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इलेक्टोरल बॉन्ड असंवैधानिक, अब चुनावी फंडिंग का क्या तरीका हो?

पूर्व सीईसी एस वाई कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को 'लोकतंत्र के लिए महान वरदान' बताया.

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सुप्रीम कोर्ट ने 15 फरवरी को एक ऐतिहासिक फैसले में विवादास्पद चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक करार दे दिया. मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-जजों की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी राजनीतिक दल को वित्तीय योगदान देने से बदले में उपकार करने की संभावना बन सकती है.  

इस फैसले के बाद राजनीतिक पार्टियों और कंपनियों द्वारा खरीदे गए चुनावी बॉन्ड के डाटा को लेकर देशभर में चर्चा है. अलग-अलग पार्टियों और इन कंपनियों के आर्थिक संबंधों पर सवाल उठ रहे हैं. अब बहस इस पर है कि आखिर चुनावी फंडिंग कैसे हो...आखिर कैसे नेता और जनता के बीच पारदर्शिता बनी रहे. 

बता दें, सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 15 फरवरी को फैसला देते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम को 'असंवैधानिक' करार देते हुए रद्द कर दिया था. साथ ही एसबीआई से 6 मार्च तक सारी डिटेल चुनाव आयोग के पास जमा करने को कहा था. इस पर एसबीआई ने 30 जून तक का समय मांगा और डाटा जारी भी कर दिया लेकिन वो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक नहीं. इसके बाद कोर्ट ने फटकार लगाते हुए स्टेट बैंक को यूनिक कोड के साथ तमाम डाटा जारी करने का आदेश दिया. 21 मार्च को SBI ने यूनिक नंबर समेत इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े सभी डाटा सार्वजनिक कर दिए.

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विशेषज्ञ और उनकी राय 

कुल मिलाकर बीते कुछ महीनों में इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर बने असंतुष्टि के माहौल के बीच विशेषज्ञों की इस पर अपनी-अपनी राय और सुझाव हैं. 

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की शीर्ष अदालत की पीठ ने कहा,  

‘चुनावी बॉन्ड संविधान के तहत सूचना के मौलिक अधिकार और भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हैं.’ उन्होंने कहा कि राजनीतिक दलों को गुमनाम चंदे वाली चुनावी बॉन्ड योजना संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत प्रदत्त मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करती है.'

वहीं, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को ‘लोकतंत्र के लिए महान वरदान’ बताया. उन्होंने कहा, 

‘हम सभी पिछले कई सालों से चिंतित थे. लोकतंत्र से प्यार करने वाला हर कोई इसका विरोध कर रहा था. मैंने खुद कई लेख लिखे और हमने जो भी मुद्दा उठाया, फैसले में उसका निपटारा किया गया है. सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से लोकतंत्र में लोगों का विश्वास बहाल होगा.’  

इसी के साथ पूर्व सीईसी ने फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट की सराहना करते हुए एक्स पर एक पोस्ट भी डाला, 

‘सर्वोच्च न्यायालय द्वारा चुनावी बॉन्ड को असंवैधानिक घोषित किया गया. उच्चतम न्यायालय को शुभकामनाएं.’ 

एक अन्य पूर्व सीईसी सुनील अरोड़ा ने कहा, 

‘चुनाव आयोग का पिछले काफी समय से यही रुख रहा है कि चुनाव प्रणाली ‘अधिक पारदर्शी’ होनी चाहिए. ऐसा न होने से जनता में लोकतंत्र को लेकर असंतोष की भावना पनप सकती है.’ 

इसके अलावा, पूर्व सीईसी टी एस कृष्णमूर्ति ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की सराहना करते हुए कहा, 

‘मैं फैसले से पूरी तरह सहमत हूं क्योंकि मैंने पहले भी सार्वजनिक रूप से कहा था कि चुनावी बॉन्ड चुनावों में पैसा जुटाने का सही तरीका नहीं है.’ उन्होंने कहा कि चुनावी बॉन्ड योजना ने कॉरपोरेट और राजनीतिक दलों के बीच सांठगांठ को बढ़ावा दिया है. 
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कैसे जुटाएं चुनावी फंड

डाटा सार्वजनिक होने के बाद पूरे देश में इस पर बहस छिड़ गई है कि आखिर चुनावी फंडिंग हो तो हो कैसे...! ऐसे में विशेषज्ञों ने अलग-अलग सुझाव दिए हैं.  

