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जब मैं कश्‍मीर पहुंची, वो भी किसी मर्द के साथ के बिना: पार्ट1

बिना पर्याप्त जानकारी और बिना फोन के मुश्किल तो होगी ही..

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हां.. तो आप ट्रिप प्लान करते हैं. टिकट बुक करते हैं. रहने की व्यवस्था ढूंढते हैं. बंदोबस्त कर कहीं घूमने निकलते हैं. पर मैंने ऐसा कुछ नहीं किया. ऐसे भी मुझे हमेशा लगता रहा कि घूमना-ट्रैवेल करना ..’इज नॉट माय कप ऑफ टी' मतलब मेरे बस की बात नहीं. और ऐसे भी हमारे घर और आसपास का माहौल ये कहता है कि लड़कियां तो 'अच्छी जगह' घूमने शादी के बाद हनीमून पर ही जा सकती हैं. पति के साथ.

लेकिन मैंने अपनी जिंदगी के पहले ट्रिप में उत्तराखंड का लैंसडौन देखा था तो पर निकल आए मेरे. अच्छी रही थी वो पहली छोटी सी ट्रिप. इस बार जनवरी में अचानक ख्याल हो आया कश्मीर जाने का. पटना से दिल्ली आने के बाद हॉस्टल की एक दोस्त के साथ पढ़ाई के दौरान कश्मीर के बारे में बातें हुईं थी. बात खत्म हुई थी इसी बात पर कि कभी हो आएंगे जन्नत से नौकरी लगने के बाद.

घूमने के ख्याल से फोन घूमा दोस्त के पास. 1 सप्ताह बाद निकलने की बात हुई. 'प्लानिंग' नहीं की गई. घर पर जानकारी दी गई और ऑब्जेक्शन आना ही था कि कश्मीर क्यों, सिर्फ लड़कियां! जैसा कि आम लोगों का कश्मीर को लेकर परसेप्शन है- आतंक, खतरा, पाकिस्तान.. ऐसे में घरवालों की मनाहट लाजिमी है (बचपन से मेरे मन में भी कश्मीर को लेकर यही इमेज रही). थोड़ी सी जिद काम आई और मैंने घरवालों को विश्वास दिलाया कि मैं पूरे इंतजाम के साथ वहां जाऊंगी. हार मान ली उन्होंने.

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इसके बाद ना किसी से कुछ पूछा. ना ही उस 1 सप्ताह के समय में कश्मीर के बारे में एक भी बार गूगल किया कि कहां जाएंगे, क्या देखेंगे. छुट्टी ली, बैग पैक किया, पैसे रखे 1 दोस्त से पूछा जम्मू तक जाने वाली बस के बारे में और निकल गई दोस्त के साथ. दोस्त का दिमाग भी मेरे जैसा ही है इसलिये उसकी तरफ से भी किसी ‘प्लानिंग’ की अपेक्षा नहीं कि गई थी.

लोग कहीं जाने से पहले जानकारी लेते हैं, गूगल सर्च की मदद लेते हैं. मैंने कश्मीर से वापस लौटने के बाद वहां की उन जगहों के बारे में गूगल पर पढ़ा जहां-जहां से मैं गुजरी, जो मैंने देखा. फोन पोस्टपेड कराना था ये भी मुझे कश्मीर पहुंचकर पता चला जब मेरे फोन ने काम करना बंद कर दिया. (आप मुझे बेवकूफ कहने के लिए स्वतंत्र हैं!)

जन्नत में ‘टूरिस्ट ट्रैपिंग’

दिल्ली से खुली बस सुबह 5 बजे जम्मू लेकर पहुंची. वहां से श्रीनगर के लिए शेयरिंग गाड़ी की गई. और वहीं से 'टूरिस्ट ट्रैपिंग' की शिकार होने लगी मैं. कश्मीर में टूरिज्म के लिए ये आॅफ सीजन चल रहा था. गाड़ी वाले ने दोगुने पैसे मांगे.

वैसे इसमें आश्चर्य नहीं, हर टूरिस्ट स्पॉट पर आप आसान शिकार बन सकते हैं. महसूस हुआ कि यहां एक पर शक कर के दूसरे के पास मदद की आस से जाने पर आपको रियायती दर पर 'ठगा' जाएगा. जन्नत कहे जाने वाली जगह को लेकर मन में नेगेटिविटी आने लगी. पहली नजर में इस बात को लोगों ने पकड़ा कि 'कोई मर्द नहीं है साथ में?'

