ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और दिल्ली के स्थानीय मरीजों के लिए दवाएं खरीदी थीं.

इनमें से अधिकतर पेशेंट बहुत दूर से आते हैं और ट्रांसपोर्ट पर पैसे खर्च करते हैं, और इसलिए, वे कम से कम दो महीने तक की खुराक पाने की उम्मीद करते हैं.
हरि शंकर, प्रोजेक्ट डायरेक्टर, डीएनपी प्लस

बफर स्टॉक के लिए NACO को लिखा खत

डीएनपी प्लस कार्यकर्ताओं की तरफ से जून से लेकर कम से कम पांच सिलसिलेवार पत्र राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) के नाम लिखे गए. इसमें संबंधित अधिकारियों से सभी एआरटी केंद्रों में एचआईवी दवाओं का बफर स्टॉक उपलब्ध कराने का आग्रह किया गया.

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एम्स में Nevirapine सिरप की कमी के संबंध में 14 सितंबर 2018 को NACO को भेजा गया लेटर.

14 सितंबर 2018 को लिखा गया एक ऐसा ही पत्र, जिसे NACO के केयर, सपोर्ट एंड ट्रीटमेंट डिवीजन में उप महानिदेशक के नाम लिखा गया. इसमें एम्स में एनवीपी ( Nevirapine) सिरप की उपलब्धता सुनिश्चित कराने का आग्रह किया गया था. एनवीपी दवा मां-से-बच्चे को होने वाले एचआईवी संक्रमण को रोकने के लिए एंटी-रेट्रोवायरल थेरेपी के रूप में प्रयोग की जाती है.

“सर, हमें बहुत निराशा महसूस होती है, जब कभी दवा खत्म हो जाती है. यह एचआईवी के साथ जीने वाले लोगों की परेशानी का कारण बनता है. इसे ध्यान में रखते हुए कि भारत जो जेनेरिक दवाओं का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक है, यहां पैसे की कमी नहीं है, फिर भी दवाएं खत्म हो जाती हैं. यह वास्तव में शर्म की बात है.”
14 सितंबर 2018 को डीएनपी प्लस का NACO को लिखा गया खत
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दवाओं के इंतजाम में देरी

हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार 29 अगस्त 2018 को लोक नायक अस्पताल में एक बार फिर एचआईवी की दवा खत्म हो गई. यह Raltegravir, Darunavir और Ritonavir के कॉम्बिनेशन वाली तीसरे चरण की दवा थी, जो कि सरकारी अस्पताल में नहीं थी.

दिल्ली के स्वास्थ्य विभाग के एक अधिकारी ने हिंदुस्तान टाइम्स को बताया, 'राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) द्वारा पूरे देश के लिए दवाएं केंद्रीय रूप से खरीदी जाती हैं. टेंडर को अंतिम रूप देने में कुछ दिक्कतें थी और इसलिए दिल्ली में दवाओं की कमी हुई.

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11 जुलाई 2018 को नई दिल्ली में नैको ऑफिस में तीसरे चरण की एआरवी (एंटीरेट्रोवायरल) दवाओं के खत्म होने खिलाफ विरोध प्रदर्शन. 
(फोटो: DNP प्लस)

पहले और तीसरे चरण की दवाओं की कीमत में अंतर बताता है कि एचआईवी रोगी निर्धारित दवाएं लेने के लिए सरकार संचालित एआरटी केंद्रों में क्यों आते हैं.

चूंकि एचआईवी दवा के पहले चरण के एक महीने के खुराक की कीमत 1,000 से 3,000 रुपये के बीच है. वहीं तीसरे चरण की 30 दिन के दवा की कीमत 20,000 रुपये से 25,000 रुपये के बीच है.

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HIV की दवाएं छूटने का क्या मतलब है?

