मदीहा शकील बचपन से ही जामिया तराना "दयार-ए-शौक मेरा, शहर-ए-आरज़ू मेरा" गुनगुनाती रही हैं. दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया (JMI) की 24 वर्षीय छात्रा ने क्विंट को बताया, “मेरे दादा और मेरे माता-पिता भी यहीं पढ़ते थे. जामिया एक इमोशन है, घर जैसा... लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है."
26 सितंबर को जामिया प्रॉक्टर ऑफिस ने एक नोटिस जारी कर एक पुलिस आदेश का हवाला देते हुए परिसर और उसके आसपास छात्रों और शिक्षकों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दिया. इस कदम की छात्रों और शिक्षकों दोनों ने आलोचना की.
इससे पहले, 14 सितंबर को, सफूरा जरगर नाम की एक छात्रा जो समाजशास्त्र विभाग में एम.फिल कर रही थी, को जामिया प्रशासन ने कैंपस आने पर पाबंदी लगा दी थी. 19 दिनों के बाद उसे विश्वविद्यालय ने डिग्री पूरा करने के लिए एक्सटेंशन भी नहीं दिया. जरगर 2019-2020 में CAA विरोधी प्रदर्शनों का हिस्सा थीं, और उन्हें 2020 के पूर्वोत्तर दिल्ली दंगों में उनकी कथित भागीदारी के लिए कुछ समय के लिए कैद भी किया गया था, जिसमें 53 लोग मारे गए थे.
क्विंट ने जामिया के कई छात्रों, पूर्व छात्रों और फैकल्टी सदस्यों से विश्वविद्यालय के बदलते तौर तरीकों के बारे में बात की और जानना चाहा कि क्या कैंपस में अभी भी लोकतांत्रिक तौर तरीकों के लिए जगह बची हुई है?
’प्रॉक्टर का इस्तीफा होना चाहिए ’: जामिया टीचर्स एसोसिएशन
जामिया ने 26 सितंबर को जो "निषेधात्मक" आदेश जारी किया वो दिल्ली पुलिस के नोटिस के एक हफ्ते बाद आया है. दिल्ली पुलिस के नोटिस में "19 सितंबर से 17 नवंबर तक जामिया नगर इलाके में सीआरपीसी की धारा 144 लागू होने की बात कही गई है. "
यह नोटिस उस वक्त जारी हुआ जब पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (PFI) के दफ्तरों पर त्योहारी सीजन की शुरुआत के साथ ही देशभर में छापेमारी हुई. वहीं कई मुद्दों पर जामिया के छात्रों और शिक्षकों ने विरोध जताया था उसके बाद नोटिस आया
जामिया टीचर्स एसोसिएशन (जेटीए) के अध्यक्ष प्रोफेसर माजिद जमील ने क्विंट को बताया, “हमने इस नोटिस की निंदा की और प्रॉक्टर के इस्तीफे की मांग की. हमने इसके बारे में कुलपति को भी लिखा है. परिसर के अंदर धारा 144 लागू करने की कोशिश करना अपने आप में एक गैरकानूनी पंरपरा है.”
नोटिस जारी होने से एक दिन पहले 27 सितंबर को JTA ने विश्वविद्यालय में शिक्षण स्टाफ की कुछ मांगों को रखने के लिए विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई थी.
प्रोफेसर जमील ने कहा, "दिल्ली पुलिस का नोटिस एक हफ्ते पहले आया था और हमारा मानना यह है कि विरोध प्रदर्शन से ठीक एक दिन पहले नोटिस जारी करना, हमारे शांतिपूर्ण विरोध मार्च को रोकने के लिए जानबूझकर उठाया गया कदम था.
इसी तरह की मिलती जुलती राय रखने वाले जामिया के शिक्षा विभाग के प्रोफेसर आदिल मोहम्मद ने कहा कि यह नोटिस विश्वविद्यालय का "चेतावनी देने" का तरीका है.
जामिया छात्रा दिब्या ज्योति त्रिपाठी ने कहा, "जामिया की छवि बार-बार खराब की जा रही थी, लेकिन हममें से जो या तो यहां पढ़ते हैं या यहां पढ़ाते हैं, उन्हें इस बारे में बहुत कम जानकारी थी कि धारा 144 क्यों लगाया गया".
जामिया नगर में रहने वाले जामिया के एक पूर्व छात्र अरहम अली खान ने बताया, 'सिर्फ पुलिस ही नहीं, कैंपस के आसपास सीआरपीएफ भी तैनात है, जो सामान्य नहीं है. उन्होंने कहा कि सीएए और एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों के बाद से, छात्रों को पुलिस पर अधिक संदेह हो गया है, क्योंकि हमने पुलिस की बर्बरता देखी है.
पुलिस की इस भारी मौजूदगी को छात्र भी महसूस करते हैं. जामिया कैंपस के नजदीक बाटला हाउस के पास रहने वाले फराज शम्स जो जामिया के फिजियोथेरेपी विभाग के पूर्व छात्र हैं ने कहा, ‘यह ऐसा है जैसे आप घर पर हैं लेकिन फिर भी आपको वैसे ही रहना है जैसा बाहरी लोग (पुलिस) आपसे चाहते हैं. पूरे इलाके पर लगातार नजर रखी जा रही है, और यह एक खुली जेल की तरह है’.
