मंदाकिनी, झरने का पानी... और दुनिया दीवानी क्‍यों हो गई?

‘राम तेरी गंगा मैली’ के एक सीन ने मंदाकिनी को देशभर में चर्चा में ला दिया था. 

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‘’तू जिसकी खोज में आया है

वो जिसने तुझको बुलाया है

पर्वत के नीचे है, झरने के पीछे है

आ जा रे, आ जा रे....’’

राम तेरी गंगा मैली फिल्‍म के तमाम पोस्‍टर और बड़े-बड़े कटआउट तब लता मंगेशकर का गाया यही गाना अपने अंदाज में गुनगुनाया करते. सिनेमाहॉल की टिकट वाली खिड़की पर लगी लंबी-लंबी लाइनें उन्‍मत्त भीड़ के बीच ही कहीं खो जाती. लाइन तब नजर आती, जब सारे टिकट बुक हो चुके होते थे.

टिकट पाने की कोशिश में नाकाम लोग मन मारकर वैसे लौटते, जैसे उन्‍होंने बुद्ध का दर्शन जान लिया हो कि समस्‍त संसार दुखमय है.

दाद देनी होगी द ग्रेट शो मैन राजकपूर की. उन्‍हें भली-भांति अंदाजा था कि भीड़ जिसकी खोज में सिनेमाहॉल तक आने वाली है, वो और कहीं नहीं, केवल ‘पर्वत के नीचे है, झरने के पीछे है.’ इसके बावजूद उन्‍होंने फिल्‍म में एक से बढ़कर एक सुपरहिट गाने डाले. कसी हुई स्क्रिप्‍ट के साथ एक सुंदर कहानी पेश की.

साथ ही 1985 में ही ये बता दिया कि अब या तब, गंगा का उद्धार करने की कसमें खाने वाले ही गंगा को मैली करने वालों से चोरी-चुपके हाथ मिलाते रहेंगे.

झरने वाले गाने में खास क्‍या है?

3 मिनट 50 सेकेंड का वो गाना कई मायने में एकदम अनोखा है. पहली बात तो यह कि वो बॉलीवुड के उन चंद गानों में शुमार है, जिसके ज्‍यादातर हिस्‍से को इंसानों ने अपने कानों से नहीं, आंखों से सुना. जब फिल्‍म टीवी पर आ रही होती है, तो आज भी कई इस गाने को म्‍यूट कर देते हैं.

व्‍याकरण और साहित्‍य रचने वालों ने अनिमेष, निर्निमेष और अपलक जैसे शब्‍दों की रचना मानो झरने में मंदाकिनी के नहाने वाले सीन के लिए ही कर रखी हो.

राजकपूर ने जैसे कलयुग के लोगों को इस बात का एहसास कराने के लिए ही मंदाकिनी को झरने के नीचे भेजा हो, जिससे ये अंदाजा लग सके कि पौराणिक पात्र विश्‍वामित्र मेनका पर कैसे मोहित हुए होंगे.

क्‍या राजकपूर ने कोई हद पार की?

कालिदास ने मेघदूतम्, अभिज्ञान शाकुंतलम्, कुमार संभवम् जैसी अपनी रचनाओं में नारी की देह का जितना जीवंत वर्णन किया है, फिल्‍म की गंगा तो उसकी एक बेहद हल्‍की-सी झलक मात्र है. महाकवि की रचना संस्‍कृत में है, तो बात ढकी है. हिंदी में उसका मतलब बताया जाए, तो उस खुलेपन पर आज की तारीख में यकीन करना ही मुश्किल है.

रीतिकाल के कवियों ने श्रृंगार रस में सनी कविताओं के जरिए जितना सौंदर्य परोसा, ये सीन तो उसके आगे कुछ भी नहीं है. बस यूं समझिए कि अगर उन कवियों ने इस गाने को फिल्‍माया होता, तो न तो कोहरे की सफेद चादर होती, न झरने में एक बूंद पानी होता.

कोणार्क और खजुराहो के मंदिरों में जिस नैसर्गिक प्रेम को कठोर पत्‍थरों पर उकेरा गया, राजकपूर ने उसे सेंसर करने के बाद एक पत्‍थर में बस कुछ सेकेंड के लिए प्राण डालने की कोशिश भर की थी. उनकी ये कोशिश इतनी कामयाब हुई कि आज भी पहाड़ी इलाकों का हर झरना मंदाकिनी के नाम हो गया.

राजकपूर के जाने के बाद लोगों को गाने का मतलब समझ में आया. सेंसर बोर्ड को लेकर उनकी भविष्‍यवाणी और मुक्‍त‍ि का दर्शन भी. बॉलीवुड में वैसी गंगा दोबारा कभी किसी को नहीं मिली. रही बात जीवन के दर्शन की, तो स्‍वर्ग भी यहीं है, मोक्ष भी यहीं है. और धरती पर भोग के बिना मोक्ष किसने पाया है?

जरा गाने की शुरुआती लाइन देखिए:

‘’तुझे बुलाए ये मेरी बाहें,

न ऐसी गंगा कहीं मिलेगी...

मैं तेरा जीवन, मैं तेरी किस्‍मत

कि तुझको मुक्‍त‍ि यहीं मिलेगी’’

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