प्रेम, प्यार या मोहब्बत कह लें, इसे इश्क कहें या दीवानगी. कहानीकारों की कहानियों में प्रेम, कवियों की कल्पनाओं में प्रेम. रुपहला पर्दा हो, रंगमंच हो या असल जिंदगी, हर तरफ छाया है प्रेम. कालिदास हों या कबीर. गुप्त, निराला, दिनकर हों या दुष्यंत, प्रेम के ढाई आखर का मतलब समझाकर न जाने कितने ही अमर हो गए.
पर क्या आपने कभी उन रचनाओं के बारे में सोचा है, जो बेहद छोटी, पर मारक हैं. कुछ चुटीली हैं, तो कुछ बेहद गंभीर. प्रेम को लेकर गढ़े गए, पर किताब के पन्नों में छपने की बजाए ज्यादातर ऑटो-रिक्शा में स्टिकर के तौर पर चिपक गए. शेर की शक्ल में लिखी इन लाइनों से बायलाइन एकदम गायब!
जरा देखिए, कहीं आते-जाते ये 'ऑटो छाप' शेर आपने पहले भी कभी देखे हैं? और हां, अगर किसी शेर का मतलब आप न निकाल पा रहे हों, तो नीचे उसकी व्याख्या भी दी गई है, लेकिन चकल्लस के अंदाज में...
प्रस्तुत पद्यांश में ये साफ नहीं है कि प्यार की गाड़ी चलते ही एक्सीडेंट का शिकार हो गई या मुकाम तक पहुंचने से पहले कोई हसीन हादसा हो गया. चाहे जो भी हो, मामला गंभीर मालूम पड़ता है.
मतलब आशिक प्रेम की नदी को तटस्थ भाव से निहारता मालूम पड़ रहा है. हालांकि फर्स्ट ईयर में ही उसे ये अंदाजा हो गया है कि आगे के क्लासों में ‘आग का दरिया’ मिलेगा, जिसमें उसे डूबकर ही जाना होगा.
कोई रईस प्रेमी मालूम पड़ता है, तभी तो किसी को चुनने की हिमाकत कर रहा है. वरना यहां चुनने का मौका कितनों को नसीब हुआ है?
इन लाइनों में छायावाद का ‘निराला’ असर साफ देखा जा सकता है. रचनाकर प्रकृति से मनोनुकूल उपमा चुनकर अपने दिल को तसल्ली दे रहा है.
शायर घुमा-फिराकर बातें करने की बजाए सीधे-सीधे मुद्दे पर आता दिख रहा है. हालांकि गुस्ताखी करने की इजाजत मांगने से पहले वह नैसर्गिक वजह की आड़ ले रहा है.
अपने सनम की खातिर मंदिर में जाकर खुदा से फरियाद करने का खयाल अच्छा है. ‘सर्वधर्म समभाव’ का अन्यतम उदाहरण! सच है, ‘ईश्वर एक है’.
मोहब्बत की गाड़ी अब तक तो रफ्तार में भाग रही थी, लेकिन अब प्रेमी रेड सिग्नल की आशंका से घबराया हुआ है. आशिक मोहब्बत की रेस को जंग की तरह नहीं ले रहा है. ये भी कह सकते हैं कि बेबसी में भी वह शराफत के मोह से छूट नहीं पाया है.
मतलब उसने पार्टनर को ये चेतावनी देने में देर कर दी, ‘हंस मत पगली प्यार हो जाएगा’. आखिरकार ‘दिल्लगी ने दी हवा, थोड़ा-सा धुआं उठा और...’
मतलब क्रिया के विपरीत अप्रत्याशित प्रतिक्रिया हुई. आशिक अब क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच तुलना करने बैठा है.
मतलब दर्शन केवल उपनिषदों में ही नहीं दबा पड़ा है. फिलॉसफी तो कण-कण में व्याप्त है...प्रेम की तरह.
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