सफूरा जरगर पर प्रशासन का एक्शन जामिया के बुनियादी मूल्यों के खिलाफ
जामिया के कई छात्रों और पूर्व छात्रों ने क्विंट को बताया कि विश्वविद्यालय हमेशा से जिस उदार माहौल के लिए जाना जाता था, वह धीरे-धीरे किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन के खिलाफ हो गया है.
प्रशासन ने सफूरा जरगर के मामले में जो कुछ किया है उससे यह साफ हो गया है. एम.फिल की छात्रा ने अपनी डिग्री खत्म करने के लिए समय बढ़ाने की मांग की थी, लेकिन जामिया प्रशासन ने इनकार कर दिया . प्रशासन ने कहा था कि सफूरा जरगर को इसलिए एक्सटेंशन नहीं दिया गया था क्योंकि उनका "आवेदन देर से आया था और उनका प्रदर्शन असंतोषजनक था."
इसके तुरंत बाद चीफ प्रॉक्टर ने एक नोटिस जारी किया. इसमें सफूरा जरगर पर प्रतिबंध लगाने की बात कही गई थी. "यह देखा गया है कि सफूरा जरगर (पूर्व छात्रा) अप्रासंगिक और आपत्तिजनक मुद्दों के खिलाफ परिसर में आंदोलन, विरोध और मार्च आयोजित करने में शामिल रही हैं. कुछ छात्रों के साथ शांतिपूर्ण शैक्षणिक वातावरण को बिगाड़ने के ... मद्देनजर, सक्षम प्राधिकारी ने, पूरे परिसर में शांतिपूर्ण शैक्षणिक वातावरण बनाए रखने के लिए, उन पर कैंपस में पाबंदी लगाने को मंजूरी दे दी है. "
समाजवादी पार्टी के सांसद और जामिया के पूर्व छात्र जावेद अली खान ने कहा, "मुझे लगता है कि जरगर का मामला विशेष था. वह एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ रही थी और सरकारी प्रताड़ना का सामना कर रही थी. ऐसी परिस्थितियों में मानवीय आधार पर तकनीकी और नियमों को अलग रखा जाना चाहिए था. मुझे लगता है कि जामिया प्रशासन को जरगर को एक्सटेंशन देना चाहिए था.”
दिब्य ज्योति त्रिपाठी जैसी छात्रा जो ओडीशा के राउरकेला से आती हैं , वो मानते हैं कि जामिया उनके लिए एक लोकतांत्रिक जगह थी इसलिए वो यहां पढ़ने के लिए आईं.
लेकिन CAA , NRC विरोध और कोविड-19 के बाद, प्रशासन ने सिर्फ यहां से उठने वाली लोकतांत्रिक आवाजों को दबाने की कोशिश की है. हम बहुत कुछ 'माहौल ठीक नहीं हैं' सुन रहे हैं (स्थिति अनुकूल नहीं है). यहां तक कि परिसर और उसके आसपास विरोध प्रदर्शन के तौर पर बनाई गई पेंटिंग्स पर भी अधिकारियों की नजर है.
समाजवादी पार्टी के MP जावेद अली खान का आरोप है कि “जब से बीजेपी सत्ता में आई है, विश्वविद्यालय परिसरों का राजनीतिकरण करने की प्रक्रिया चल रही है.” उन्होंने क्विंट से कहा कि, “कैंपस को लोकतांत्रिक बनाने की बजाय लोकतंत्र को ही खत्म किया जा रहा है .”
जामिया की स्थापना 1920 में मोहम्मद अली जौहर (खिलाफत आंदोलन के कार्यकर्ता और प्रमुख नेता), हकीम अजमल खान (चिकित्सक), मुख्तार अहमद अंसारी (भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के पूर्व अध्यक्ष), अब्दुल मजीद ख्वाजा (वकील) और जाकिर हुसैन (भारत के पूर्व राष्ट्रपति और शिक्षाविद) और महमूद हसन देवबंदी की अध्यक्षता में हुई.
जामिया के बनाए जाने का समर्थन महात्मा गांधी ने किया था, जो अक्सर जामिया के संस्थापकों और कुलपतियों में से एक अंसारी को पत्र लिखा करते थे.
जामिया में एक पूर्व छात्र और एक कर्मचारी डॉ शफात उल्लाह खान ने कहा, “ब्रिटिश शासन के दौरान, जामिया के छात्रों और शिक्षकों ने 1920 के दशक के अंत में गांधीजी के आह्वान पर असहयोग आंदोलन में भाग लिया. इन्हीं आंदोलनों के कारण जामिया अस्तित्व में आया. यह असहमति से बनी संस्था है. इसलिए, अभी जो कुछ हो रहा है वो जामिया के अच्छे और लोकतांत्रिक माहौल के लिए ठीक नहीं है.”
