ADVERTISEMENTREMOVE AD

स्टेट बोर्ड के छात्रों के साथ DU एडमिशन में ऐसी नाइंसाफी क्यों?

भारत में कॉलेज में एडमिशन की प्रणाली फिलहाल दोषपूर्ण है

Published
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा

CBSE और कुछ राज्यों के बोर्ड के पैमानों में बेहद असमानता है. इस हद तक कि अंडरग्रेजुएट की पढ़ाई के लिए कॉलेज में एडमिशन लेना मुश्किल है. यहां तक कि कुछ राज्यों के टॉपर भी दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थानों के टॉप कॉलेज में एडमिशन नहीं ले सकते. क्योंकि इन कॉलेजों में एडमिशन के लिए बारहवीं कक्षा के मार्क्स को ही ध्यान में रखा जाता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
उदाहरण के लिए 2019 में असम हायर सेकेंडरी बोर्ड के टॉपर को 500 में 478, यानी 95.6% मार्क्स आए. इसकी तुलना 2018 के कट ऑफ मार्क्स से की जाए, तो टॉपर को दिल्ली विश्वविद्यालयके श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स (SRCC) में दूसरे कट ऑफ के बाद भी इकनॉमिक्स (98.25%) या बी.कॉम (97.375%) में दाखिला नहीं मिल सकता.

उन बोर्ड के छात्रों को कॉलेज एडमिशन में भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है, जहां CBSE या ISC बोर्ड की तरह नरमी से मार्क्स नहीं मिलते. जबकि इसमें छात्रों की कोई गलती नहीं होती.

CBSE में मार्क्स से छेड़छाड़ के कारण संतुलन और बिगड़ता है

2018 में उत्तर प्रदेश बोर्ड के टॉपर को 93.2% मार्क्स आए थे. इतने मार्क्स दिल्ली विश्वविद्यालय के टॉप कॉलेजों में एडमिशन के लिए पूरे नहीं थे. लेकिन ऐसा नहीं कि हर बोर्ड की यही कहानी है. कुछ राज्यों के बोर्ड में तो CBSE और ISC से भी ज्यादा मार्क्स मिलते हैं.

ये नाइंसाफी और बढ़ जाती है, जब केंद्र सरकार और CBSE के भरोसा देने के बावजूद नेशनल बोर्ड छात्रों के मार्क्स में अनुचित तरीके से असमानता बनाए रखता है और छात्र ठगे से रह जाते हैं. द क्विंट की पड़ताल में पहले भी ये बात सामने आ चुकी है.

तो कॉलेज एडमिशन की मौजूदा व्यवस्था में क्या-क्या समस्याएं हैं और क्या उन समस्याओं का क्या हल नजर आता है?

पहली नजर में अन्याय

सच्चाई ये है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में सभी बोर्ड के साथ “एक समान” व्यवहार किया जाता है. ये समानता वरदान बनने के बजाय अभिशाप बन जाती है. छात्रों को 12वीं क्लास में मिले मार्क्स के आधार पर एडमिशन मिलते हैं. फिर चाहे वो छात्र CBSE बोर्ड से पास किये हों, या राज्यों के बोर्ड से. क्योंकि बोर्ड के आधार पर कट ऑफ मार्क में बदलाव नहीं होते.

उदाहरण के लिए अक्सर तमिलनाडु बोर्ड के छात्रों को दिल्ली विश्वविद्यालय के टॉप कॉलेजों में आसानी से एडमिशन मिलता है. वजह है, मार्क्स देने में तमिलनाडु बोर्ड की उदारता.

2016 में SRCC के कुछ कोर्स में 75% से 80% सीट तमिलनाडु बोर्ड के छात्रों से भर गए थे.

आखिर ये कैसे मुमकिन हुआ? SRCC में इकनॉमिक्स का कट ऑफ 98.25% और बी. कॉम का कट ऑफ 98% था. लेकिन तमिलनाडु बोर्ड में भारी संख्या में छात्रों को 99% या उससे भी अधिक मार्क्स मिले. इसके कारण दिल्ली विश्वविद्यालय में भारी संख्या में उनका एडमिशन हुआ.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

मार्क्स में हेरफेर से हालात बदतर

अलग-अलग बोर्ड के मार्क्स में समानता नहीं है, लिहाजा एडमिशन की प्रक्रिया भी असंतुलित है. CBSE में मार्क्स से छेड़छाड़ के बाद ये असंतुलन और बढ़ जाता है.

2018 की तरह द क्विंट ने आंकड़ों के जरिये पड़ताल की, कि किस प्रकार 2019 में बारहवीं की परीक्षा में शामिल होने वाले छात्रों के मार्क्स के साथ CBSE ने छेड़छाड़ की. यहां पढ़िए वो स्टोरी

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर के2017 में किये गए ऐलान को देखते हुए हालात और बदतर हो जाते हैं. ऐलान किया गया थाकि CBSEऔर राज्य बोर्ड समेत 32 स्कूल शिक्षा बोर्ड में सहमति बनी है कि अच्छे स्कोर दिखानेके लिए अनुचित तरीके से छात्रों के मार्क्स बढ़ाने पर रोक लगाई जाए.

जिस काम को खुद HRD मंत्री ने “an illogical menace” कहा था, और जिसे रोकने की जरूरत पर जोर दिया था, उस काम को जारी रखकर CBSE उन राज्य बोर्ड के छात्रों के साथ नाइंसाफी कर रहा है, जो 2017 में बनी सहमति का हिस्सा थे और जिन्होंने नई नीति पर अमल करना शुरु कर दिया था.