गाड़ी में 3 लड़के भी थे साथ में. जैसे-जैसे घाटी में सूरज ऊपर चढ़ रहा था खूबसूरती के साथ-साथ ठंड भी बढ़ती जा रही थी. खिड़की से धूप तीखी आंखों में लग रही थी. दोस्त ने मुझसे कहा-"यार कोई शॉल निकाल कर लगा दें खिड़की पर. आंखों में तेज धूप लग रही."

आगे बैठे लड़के ने सुना और अपने गले में लिपटी सफेद शॉल बिना कुछ बोले पीछे बढ़ा दी. कश्मीर की सर्दी में एक नरम अहसास उस वक्त हुआ. फैसल नाम है उसका. ग्रेटर कश्मीर अखबार में इंटर्नशिप कर रहा है.

जम्मू से श्रीनगर जाने के रास्ते में आप कश्मीर की खूबसूरती देखने लग जाते हैं. और साथ ही जब अलग-अलग गांवों से होकर गाड़ी आगे बढ़ती है तो आपको चप्पे-चप्पे पर आर्मी जवान दिखने लग जाते हैं.

सुरक्षा में खड़े उन जवानों को देखकर मुझे समझ नहीं आया कि मुझे इस जगह से डरना चाहिए या महफूज महसूस करना चाहिए. सड़क किनारे आधे बने, डैमेज मकान के छत पर राइफल लिए चौकन्ने जवान. उन्हीं मकान की दीवारों पर बुरहान वानी, जाकिर मूसा जैसे आतंकियों का नाम भी स्प्रे पेंट से लिखा हुआ दिखेगा आपको. और उसके पास से बेफिक्री से गुजरती फिरन पहने औरत, मर्द, स्कूल जाते बच्चे, भेड़ और सूखे चिनारों के बीच बने घर भी. सड़कों को पीती हरी चेनाब नदी भी दिखी.

मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार दूर से बर्फ से ढके पहाड़ देखे और सोचने लगी कि अब मैं उसके बिल्कुल पास हूं.

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गाड़ी में साथ बैठे लड़कों से बातचीत शुरू हुई. कश्मीर की आजादी पर बातचीत ने डिबेट का रुप ले लिया. बात खत्म हुई तल्खी के साथ. कानून, सेना की मौजूजगी को लेकर घिसी-पिटी बातें ही हुई. तबतक हम श्रीनगर पहुंच चुके थे.

ऑफ सीजन में मेरे जैसे नए टूरिस्ट निशाने पर थे. झेलम नदी में खड़ी हाऊसबोट की लग्जरी दिखाकर काफी पैसे मांगे गए. हाऊसबोट के सामने श्री प्रताप सिंह म्यूजियम था और इलाके का नाम लाल मंडी. मैं भी खूबसूरती देख भावनाओं में बह गई. 18 घंटे के सफर बाद और 2 घंटे इंतजार के बाद भी हाऊसबोट में न तो बिजली, न नहाने को गर्म पानी मिला तो पेशेंस जवाब दे गया. हाऊसबोट वाले भाईसाहब सिर्फ बातों में उलझाने में व्यस्त थे. बिजली की समस्या के बारे में बताकर हमें और इंतजार करने को बोल रहे थे. उस समय फोन और इंटरनेट की जबरदस्त जरूरत महसूस हुई ताकि किसी अच्छे होटल के बारे में पता किया जा सके!

थककर बैग उठाया और पहुंची पास के ही ऐतिहासिक लाल चौक पर.

लालचौक और घंटाघर कश्मीर की सियासी गतिविधियों का पर्याय माना जाता है. सभी प्रमुख राजनीतिक रैलियां, मार्च और जलसे इसी जगह घंटाघर के पास होते रहे हैं.

आतंकी भी यहीं गला रेतने की धमकी देते हैं.

वहां जो पहला होटल मिला उसी में ठहरना हुआ. व्यवस्था ठीक थी सिर्फ वाई-फाई नहीं था. लेकिन थकान इतनी थी कि हिम्मत नहीं पड़ी लगेज लेकर आगे और होटल ढूंढा जाए. पड़ाव वहीं डाला गया.

इस कड़ी में आगे पढ़‍िए

श्रीनगर की शांत-सन्नाटे वाली शाम और ‘माहौल का खौफ’

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