सेवा में,
प्रसून जी जोशी ले जी,
कुर्सीपुरुष उर्फ मुखिया,
सेंसरी बोर्ड उर्फ सीबीएफसी
मेरे सपनों का कहर,
मुंबई
विषयः सीबीएफसी हो या सीबीएससी
माननीय प्रसून जी जोशी वेरी ले जी,
दोनों कान में से कलम निकाल के प्रणाम और काली स्याही से सर पर टीका लगा के सलाम!
ये टीका जरूरी है, क्योंकि मुझे लगता है कि आपको किसी की बुरी नजर लग गई.
मेरी तो ये समझ में नहीं आ रहा कि आपको फिल्मों के सेंसर बोर्ड का चेयरमैन बनने पर बधाई दूं या दुहाई, अच्छे खासे कवि हैं आप, अच्छी नौकरी थी, पैसों की भी कोई दिक्कत नहीं है, तो फिर ये सेंसर बोर्ड नाम की कुल्हाड़ी पे आपने अपना पैर क्यों मारा? कलम की जगह बिना धार वाली कैंची क्यों पकड़ ली?
खैर, आपको जो बनना था, वो तो बन गए, लेकिन ताज्जुब वाली बात ये है कि ये सेंसरी बोर्ड का मुखिया बनते ही आप भी उस कुर्सी के पूर्वजों की तरह हो गए.
आपसे पहले जो जितने सारे चेयरमैन बने, उनमें से या तो कोई सुनता नहीं था, या देखता नहीं था या बोलता नहीं था. हम बड़ी मुश्किल से बंदर से इंसान बने और सेंसरी बोर्ड हमें वापस बंदरों की तरफ ढकेल रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं चाहते कि जैसे स्टूडेंट्स बोर्ड एग्जाम को दिमाग में रख के तैयारी करते हैं, फिल्म बनाने वाले भी सेंसरी बोर्ड के सिलेबस के हिसाब से फिल्में बनाएं?
वैसे देखा जाए तो ये कोई बुरी बात नहीं होगी. आपके सेंसरी बोर्ड को सिर्फ शिक्षा बोर्ड के नियम अपने हिसाब से थोड़े बदलने होंगे, अगर आप चाहे तो इसमें मैं आपकी मदद भी कर सकता हूं. उदाहरण के तौर पर:
1. फिल्म बनाने वाले एक साल में एक ही फिल्म पास करवा सकते हैं. अगर पहली बारी में फिल्म पास नहीं हुई, तो दो महीने बाद फिर से फिल्म रेटेस्ट या कंपार्टमेंट एग्जामिनेशन होगा.
हर प्रॉड्यूसर-डायरेक्टर-एक्टर को लगातार दो ही फ्लॉप की अनुमति होगी. लगातार तीन बार फ्लॉप फिल्म बनाई तो उसे पहले एमएमएस फिल्म, फिर डिस्ट्रिक्ट लेवल फिल्म और फिर स्टेट लेवल की फिल्में बना के दिखानी पड़ेगी.
इस प्रक्रिया से साफ पता लग जाएगा कि कुछ लोग फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे भी हैं जो एमएमएस भी बनाने के काबिल नहीं है और 200 करोड़ की फिल्में बनाके पब्लिक पे थोप देते हैं.
2. फिल्में भी सब्जेक्ट उर्फ विषय के हिसाब से बनेगी, जैसे हिस्ट्री, ज्योग्रफी, पॉलिटिकल साइंस, संस्कृत वगैरा, वगैरा. इसमें साजिद खान की हिम्मतवाला और हिमेश की फिल्में वगैरा वगैरा कैटगरी भी आएंगी.
कम रोशनी और कम बजट की फिल्में चाहे जितनी भी बेकार हो, आर्ट फिल्म्स की कैटगरी में आएगी और टैक्स फ्री होंगी.
3. अगर फिल्म इंडस्ट्री का कोई भी जीव-जंतु फिल्मों से ज्यादा न्यूज चैनल की बहस में दिखाई देने लगे और पॉलिटिक्स में जबरदस्ती के फंडे देने लगे, तो उसकी कैंची जैसी जुबान का सही उपयोग करने के लिए उसे सेंसरी बोर्ड में शामिल कर लिया जाएगा.
4. सेंसरी बोर्ड के सामने पेश होने वाली फिल्मों का इम्तेहान 100 नंबर का होगा.
पास होने के लिए 40 नंबर जरूरी है. इसमें से 30 नंबर संगीत के होंगे, 30 नंबर एक्टर्स के और 40 नंबर उस समय की सरकार के होंगे. अगर सच्चे हालात दिखाने की कोशिश की तो 50 नंबर काट लिए जाएंगे, सेंसरी बोर्ड की कैंची चलेगी और पुतले भी जलाए जाएंगे.
फिल्म की कहानी में सर पैर न हो ये मंजूर है, लेकिन किसी भी ऐरे-गैरे की इज्जत खराब नहीं होनी चाहिए.
5. फिल्मों में भी रिजर्वेशन के लिए व्यवस्था होगी
फिल्म स्टार्स और बड़ी-बड़ी हस्तियों के बच्चों को पिछड़े एक्टर्स या पिछड़े कलाकार की कैटगरी में रखा जाएगा. इन फिल्मी बच्चों के ऊपर कोई फ्लॉप लिमिट नहीं होगी और दर्शकों के लिए इंश्योरेंस मुफ्त होगी.
अगर एक फिल्म में दो या दो से ज्यादा पिछड़े कलाकार हैं, तो जनता की दिमागी सेफ्टी के लिए ऐसी फिल्म की डीवीडी को कैदियों को सुधारने के लिए दिखाया जाएगा. सुरक्षाबल जनता को काबू में रखने के लिए ऐसी फिल्मों के पोस्टर अपनी गाड़ियों के आगे भी बांध सकते हैं, पत्थर तो क्या मक्खी भी नहीं टकराएंगी!
प्रसून जी जोशी ले जी, सेंसरी बोर्ड को शक्तिशाली बनाने के लिए ये था मेरा पंचशील प्रस्ताव. आशा जी करता हूं कि ये पिछले पंचशील प्रस्ताव से ज्यादा अरसरदार होंगे.
आपसे एकतरफा बात करके मुझे आपकी लिखी हुई कुछ पंक्तियां याद आ गई, कान खोल के गौर कीजिएगाः
“अब के सेंसर ऐसे भड़के,
रह जाए दंग तेरी पिक्चर से,
पद्मावती या 50 शेड्स ऑफ ग्रे,
सब से बरसें जरा...
रूट कल्चर की, घटा सियासत की
रूट कल्चर की, घटा सियासत की
सेंसर बन के बरसे”
आपका अंधा भक्त,
अनंत
पी.एस- जनता कह रही है कि पद्मावती फिल्म देखने के बाद पूरे सेंसरी बोर्ड के मुंह में मानो दही जम गया है. मैं नहीं मानता, फटे दूध में दही कभी नहीं जमता.
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