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Jan Vishwas Bill: 'खराब दवाओं के लिए कम सजा क्यों?' एक्सपर्ट्स कर रहें सवाल

विशेषज्ञों का कहना है, "खराब क्वालिटी वाली दवाओं के साथ इतनी नरमी न बरतें."

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27 जुलाई को पास किए गए जन विश्वास बिल के जरिए ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट, 1940 में दो संशोधनों को लेकर हेल्थ पॉलिसी एक्स्पर्टों और ऐक्टिविस्टों के बीच बहस छिड़ गई है. कई लोगों ने इसके संभावित इम्प्लिकेशन की ओर इशारा किया है.

कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, नए संशोधनों से भारत में दवा निर्माण से जुड़े कुछ अपराधों को 'अपराधीकरण' से मुक्त कर दिया जाएगा.

सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, दिनेश ठाकुर ने संशोधनों की आलोचना करते हुए ट्वीट किया, "यह बिल इंडस्ट्री की लंबे समय से चली आ रही इच्छा को पूरा करता है कि यदि आपको खराब दवा से शारीरिक नुकसान होता है, तो किसी को भी दंडात्मक रूप से जवाबदेह नहीं ठहराया जाएगा."

आइए देखें कि क्या हो रहा है, विशेषज्ञ इन परिवर्तनों से चौकन्ना क्यों हैं और सरकार की प्रतिक्रिया क्या रही है.

Jan Vishwas Bill: 'खराब दवाओं के लिए कम सजा क्यों?' एक्सपर्ट्स कर रहें सवाल

  1. 1. जन विश्वास बिल: क्या है संशोधन?

    जन विश्वास बिल को 19 मंत्रालयों द्वारा प्रशासित 42 कानूनों में संशोधन के लिए तैयार किया गया था. बिल के पीछे का उद्देश्य कई छोटे अपराधों के लिए आपराधिक सजा और कारावास के "पुराने नियमों" को खत्म करना है.

    बिल 1940 के ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट में दो संशोधन करने का प्रयास करता है. वह अधिनियम जो भारत में दवाओं के आयात, निर्माण और वितरण को कंट्रोल करता है.

    वर्तमान में, बिल अपराधों की चार श्रेणियों को परिभाषित करता है - मिलावटी दवाएं, नकली दवाएं, गलत लेबल वाली दवाएं और नॉट ऑफ स्टैंडर्ड क्वालिटी दवाएं  (NSQ) और अपराध की डिग्री के आधार पर सजा की डिग्री (जेल के समय और जुर्माने का एक कॉम्बिनेशन) निर्धारित करता है.

    धारा 27(डी) विशेष रूप से गलत ब्रांडिंग और नॉट ऑफ स्टैंडर्ड क्वालिटी वाली दवाओं (NSQ) के अपराधों से संबंधित है, जिसके लिए वर्तमान में दो साल तक की कैद और 20,000 रुपये तक का जुर्माना लगता है.

    जन विश्वास बिल इसे बदल देता है ताकि धारा 27 (डी) के तहत इन अपराधों को कम्पाउन्डेबल अपराधों में परिवर्तित किया जा सके, जिसमें आरोपी 5 लाख रुपये तक का जुर्माना देकर कारावास से बच सकता है.

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  2. 2. इन बदलावों से बिजनेस को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन क्या यह सही है?

    बिल पेश करते समय, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि बिल तैयार किया गया था क्योंकि, "छोटे अपराधों के लिए कारावास का डर बिजनेस इकोसिस्टम और व्यक्तिगत आत्मविश्वास के विकास में बाधा डालने वाला एक प्रमुख कारक है."

    फिट से बात करते हुए, एक्टिविस्ट एंटरप्रेन्योर और ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क (AIDAN) के सदस्य एस. श्रीनिवासन कहते हैं, "कंपाउंडिंग की संभावना से कारावास के खतरे को कम करने से, बहुत अधिक युवा लोग भारत में फार्मास्युटिकल मैन्युफैक्चरिंग में प्रवेश कर सकते हैं. बहुत अधिक 'ऑपरेटर' ' भी आ सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि जन विश्वास बिल विदेशी निवेशकों के लिए व्यापार में आसानी के संदर्भ में कई स्थानों पर इस कदम को उचित ठहराता है.'

    "लेकिन, यह कहना मुश्किल है कि यह कदम उपभोक्ता के दृष्टिकोण से उचित है या नहीं," वह कहते हैं.

    विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो श्रेया श्रीवास्तव कहती हैं, "विशेष रूप से छोटे अपराधों के लिए डीक्रिमिनलाइजेशन ही सही रास्ता है. हालांकि, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट इस बिल में क्यों है, यह मेरे लिए स्पष्ट नहीं है."

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  3. 3. खराब दवाओं के लिए कम सजा?

    पार्थ शर्मा, फेलो, लैंसेट सिटिजेन कमिशन ऑन रीईमैजिनिंग इंडियाज हेल्थ सिस्टम, कहते हैं, "भले ही बिल इसे पूरी तरह से 'डिक्रिमिनलाइज' नहीं कर रहा है, लेकिन कंपाउंडिंग से किसी कंपनी को खराब दवाएं बनाने के लिए उचित सजा मिलने की संभावना कम हो जाती है."

    श्रेया श्रीवास्तव बतातीं हैं कि जुर्माने की 5 लाख की ऊपरी सीमा लोगों को नहीं रोकेगी. वह कहती हैं, "बड़े फार्मासिस्टों के लिए यह बहुत छोटी रकम है, इसे बहुत आसानी से मैनेज किया जा सकता है."

    विशेषज्ञों का कहना है कि, केंद्रीय मंत्रालय की प्रेस रिलीज से ऐसा लगता है कि खराब दवाएं बनाना एक छोटा अपराध है.

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  4. 4. सरकार ने क्या कहा?

    केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इन चिंताओं को संबोधित करते हुए एक बयान दिया.

    प्रेस रिलीज में कहा गया है, कोई भी दवा,

    • जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है या शारीरिक इंजरी या मृत्यु का कारण बन सकती है

    • जिसमें विषैले पदार्थ होते हैं

    • जो अस्वच्छ परिस्थितियों में बनाया जाता है

    • जो किसी भी निषेध का उल्लंघन करके बनाया गया है

    • जो बिना लाइसेंस के बनाया गया है

    • जिसमें उसकी गुणवत्ता या ताकत को कम करने वाले पदार्थ शामिल है

    • जो एक ऐसे नाम के तहत बनाया गया है, जो किसी दूसरे दवा से संबंधित है

    ...प्रस्तावित संशोधन के तहत कवर नहीं किया जाएगा, और इन परिस्थितियों में कड़े आपराधिक प्रावधानों की गारंटी जारी रहेगी.

    हालांकि, विशेषज्ञ प्रेस रिलीज में किए गए दावों से संतुष्ट नहीं हैं, और इसे 'गुमराह करने वाला' बता रहे हैं.

    श्रीवास्तव का कहना है कि सरकार की प्रतिक्रिया भी "बहुत कंफ्यूज करने वाली" है क्योंकि ऐसा लगता है कि वह संशोधनों के वास्तविक परिणामों को कम करने की कोशिश कर रही है.

    श्रीवास्तव कहती हैं, ''संदेश यह है कि भारत में नकली दवाएं मौजूद हैं और इसके अलावा दवाओं में कोई समस्या नहीं है,'' उन्होंने कहा कि NSQ दवाओं के साथ इतनी उदारता से व्यवहार करने से कम्प्लेसन्सी (complacency) हो सकती है और यह खतरनाक साबित हो सकता है.

    यह एक समस्या है क्योंकि नकली दवाओं के साथ-साथ भारत खराब दवाओं की बड़ी चुनौती से भी जूझ रहा है.

    "संशोधन स्पष्ट रूप से कहता है कि मिलावटी और नकली दवाओं के अलावा दूसरे एक्ट का उल्लंघन ऑटोमैटिक रूप से धारा 27 (डी) के तहत आएगा और इसमें कम्पाउंडिंग किया जा सकता है. लेकिन फिर, मंत्रालय एक स्पष्टीकरण देता है कि कोई भी दवा जो मापदंडों में विफल रही है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, या मौत का कारण बन सकती है, तो फिर कम्पाउंडिंग नहीं की जा सकती है."

    "लेकिन इस तरह का फाइन प्रिंट संशोधन का हिस्सा नहीं है, इसलिए यह थोड़ा कंफ्यूजिंग है और आश्वस्त करने वाला नहीं है."
    श्रेया श्रीवास्तव
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  5. 5. भारत में बनी दवाओं की प्रतिष्ठा अभी भी खतरे में है

    जन विश्वास बिल संयोगवश ऐसे समय पर आया है, जब भारत में बनी दवाओं के गुणवत्ता संबंधी कई अंतरराष्ट्रीय मामले सामने आए हैं.