15 दिसंबर 2019 को, दिल्ली पुलिस ने प्रदर्शनकारियों-छात्रों के साथ टकराव के दौरान जामिया परिसर में जबरदस्ती प्रवेश किया. लगभग 100 छात्रों को हिरासत में लिया गया और कई अन्य घायल हो गए और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया.
जामिया के पूर्व छात्र अमन पांडे ने कहा, "आप कह सकते हैं कि जामिया एक मिनी इंडिया जैसा है. यहां जो कुछ भी हो रहा है, वह भारत में सामान्य हो चुके रवैए का आईना मात्र है. एक बार जब हम 15 दिसंबर के आतंक से गुजरे, तो जामिया परिसर में सुरक्षा का जो भी भ्रम था, वह टूट गया. सब कुछ खत्म कर दिया गया."
इस बीच, पूर्व छात्र शम्स बताते हैं कि CAA और एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों के दौरान पैदा हुई स्थितियों पर जामिया प्रशासन ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दिखाई उसके बाद अब छात्रों में खुलकर बोलने को लेकर भी झिझक आने लगी है.
उन्होंने बताया कि,"ऐसा कभी नहीं था. जामिया अपने छात्रों के लिए था, यह छात्रों का था, लेकिन अब यह प्रशासन के अधीन है. अब, छात्र सिर्फ आ सकते हैं, पढ़ सकते हैं और जा सकते हैं ”
जामिया की यादें
समाजवादी पार्टी के सांसद खान, जो 70 के दशक के उत्तरार्ध में जामिया के छात्र थे, अपने समय में कैंपस के दिनों को याद करते हुए बताते हैं, 'हमारे जमाने में अगर एक भी पुलिस कर्मी कैंपस में घुस जाता तो बड़ा हंगामा होता. प्रॉक्टोरियल विभाग और पुलिस को अपने कारण बताने होते थे.
चीजें अब अलग हैं, जैसा कि पिछले कुछ वर्षों में हुई घटनाओं से पता चलता है. जामिया के कुछ पूर्व छात्रों ने क्विंट को बताया कि वे इस बात से हैरान नहीं हैं कि कैंपस अब किस तरह से बदल गया है.
जामिया के एक पूर्व छात्र अमन पांडे ने कहा कि एक जगह जो पहले किसी भी दूसरी यूनिवर्सिटी की तरह लोकतांत्रिक लगती थी .अब किसी तमाशा (मजाक) में बदल गई है, कई पूर्व छात्रों ने उन दिनों के बारे में बात की जब अनवर जमाल किदवई 1978 से 1983 तक जामिया के कुलपति रहे थे.
पूर्व छात्र अरहम अली खान ने बताया, “जब वो वीसी थे, मैंने कहानियां सुनी थीं कि कैसे वो अक्सर जामिया के सामने फूड स्टॉल पर छात्रों से मिलते थे. उनसे बात करते थे और उनकी समस्याएं सुनते थे लेकिन आज हमारे लिए वीसी से मिलना व्यावहारिक रूप से असंभव है. जामिया में एक कहावत है कि जब कोई प्रशासन से मिलना चाहता है तो लोग कहते हैं कि चप्पल घिस जाते हैं.
डॉ. शफात उल्लाह खान, जो 1975 में जामिया के स्कूल में एक शिक्षक के रूप में आए और फिर बाद में विश्वविद्यालय में दाखिला लिया, ने "जामिया के माहौल में आए भारी अंतर" की ओर इशारा किया.
जब वह 1976 में यहां छात्र थे, तब वह जामिया के छात्र संघ के संयुक्त सचिव हुआ करते थे. उन्होंने कहा, “मैं वीसी और रजिस्ट्रार, वित्त अधिकारी और वी-सी के पीआरओ के साथ लगातार संपर्क में रहता था. मुझे उनसे कभी कोई अपॉइंटमेंट नहीं लेना पड़ा. सब परिवार की तरह थे और छात्रों के विरोध को गंभीरता से लिया जाता था.
जब ए आर किदवई कुलपति थे तो सांसद जावेद खान भी जामिया में थे. उन्होंने कहा, "हम भाग्यशाली थे कि जब हम यहां पढ़ रहे थे, उस दौर में दो अच्छे वी-सी थे - शिक्षाविद् और पूर्व विदेश सेवा अधिकारी एजे किदवई, और राजनीति विज्ञान के प्रतिष्ठित प्रोफेसर अली अशरफ."
खान ने कहा कि दोनों ही" लोकतांत्रिक और उदार" थे.
उन्होंने कहा, "उन्होंने छात्रों के उठाए मुद्दे को हल करने का हर संभव प्रयास किया. उन्होंने कभी भी छात्रों के प्रति दुश्मनी का दृष्टिकोण नहीं अपनाया. लेकिन हाल के दिनों में जामिया प्रशासन ने निर्देशों और सरकार के हितों के पक्ष में विश्वविद्यालय की स्वायत्तता को पूरी तरह गिरवी रख दिया है.
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