CBSE में मार्क्स के साथ छेड़छाड़ और उससे पैदा होने वाली असमानता दूसरे बोर्ड को भी मार्क्स में छेड़छाड़ करने के लिए उकसाएंगे. इससे देशभर के बोर्ड में मार्किंग सिस्टम और गड़बड़ होगी, जिससे कॉलेज एडमिशन की प्रक्रिया और उलझेगी.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

परसेंटाइल आधार नहीं है

बोर्ड छात्रों के नतीजों का ऐलान परसेंटाइल में नहीं करते. नतीजा ये निकलता है कि एक बोर्ड के छात्र के मार्क्स की तुलना दूसरे बोर्ड के छात्र के मार्क्स के साथ की जाए, तो कुछ ऐसा ही होगा जैसे सेव की तुलना नारंगी के साथ की जा रही हो.

Rationalisation की प्रक्रिया में अलग-अलग बोर्ड में दिये गए मार्क्स को एक पैमाने पर लाया जाता है, ताकि तुलना करने में आसानी हो. लेकिन अंडरग्रैजुएट कोर्स में एडमिशन लेने वाले विश्वविद्यालयों को मार्क्स और परसेन्टाइल का आंकड़ा का उपलब्ध नहीं होता, लिहाजा मार्क्स का rationalisation नहीं हो पाता.

यही वजह है कि तमिलनाडु, CBSE और ISC जैसे ज्यादा मार्क्स देने वाले बोर्ड के छात्रों को महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और असम जैसे सख्ती से मार्क्स देने वाले बोर्ड की तुलना में बढ़त मिल जाती है.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

समाधान क्या हो?

आखिर इस समस्या का समाधान क्या है, जिससे अंडरग्रैजुएट कोर्स में एडमिशन की प्रक्रिया में असमानता दूर की जा सके?

परसेंटाइल आधार पर नतीजों का ऐलान करें

सबसे पहले कुछ हद तक समानता लाने के लिए बोर्ड परसेंटाइल आधार पर नतीजों का ऐलान करें. इससे छात्रों के मार्क्स या प्रतिशत मार्क्स के साथ तुलना करने में आसानी होगी.

किसी छात्र का परसेंटाइल मार्क्स कुल छात्रों का प्रतिशत बताता है, जिन्हें उसके बराबर या उससे कम मार्क्स हासिल हुए हैं. उदाहरण के लिए अगर किसी छात्र को 99 परसेंटाइल मार्क्स आता है, तो इसका मतलब है कि परीक्षा देने वालों में 99 फीसदी छात्रों को उसके बराबर या उससे कम मार्क्स मिले हैं.

2019 में असम के टॉपर का उदाहरण लेते हैं. उसका मार्क्स 95.6% था. उसका परसेंटाइल करीब 99 मार्क्स होगा. इससे एडमिशन के लिए उसके मार्क्स पहले की तुलना में ज्यादा तर्कसंगत होंगे.

ये तरीका मौजूदा प्रणाली से कहीं बेहतर है, लेकिन पूरी तरह सही भी नहीं है. क्योंकि अलग-अलग बोर्ड के परसेन्टाइल मार्क्स की तुलना करने में कई खामियां हैं. फिर भी ये तरीका काफी हद तक मौजूदा असमानता को दूर कर सकता है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

विश्वविद्यालयों में प्रवेश परीक्षा

समस्या का दूसरा समाधान है ज्यादा से ज्यादा विश्वविद्यालयों में किसी विषय में एडमिशन के लिए छात्रों के लिए प्रवेश परीक्षा का आयोजन. कई विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के कई कोर्सेज में प्रवेश परीक्षा होती है, लेकिन ज्यादातर जगहों पर अब भी एडमिशन के लिए बोर्ड के मार्क्स को आधार बनाया जाता है.

किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश परीक्षा असम बोर्ड के टॉपर और CBSE बोर्ड के टॉपर के लिए एक समान होगी. लिहाजा एडमिशन के लिए बोर्ड के मार्क्स में अन्तर से फैसला नहीं किया जाएगा. बल्कि प्रवेश परीक्षा में मिले मार्क्स उनके एडमिशन का आधार होंगे.

इस तरीके का दूसरा पहलू है कि प्रवेश परीक्षा के कारण न सिर्फ छात्रों की संख्या कई गुना बढ़ जाएगी, बल्कि ये एक थकाऊ प्रक्रिया होगी, जिसमें कॉलेज और यूनिवर्सिटी का भारी संसाधन खर्च होगा.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

केंद्र सरकार की ‘कोई छेड़छाड़ नहीं’ नीति सुनिश्चित करें

बोर्ड मार्क्स में परसेन्टाइल सिस्टम या प्रवेश परीक्षा लागू हो या न हो, लेकिन केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को एक कदम फौरन उठाना चाहिए. 2017 में जिस ‘कोई छेड़छाड़ नहीं’ नीति को लागू करने पर केंद्र सरकार और 32 स्कूल बोर्ड रजामंद हुए थे, उसे फौरन लागू करना चाहिए.

CBSE ने पिछले दो सालों में 2017 की सहमति को नजरंदाज किया है. इसकी वजह से सख्त मार्किंग करने वाले राज्य बोर्ड के छात्रों को अंडरग्रैजुएट कॉलेज में एडमिशन लेने में पक्षपात का सामना करना पड़ रहा है.

भारत में कॉलेज में एडमिशन की प्रणाली फिलहाल दोषपूर्ण है. जब तक इसे ठीक करने के लिए कारगर कदम नहीं उठाए जाएंगे, लाखों छात्रों को हर साल पक्षपात झेलना पड़ेगा. उनके एडमिशन पर उस बोर्ड का साया हावी रहेगा, जहां से उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की है.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
×
×