    विशेषज्ञों का कहना है कि जिस समय सरकार भारत में बनी दवाओं पर भरोसा बढ़ाने की कोशिश कर रही है, ये बदलाव उनकी प्रतिष्ठा को और नुकसान पहुंचा सकते हैं.

    "यह हमें भारतीय निर्मित दवाओं की प्रतिष्ठा को बचाने की कोशिश के मामले में एक और कदम पीछे ले जाता है क्योंकि इससे संकेत मिलता है कि जब भारत में निर्मित दवाओं के स्टैंडर्ड की बात आती है, तो हम सख्त नियम बनाने में रुचि नहीं रखते हैं."
    श्रेया श्रीवास्तव, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो

    फिट से बात करते हुए, पेशेंट सेफ्टी एंड एक्सेस इनिशिएटिव ऑफ इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक, प्रोफेसर बेजोन कुमार मिश्रा कहते हैं, "हमें और सख्त रेग्युलेटरी ओवर्साइट की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लाइसेंसिंग, सप्लाई चेन के हर चरण में, अधिक पारदर्शी और मजबूत तरीके से हो."

    उनका कहना है कि दस्तावेज में इसके लिए एक वॉटरटाइट फ्रेमवर्क अभी भी गायब है.

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  6. 6. 'सख्त नियम, लेकिन कारावास कोई रास्ता नहीं'

    जबकि विशेषज्ञ सख्त नियमों की आवश्यकता पर सहमत हैं, प्रोफेसर मिश्रा कहते हैं, वे अधिक कारावास की पैरवी नहीं कर रहे हैं.

    वे कहते हैं, ''बहस कारावास बनाम जुर्माने के बारे में नहीं होनी चाहिए.''

    "एक पेशेंट संगठन के प्रतिनिधि के रूप में, हम देश में नकली दवाओं या कम गुणवत्ता वाली दवाओं का शिकार बनने वाले रोगियों को अपराधियों द्वारा भारी मुआवजा देकर निवारक कार्रवाई में अधिक रुचि रखते हैं."
    प्रो. बेजोन कुमार मिश्रा, पेशेंट सेफ्टी एंड एक्सेस इनिशिएटिव ऑफ इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक

    श्रीवास्तव यह भी कहते हैं कि भारत में मौजूदा दवा नियमों से जुड़े कई मुद्दे हैं, जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है लेकिन यह बिल उन कमियों को दूर करने में मदद नहीं कर रहा है.

    इसके लिए विशेषज्ञों की नजर संशोधित द न्यू ड्रग्स, मेडिकल डिवाइसेस एण्ड कॉस्मेटिक्स बिल, 2023 पर है, जिसे पिछले साल पेश किया गया था, लेकिन अभी तक कैबिनेट की मंजूरी नहीं मिली है.

    (हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

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जन विश्वास बिल: क्या है संशोधन?

जन विश्वास बिल को 19 मंत्रालयों द्वारा प्रशासित 42 कानूनों में संशोधन के लिए तैयार किया गया था. बिल के पीछे का उद्देश्य कई छोटे अपराधों के लिए आपराधिक सजा और कारावास के "पुराने नियमों" को खत्म करना है.

बिल 1940 के ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स ऐक्ट में दो संशोधन करने का प्रयास करता है. वह अधिनियम जो भारत में दवाओं के आयात, निर्माण और वितरण को कंट्रोल करता है.

वर्तमान में, बिल अपराधों की चार श्रेणियों को परिभाषित करता है - मिलावटी दवाएं, नकली दवाएं, गलत लेबल वाली दवाएं और नॉट ऑफ स्टैंडर्ड क्वालिटी दवाएं  (NSQ) और अपराध की डिग्री के आधार पर सजा की डिग्री (जेल के समय और जुर्माने का एक कॉम्बिनेशन) निर्धारित करता है.

धारा 27(डी) विशेष रूप से गलत ब्रांडिंग और नॉट ऑफ स्टैंडर्ड क्वालिटी वाली दवाओं (NSQ) के अपराधों से संबंधित है, जिसके लिए वर्तमान में दो साल तक की कैद और 20,000 रुपये तक का जुर्माना लगता है.

