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जनहित में जारी | बोर्ड रिजल्ट और बच्चों के दिमाग का प्रेशर कुकर

बोर्ड एग्जाम के रिजल्ट कितना मायने रखते हैं?

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सेवा में,

बच्चे, बूढ़े और जवान

जो हैं एग्जाम रिजल्ट से परेशान

भारत देश महान

विषय: एजुकेशन सिस्टम या एजुकेशन सिस्टर्न

माननीय स्टूडेंट्स, पैरेंट्स और उनके टीचर्स

दोनों कान जोड़ कर प्रणाम करता हूं!

अपने, आपके नहीं.

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जैसा की आप जानते हैं कि मई और जून के महीनों में बोर्ड के रिजल्ट के चलते स्टूडेंट्स का प्रेशर कुकर बन जाता है और हमारा एजुकेशन सिस्टम उस एग्जाम रिजल्ट के प्रेशर कुकर में तब तक सीटियां देता रहता है, जब तक स्टूडेंट का दिमाग गल न जाए. इस एनुअल टॉर्चर का दर्द लगभग हर पढ़ा लिखा इंसान जानता है, लेकिन हमारा एजुकेशन सिस्टम सुधारने को तैयार नहीं.

जैसे ही किसी स्टूडेंट का रिजल्ट आता है, उसे पढ़े लिखे गवारों के डायलॉग सुनने को मिलते हैं.

पढ़ लो वरना भीख मांगोगे’’

“ इतने मार्क्स में किसी कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलेगा”

“मैं जब तुम्हारी क्लास में था तो फर्स्ट आता था’’

वगैरह वगैरह एंड मोर बीएस. हमारे बेचारे स्टूडेंट्स इन सभी डायलॉग के आन्सर तो देते हैं, लेकिन अपने ही मन में, फॉर एग्जाम्पल:

“चाहे जितना पढ़ लूं, रिजर्व कैटेगरी में तो आपका बच्चा नाचेगा’’

“कॉलेज जाने पर भी यही बोलोगे, कि इतने मार्क्स में कहीं नौकरी नहीं मिलेगी”

“जब तुम हमारी क्लास में थे, तब भी अद्भुत घोंचू थे और आज भी हो’’

लेकिन ये सारी बातें स्टूडेंट मन में दबा के रख लेता है और उसका ब्रेन प्रेशर बढ़ता रहता है.

कुछ तो इस प्रेशर को शरीर के दरवाजों से रिलीज कर देते हैं, लेकिन कुछ बेचारे स्टूडेंट्स इस प्रेशर का शिकार बनके टूट जाते हैं.

उस सभी स्टूडेंट्स को बस इतना कहना चाहूंगा कि दुनिया में हर इंसान को उसका ही काम सबसे जरूरी लगता है, टीचर को लगता है कि उसके सब्जेक्ट, उसकी पढ़ाई में ही सब कुछ है. अगर दिन रात पढ़ के स्टूडेंट लौंकी टिंडे जैसा हो जाए, लेकिन फुल मार्क्स लाए तो टीचर की pseudo आत्मा को शांति मिल जाती है. फिर बेशक स्टूडेंट बाकी जिंदगी लौंकी, टिंडे जैसा बन के गुजारे.

मां-बाप को यही डर लगता है कि उनका बच्चा उनसे आगे निकले, अरे बच्चे क्या माइलेज चेक करने के लिए पैदा किए थे. क्या कि डेढ़ किला दिमाग में कितना आगे तक जाएगा. इससे अच्छा रॉकेट पैदा कर लेते.

Last but not the least lets talk about the padosi beast, ये वो रिश्तेदार/पड़ोसी होते हैं, जिन्हें लगता है कि अगर कोई स्टूडेंट खुश दिख जाए, हंसता खेलता दिख जाए तो वो स्टूडेंट पक्का अावारा, डफर, अय्याश या बर्बाद है. ये शिकायती टट्टू, स्टूडेंट की खुशी के दुश्मन होते हैं और अक्सर आग लगाने, कंप्लेंट या कम्पेरिजन में इन्हें यूनिवर्सिटी ऑफ धूर्तक्षेत्र से पीएचडी मिली होती है.

मेरे देशभर के स्टूडेंट्स के मां बाप, टीचर्स और पड़ोसी, 10वीं या 12वीं के रिजल्ट्स पर उतना ही जोर डालिए जितना वो लो क्वॉलिटी पेपर वाला सर्टिफिकेट झेल पाएं. सर्टिफिकेट को लैमिनेट करवा सकते हैं, स्टूडेंट्स को नहीं.

हमारे देश के स्टूडेंट्स के दिमाग की क्वॉलिटी इन बोर्ड रिजल्ट्स से काफी ज्यादा इंपोर्टेंट है. उनकी जिंदगी को अपने अरमानों का शिकार प्लीज मत बनाइए. आखिरी बात स्टूडेंट्स के लिए, थिंग्स टू रिमेंबर, एग्जाम है, हर साल आएगा, कोई कुंभ का मेला नहीं कि 12 साल बाद आएगा, इस बार नहीं तो अगली बार सही.

खुश रहना ज्यादा जरूरी है, जिसको 99% मार्क्स चाहिए वो खुद एग्जाम दे ले, फिर रिजल्ट के साथ बात करने आएं.

आपका 7 साल में पास होने वाला देस्त
अनंत

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