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जब मैं कश्‍मीर पहुंची, वो भी किसी मर्द के साथ के बिना: पार्ट2

बिना पर्याप्त जानकारी और बिना फोन के मुश्किल तो होगी ही..

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श्रीनगर का लालचौक कॉरपोरेट-बिजनेस हब है. होटल के कमरे की बालकनी से सामने घंटाघर दिखता है. दिनभर चहल-पहल और जवानों की गश्त रहती है. शाम 6:30 बजे मार्केट बंद होने लगती है..हां गश्त चालू रहती है.

पता चला गर्मियों में वहां ऐसा नहीं होता पर ठंड में शांति छा जाती है. फिर भी 6 बजे शहर में इतना सन्नाटा???!!

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सन्नाटे का शोर

कश्मीर का 'शोर' बहुत सुनते हैं हमसब. लेकिन वहां के सन्नाटे में बहुत शोर है.

सर्दियों में वहां हरियाली नहीं होती. सूखे दरख्त होते हैं. ठंडा-शुष्क, रूखा सा मौसम. मुझे पहली शाम बहुत मनहूस सी लगी. लगा, यहां लोग मनी माइंडेड हैं. खाने से लेकर, होटल हर जगह लोगों को ज्यादा पैसे चाहिए. घरवालों से बात करने का मन हुआ पर फोन बिना नेटवर्क का डब्बा बना पड़ा था.

बालकनी में निकली. शाम 7 बजकर कुछ मिनट पर लाल चौक की भीड़ खत्म हो चुकी थी. 2-4 गाड़ियां ही गुजरती दिख रही थी. अब ऐसे में मैं ये सोचूं कि कोई ‘शगुफ्ता’ या ‘श्रेया’ स्कूटी से सामने सड़क पर गुजरती क्यों नहीं दिख रही..तो!

लेकिन पता चला यहां शाम 7 के बाद कोई ‘शगुफ्ता’ या ‘श्रेया’ अकेली बाहर नहीं दिखती. खैर.. 8:53 पर फिर बालकनी में निकली. सामने घंटाघर का चक्कर काटते 1 ही साइकिल पर 2 बच्चे दिखे. 13-14 साल की उम्र. कहीं से वापस लौट रहे थे. उन्हें देख वो सन्नाटा मुझसे थोड़ा दूर छिटका.

जवानों की गश्त अब भी चालू थी. सामने दीवार पर काले रंग से लिखा 'इंडियंस गो बैक'. पूरी रात बाकी थी. और करने को कुछ भी नहीं.

एक मनहूस शाम बीतने के बाद श्रीनगर में अगली सुबह शानदार रही. लोकल मार्केट में शॉपिंग की गई. ड्राई फ्रूट्स, कश्मीरी हैंडिक्राफ्टस, फिक्स रेट पर मिलने वाले फिरन.

उस दिन अच्छे लोग मिले. प्यार दिखाया. कश्मीरी कल्चर से लबरेज दुकानदार. लिप्टन चाय पिलाई. कश्मीर का कहवा तो मशहूर है ही लेकिन इसके अलावा वहां लिप्टन चाय, नून चाय ज्यादा पीते हैं लोग. अगली बार घर पर आने और ठहरने का न्योता देने वाले लोग.

मैंने ‘हार्निफ’ बर्फी चखी. उसका टेस्ट बिल्कुल हमारे बिहार में मिलने वाले ‘पेड़े’ की तरह होता है. कश्मीरी काजल आंखों के लिए अच्छी होती है! वो भी ली गई.

लाल चौक के नजदीक हनुमान मंदिर के पास फलों-सब्जियों की मंडी लगती है. रोड के उस तरफ सेपरेटिस्ट लीडर यासीन मलिक का रेसिडेंशियल इलाका मैसूमा है. सेंसिटिव माना जाता है.
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ये शाम सुंदर थी. आगे डल पीछे पहाड़, उसके ऊपर चमकता बर्फ. बीच में निशात गार्डन. झील के उस पार डूबता सूरज. हरियाली न होने के बावजूद इस नजारे में सम्मोहन था. इतनी शांति कि जिसे भूल चुके थे वो भी याद हो आए!

शिकारे से डल की सैर. आह! वैसे..पहले दिन हर जगह झटके खाने के बाद मैं संभल गयी थी. हर जगह मोल-भाव की. 'टूरिस्ट ट्रैपिंग' से बची. शिकारे वाले ने डल के बीच में जहां-जहां भी 'अच्छा सामान' लेने के लिए रोका मैंने वहां से कुछ भी नहीं लिया.(इस चालाकी के लिए खुद को शाबाशी देती हूं मैं.)

डल झील, चश्मा शाही, निशात गार्डन घूमाने के बाद ऑटो ड्राइवर ने बोला- मैडम अब लौट चलिए.

मैं- भइया क्यों..शालीमार बाग तो घूमा ही नहीं.

ऑटो ड्राइवर- अरे..वो भी निशात जैसा ही है.

(अंदर ही अंदर मुझे गुस्सा आया कि पैसे पूरे लेने के बाद भी ये घुमाने में कंजूसी क्यों कर रहे!)

मैडम टेम्प्रेचर माईनस में है. माहौल भी सही नहीं है.

ये सुन मुझे भी होटल के रिसेप्शन पर बैठने वाले स्टाफ और अंकल की बात याद आई- "माहौल सही नहीं है. 26 जनवरी नजदीक है..जल्दी लौट आना!"

घूमने निकली लड़की बिना शालीमार घूमे जल्दी होटल लौट आई. जल्दी लौटने के बाद भी रिसेप्शन पर बैठे होटल स्टाफ की भौहें तनी हुई थी.

उन्होंने कह ही दिया "यहां लड़कियां 6:30 के बाद नहीं निकलती.."

फिर वही माहौल की बात. माहौल की बात. माहौल की बात. लेकिन मैंने ससम्मान उनकी बात सुनी, घर पर फोन करने के लिए उनका मोबाइल फोन यूज किया और कमरे में चली आई. राहत रही.

पता चला रात में लाल चौक के 'सो काॅल्ड होटल' में ताले लग जाते हैं. शायद ये हाई-फाई होटल नहीं था. पहली बार सुना और देखा भी होटल में ताले लगते.

आगे इस कड़ी में पढ़िए- गुलमर्ग से श्रीनगर लौटने में कैसे की बेकरी वाले ने मदद

इस ट्रैवल डायरी का पहला पार्ट पढ़ें-

जब मैं कश्‍मीर पहुंची, वो भी किसी मर्द के साथ के बिना: पार्ट1

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