जन विश्वास बिल इसे बदल देता है ताकि धारा 27 (डी) के तहत इन अपराधों को कम्पाउन्डेबल अपराधों में परिवर्तित किया जा सके, जिसमें आरोपी 5 लाख रुपये तक का जुर्माना देकर कारावास से बच सकता है.

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इन बदलावों से बिजनेस को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन क्या यह सही है?

बिल पेश करते समय, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि बिल तैयार किया गया था क्योंकि, "छोटे अपराधों के लिए कारावास का डर बिजनेस इकोसिस्टम और व्यक्तिगत आत्मविश्वास के विकास में बाधा डालने वाला एक प्रमुख कारक है."

फिट से बात करते हुए, एक्टिविस्ट एंटरप्रेन्योर और ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क (AIDAN) के सदस्य एस. श्रीनिवासन कहते हैं, "कंपाउंडिंग की संभावना से कारावास के खतरे को कम करने से, बहुत अधिक युवा लोग भारत में फार्मास्युटिकल मैन्युफैक्चरिंग में प्रवेश कर सकते हैं. बहुत अधिक 'ऑपरेटर' ' भी आ सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि जन विश्वास बिल विदेशी निवेशकों के लिए व्यापार में आसानी के संदर्भ में कई स्थानों पर इस कदम को उचित ठहराता है.'

"लेकिन, यह कहना मुश्किल है कि यह कदम उपभोक्ता के दृष्टिकोण से उचित है या नहीं," वह कहते हैं.

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो श्रेया श्रीवास्तव कहती हैं, "विशेष रूप से छोटे अपराधों के लिए डीक्रिमिनलाइजेशन ही सही रास्ता है. हालांकि, ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट इस बिल में क्यों है, यह मेरे लिए स्पष्ट नहीं है."

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खराब दवाओं के लिए कम सजा?

पार्थ शर्मा, फेलो, लैंसेट सिटिजेन कमिशन ऑन रीईमैजिनिंग इंडियाज हेल्थ सिस्टम, कहते हैं, "भले ही बिल इसे पूरी तरह से 'डिक्रिमिनलाइज' नहीं कर रहा है, लेकिन कंपाउंडिंग से किसी कंपनी को खराब दवाएं बनाने के लिए उचित सजा मिलने की संभावना कम हो जाती है."

श्रेया श्रीवास्तव बतातीं हैं कि जुर्माने की 5 लाख की ऊपरी सीमा लोगों को नहीं रोकेगी. वह कहती हैं, "बड़े फार्मासिस्टों के लिए यह बहुत छोटी रकम है, इसे बहुत आसानी से मैनेज किया जा सकता है."

विशेषज्ञों का कहना है कि, केंद्रीय मंत्रालय की प्रेस रिलीज से ऐसा लगता है कि खराब दवाएं बनाना एक छोटा अपराध है.

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सरकार ने क्या कहा?

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इन चिंताओं को संबोधित करते हुए एक बयान दिया.

प्रेस रिलीज में कहा गया है, कोई भी दवा,

  • जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक साबित होती है या शारीरिक इंजरी या मृत्यु का कारण बन सकती है

  • जिसमें विषैले पदार्थ होते हैं

  • जो अस्वच्छ परिस्थितियों में बनाया जाता है

  • जो किसी भी निषेध का उल्लंघन करके बनाया गया है

  • जो बिना लाइसेंस के बनाया गया है

  • जिसमें उसकी गुणवत्ता या ताकत को कम करने वाले पदार्थ शामिल है

  • जो एक ऐसे नाम के तहत बनाया गया है, जो किसी दूसरे दवा से संबंधित है

...प्रस्तावित संशोधन के तहत कवर नहीं किया जाएगा, और इन परिस्थितियों में कड़े आपराधिक प्रावधानों की गारंटी जारी रहेगी.

हालांकि, विशेषज्ञ प्रेस रिलीज में किए गए दावों से संतुष्ट नहीं हैं, और इसे 'गुमराह करने वाला' बता रहे हैं.

श्रीवास्तव का कहना है कि सरकार की प्रतिक्रिया भी "बहुत कंफ्यूज करने वाली" है क्योंकि ऐसा लगता है कि वह संशोधनों के वास्तविक परिणामों को कम करने की कोशिश कर रही है.

