छठ के मौके पर बिहार-झारखंड और पूर्वांचल की बहुत बड़ी आबादी भावनाओं की लहर पर सवार रहती है. दूसरी ओर राजनीति के माहिर खिलाड़ी इस आबादी की भावनाओं को भुनाने की ताक में लग जाते हैं. आखिरकार हर चुनाव में फैसला वोटों से ही होता है, इसलिए छठ की तैयारी में जुटे लोग श्रद्धालु भी होते हैं और राजनीति के चश्मे से वोटर भी.
सियासतदानों को छठ व्रतियों को लुभाने का मौका भी आसानी से मिल जाता है. जहां-जहां कोई नदी-तालाब नहीं होते, वहां छोटे-मोटे जलाशय बनावाए जाते हैं. जिन नदियों पर घाट नहीं होते, वहां घाट बनवाए जाते हैं. कुछ घाटों की मरम्मत कराई जाती है.
सबसे बड़ी बात ये कि पूजा के दिनों में घाटों पर भीड़ जुटने से पहले ही बड़े-बड़े बैनर लगा दिए जाते हैं. घाट किसने बनवाया, किसने सजाया... जिससे ये तो पता चले कि वो कौन है, जो उनकी भावनाएं समझता है.
सूरज देवता और छठ मैया के प्रति आदर दिखाते हुए कई नेता नाव या मोटरबोट पर सवार नजर आ जाते हैं. नावों पर भी बैनर जरूर होता है, जिससे निवेदक की पहचान जाहिर हो जाए. मजे की बात ये कि इस तरह की राजनीति थोड़ी ढकी होती है, थोड़ी खुली.
दिल्ली में वोटरों का हिसाब
अगर दिल्ली की बात करें, तो करीब 40 लाख ऐसे वोटर हैं, जो बिहार-झारखंड या पूर्वांचल से ताल्लुक रखते हैं. जाहिर है, ये चुनावों में किसी प्रत्याशी को जिताने-हराने में बड़ा रोल अदा करते हैं. इतनी बड़ी आबादी को लुभाने का लोभ भला कौन छोड़ सकता है?
दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने 2017-18 के बजट में राजधानी में छठ घाटों को बनाने के लिए विशेष प्रावधान किए थे. सरकार के मुताबिक, इस साल छठ पूजा के लिए यमुना नदी के किनारे 565 घाटों को तैयार किया जा रहा है. इन 565 घाटों में से 50 पक्के घाट बनाए जा रहे हैं.
पहले आरोप-प्रत्यारोप, फिर गीत-संगीत
वैसे राजनीति और आरोप-प्रत्यारोप का खेल इन बातों पर भी चलता कि कहां-कहां घाट नहीं बनवाए गए, कहां-कहां सफाई नहीं कराई गई. सिर्फ जुबानी जमा-खर्च से बात नहीं बनती, तो पैसे भी खर्च किए जाते हैं.
घाटों पर शाम से लेकर सुबह तक कई घाटों पर स्टेज प्रोग्राम चलता है. कई लोकगायक भक्ति के गीत गाते हैं. कई जगह डीजे का भी इंतजाम होता है. ऐसे आयोजन अक्सर किसी स्थानीय नेता के सौजन्य से कराए जाते हैं.
कुल मिलाकर, घाट से लेकर गीत-संगीत तक, इंतजाम ऐसा होता है, जिसकी याद अगले चुनाव तक लोगों के जेहन में बरकरार रहे.
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