सर गंगा राम हॉस्पिटल में सीनियर कंसल्टेंट डॉ पूजा खोसला के अनुसार, 'एचआईवी वायरस प्रतिरोध के लिए बहुत कमजोर होता है. दवाओं के छोड़ने से म्यूटेशन हो सकता है और इस तरह, पहले चरण (फर्स्ट लाइन) की दवा काम करना बंद कर देगी.'

डिपार्टमेंट ऑफ मेडिसिन से जुड़ी डॉ खोसला कहती हैं:

अगर रोगी तीसरे चरण की दवा ले रहा है, तो दवा की मासिक खुराक भोजन से भी अधिक महत्वपूर्ण है.
डॉ पूजा खोसला, सीनियर कंसल्टेंट, सर गंगा राम हॉस्पिटल 
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जब कोर्ट पहुंची एक HIV पॉजिटिव महिला

साल 2016 में, एक एचआईवी पॉजिटिव महिला ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि 'एआरटी केंद्रों में एंटीरेट्रोवायरल्स का पर्याप्त स्टॉक नहीं है. रोगियों को एक बार में केवल 15 दिन की दवा दी जा रही थी.'

फिट से बात करते हुए याचिकाकर्ता कहती हैं, जबकि दिल्ली के लोग एचआईवी दवाएं पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, ऐसे में यह उन लोगों के लिए और भी बदतर है, जो दूसरे राज्यों से यहां आते हैं.

“जब हमें एक महीने की दवा की जरूरत होती है, तो हमें केवल एक हफ्ते की खुराक के साथ वापस भेज दिया जाता है. कभी-कभी, हमें केवल पंद्रह दिन तक की दवा दी जाती है. मेरे एक भाई और बहन है, जो एचआईवी पॉजिटिव हैं. उन्हें भी इसी तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है. हम गरीब लोग हैं, दवा लेने के लिए अक्सर छुट्टियां नहीं ले सकते हैं.”
याचिकाकर्ता, जिन्होंने दिल्ली में HIV दवाओं की कमी के संबंध में PIL दायर की है

उस याचिकाकर्ता को सुनिए जिसने दिल्ली में एचआईवी दवाओं की कमी को लेकर पीआईएल दायर की है. महिला की पहचान सुरक्षित रखने के लिए आवाज बदल दी गई है.

जब महिला ने केंद्र, आम आदमी पार्टी सरकार और NACO के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की तो दिल्ली हाईकोर्ट ने 18 नवंबर 2018 को स्वास्थ्य मंत्रालय से जवाब मांगा. इस मामले में अगली सुनवाई 12 मार्च 2019 को होने की उम्मीद है.

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साल 2004 से स्थिति में कोई सुधार नहीं

दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल के साथ जुड़े कार्यकर्ता लून गंगटे, जो खुद एचआईवी पॉजिटिव हैं, कहते हैं कि 2004 से हालात में सुधार नहीं हुआ है. वह पिछले 14 साल से एड्स की दवाओं की कमी पर नजर बनाए हुए हैं.

1 अप्रैल 2004 से, हम दवाओं की कमी की निगरानी कर रहे हैं, लेकिन दुख की बात है कि हालात में सुधार नहीं हो रहा है. ऐसा लगता है कि इसे हल करने के लिए कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है. हम हर हफ्ते 2-3 मेल लिखते हैं. ऐसे में आप पूर्वोत्तर के दूरदराज इलाकों की कल्पना कर सकते हैं.
लून गंगटे, एक्टिविस्ट, दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉजिटिव पीपल

गंगटे इन मेल्स को ‘लॉफ लेटर्स’ कहते हैं. साल 2015-16 में भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने जब नैको के बजट में 22 फीसदी की कमी करते हुए, इसे 1397 करोड़ रुपये किया तो काफी हो-हल्ला मचा था. हालांकि साल 2016-17 में यह बजट 17.65 फीसदी बढ़कर 1700 करोड़ रुपये हुआ. इसके बाद साल 2017-18 में यह 2000 करोड़ रुपये किया गया.