श्रीवास्तव कहती हैं, ''संदेश यह है कि भारत में नकली दवाएं मौजूद हैं और इसके अलावा दवाओं में कोई समस्या नहीं है,'' उन्होंने कहा कि NSQ दवाओं के साथ इतनी उदारता से व्यवहार करने से कम्प्लेसन्सी (complacency) हो सकती है और यह खतरनाक साबित हो सकता है.

यह एक समस्या है क्योंकि नकली दवाओं के साथ-साथ भारत खराब दवाओं की बड़ी चुनौती से भी जूझ रहा है.

"संशोधन स्पष्ट रूप से कहता है कि मिलावटी और नकली दवाओं के अलावा दूसरे एक्ट का उल्लंघन ऑटोमैटिक रूप से धारा 27 (डी) के तहत आएगा और इसमें कम्पाउंडिंग किया जा सकता है. लेकिन फिर, मंत्रालय एक स्पष्टीकरण देता है कि कोई भी दवा जो मापदंडों में विफल रही है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, या मौत का कारण बन सकती है, तो फिर कम्पाउंडिंग नहीं की जा सकती है."

"लेकिन इस तरह का फाइन प्रिंट संशोधन का हिस्सा नहीं है, इसलिए यह थोड़ा कंफ्यूजिंग है और आश्वस्त करने वाला नहीं है."
श्रेया श्रीवास्तव
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जन विश्वास बिल संयोगवश ऐसे समय पर आया है, जब भारत में बनी दवाओं के गुणवत्ता संबंधी कई अंतरराष्ट्रीय मामले सामने आए हैं.

विशेषज्ञों का कहना है कि जिस समय सरकार भारत में बनी दवाओं पर भरोसा बढ़ाने की कोशिश कर रही है, ये बदलाव उनकी प्रतिष्ठा को और नुकसान पहुंचा सकते हैं.

"यह हमें भारतीय निर्मित दवाओं की प्रतिष्ठा को बचाने की कोशिश के मामले में एक और कदम पीछे ले जाता है क्योंकि इससे संकेत मिलता है कि जब भारत में निर्मित दवाओं के स्टैंडर्ड की बात आती है, तो हम सख्त नियम बनाने में रुचि नहीं रखते हैं."
श्रेया श्रीवास्तव, विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो

फिट से बात करते हुए, पेशेंट सेफ्टी एंड एक्सेस इनिशिएटिव ऑफ इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक, प्रोफेसर बेजोन कुमार मिश्रा कहते हैं, "हमें और सख्त रेग्युलेटरी ओवर्साइट की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लाइसेंसिंग, सप्लाई चेन के हर चरण में, अधिक पारदर्शी और मजबूत तरीके से हो."

उनका कहना है कि दस्तावेज में इसके लिए एक वॉटरटाइट फ्रेमवर्क अभी भी गायब है.

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'सख्त नियम, लेकिन कारावास कोई रास्ता नहीं'

जबकि विशेषज्ञ सख्त नियमों की आवश्यकता पर सहमत हैं, प्रोफेसर मिश्रा कहते हैं, वे अधिक कारावास की पैरवी नहीं कर रहे हैं.

वे कहते हैं, ''बहस कारावास बनाम जुर्माने के बारे में नहीं होनी चाहिए.''

"एक पेशेंट संगठन के प्रतिनिधि के रूप में, हम देश में नकली दवाओं या कम गुणवत्ता वाली दवाओं का शिकार बनने वाले रोगियों को अपराधियों द्वारा भारी मुआवजा देकर निवारक कार्रवाई में अधिक रुचि रखते हैं."
प्रो. बेजोन कुमार मिश्रा, पेशेंट सेफ्टी एंड एक्सेस इनिशिएटिव ऑफ इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक

श्रीवास्तव यह भी कहते हैं कि भारत में मौजूदा दवा नियमों से जुड़े कई मुद्दे हैं, जिन्हें संबोधित करने की आवश्यकता है लेकिन यह बिल उन कमियों को दूर करने में मदद नहीं कर रहा है.

इसके लिए विशेषज्ञों की नजर संशोधित द न्यू ड्रग्स, मेडिकल डिवाइसेस एण्ड कॉस्मेटिक्स बिल, 2023 पर है, जिसे पिछले साल पेश किया गया था, लेकिन अभी तक कैबिनेट की मंजूरी नहीं मिली है.

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