साल 2002 से एचआईवी का इलाज करा रहे एक्टिविस्ट लून गंगटे कहते हैं कि बजट की कोई कमी नहीं है, नैको के साथ ढांचागत समस्याएं हैं, जो दवाओं के कमी की पूरी कहानी कहती है.

‘इलाज’ से बेहतर ‘रोकथाम’ ?

पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव जेवीआर प्रसाद राव, जो 1997-2002 तक NACO के डायरेक्टर जनरल थे, ने 15 अक्टूबर 2018 को ‘AIDS Control in India Losing Momentum’ नाम से एक लेख में लिखा था:

सबसे पहले फंड की कमी आई, बीमारी की रोकथाम के लिए अनुमानित लागत के आधार पर पूरा फंड नहीं मिला. फिर एड्स नियंत्रण कार्यक्रम को नियंत्रित करने वाले प्रशासनिक बदलाव हुए. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि रोकथाम कार्यक्रमों को लागू करने में सहयोगी के रूप में समाज की भागीदारी कम हो गई. रोकथाम कार्यक्रमों को लागू करने वाली एजेंसियों तक फंड नहीं पहुंच पाया है. इस वजह से अधिक खतरे वाले रोगियों को उपलब्ध कराई जाने वाली कई रोकथाम और देखभाल सेवाएं बंद हो गई हैं. बिना किसी रोकथाम सेवाओं के रोगियों को छोड़ दिया गया है.
नैको के पूर्व निदेशक जेवीआर प्रसाद राव के हिंदू बिजनेसलाइन में प्रकाशित लेख के अंश
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एक्टिविस्ट दीपक राणा एनजीओ एलायंस इंडिया के साथ काम करते हैं. यह एनजीओ एचआईवी / एड्स की रोकथाम के क्षेत्र में काम करता है. दीपक के अनुसार उच्च जोखिम आबादी वाले लोगों को नियमित जांच-पड़ताल के लिए समझाना एक चुनौती है. दीपक कहते हैं, 'हम अपनी प्रगति पर नजर रखते रहते हैं क्योंकि उच्च जोखिम समूह (HRG-High Risk Group) में सेक्स वर्करों को हर छह महीने में एचआईवी टेस्ट कराना पड़ता है.'

एलायंस इंडिया उच्च जोखिम समूह (एचआरजी) पर केंद्रित है, जिसमें सेक्स वर्कर्स और ट्रांसजेंडर शामिल हैं. एनजीओ ने हाल ही में कंडोम के उपयोग के बारे में जागरुकता फैलाने के लिए दिल्ली में स्पा और मसाज पार्लर्स में जाना शुरू किया है.

दवाओं के मामले में किन हालातों का सामना कर रहे हैं HIV/AIDS के मरीज?
एक आदमी जिसकी पत्नी पूर्वी दिल्ली में सेक्स वर्कर है, नैको द्वारा दिए गए कंडोम का पैकेट पकड़े हुए.
(फोटो क्रेडिट: आकांक्षा कुमार/फिट)

एक कार्यकर्ता जो एचआईवी/एड्स रोगियों की मदद करने वाले एनजीओ के साथ काम करता है, अपना नाम नहीं बताने की शर्त पर कहता है, ‘शुरू में राज्य एड्स संगठनों का काम था कि वे सीधे NACO के जरिए दवा और कंडोम का इंतजाम करें. लेकिन समस्या तब से शुरू हुई जब साल 2013 में एनएचएम (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन) इस तस्वीर में आया.'

शायद यही कारण है कि लून गंगटे जैसे कार्यकर्ता, जिन्होंने लगभग दो दशक तक भारत के एड्स रोकथाम कार्यक्रम से जुड़ी चिंताओं को उठाया है, अब मांग कर रहे हैं कि NACO को स्वायत्तता दी जानी चाहिए.

ऐसा देश जहां लगभग 21.40 लाख लोग एचआईवी-एड्स (NACO की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक) के साथ जी रहे हैं, शायद यही समय है, जब नीतिगत निर्णयों पर फिर से विचार करने की जरूरत है.

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