एक तरीका राष्ट्रीय चुनाव कोष 

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी एस कृष्णमूर्ति ने कहा कि राजनीतिक दलों के लिए फंड जुटाने का एक तरीका राष्ट्रीय चुनाव कोष है. उन्होंने इसको बढ़ावा देने का भी तरीका बताया है. पूर्व सीईसी कहते हैं कि जो कोई भी व्यक्तिगत या कॉरपोरेट दान करे, उसे 100 फीसदी टैक्स छूट का लाभ दिया जाए और इसी फंड से सभी राजनीतिक दलों को चुनावों के दौरान राशि आवंटित की जानी चाहिए. 

70 वर्षों से चंदा दे रहे दाता की गोपनीयता क्यों? 

जून 2010 और जून 2012 के बीच चुनाव प्राधिकरण का नेतृत्व करने वाले एसवाई कुरैशी ने कहा कि डोनेशन बैंकिंग प्रणाली के माध्यम से हो, यह ठीक है लेकिन दान को सार्वजनिक ही रखा जाना चाहिए. उन्होंने कहा, 

‘दाता गोपनीयता चाहता है लेकिन जनता पारदर्शिता चाहती है. दानकर्ता बदले में मिलने वाले लाभ, लाइसेंस, अनुबंध और यहां तक कि बैंक ऋण भी छिपाना चाहते हैं, शायद इसीलिए वो गोपनीयता चाहते हैं.’ पूर्व सीईसी कहते हैं कि वही दानकर्ता जो 70 वर्षों से दान कर रहे हैं, उनकी अचानक गोपनीयता की मंशा गलत है. 

पारदर्शिता के लिए डिजिटल भुगतान जरूरी 

ज्यादातर विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि जब तक गुमनाम नकद दान का प्रावधान रहेगा, तब तक भारत में पारदर्शिता की उम्मीद नहीं की जा सकती, भले ही यह सीमा कितनी ही कम क्यों न हो. एडीआर के संस्थापक सदस्य प्रोफेसर जगदीप छोकर का कहना है, 

‘राजनीतिक फंडिंग को स्वच्छ बनाने का सबसे कारगर तरीका राजनीतिक दलों को नकद भुगतान बंद करना है. भुगतान सिर्फ डिजिटल माध्यम से होना चाहिए.’  

ट्रस्ट के जरिए हो फंडिंग 

कुछ विशेषज्ञ फंडिंग के लिए ट्रस्ट की बात करते हैं. उनका मानना है कि सीधे-सीधे 'क्विड प्रो क्यो' पर (कुछ पाने के एवज में कुछ देना) लगाम के लिए एक तरह का ट्रस्ट कायम हो सकता है जिसमें बहुत सारी कंपनियां या व्यक्ति धन दान करें और इसे राजनीतिक दलों में बांटा जाए.

जानकार कहते हैं कि इसका फायदा ये है कि इसमें ट्रस्ट को ये बताना होता है कि उसने किस दल को कितना चंदा दिया? हालांकि, ट्रस्ट का आइडिया साल 2013 में यूपीए सरकार के समय भी आया था. 

हर वोट के लिए निश्चित राशि दी जाए 

पूर्व सीईसी एसवाई कुरैशी का सुझाव है कि प्रत्येक वोट के लिए एक पार्टी को एक निश्चित राशि प्रदान करने के लिए एक राष्ट्रीय चुनाव कोष की स्थापना की जाए. उन्होंने कहा कि यदि एक वोट के लिए 100 रुपये तय किए जाएं तो अगर किसी राजनीतिक दल को 10 मिलियन वोट मिलते हैं. ऐसे में वह 100 करोड़ रुपये की राज्य निधि का हकदार होगा.

इंटरनेशनल आईडीईए द्वारा जर्मनी, बेल्जियम, ग्रीस, फिनलैंड और स्वीडन सहित 180 देशों के एक अध्ययन में पाया गया कि 71 देशों ने प्राप्त वोटों के आधार पर राज्य निधि देने की प्रथा का पालन किया.  

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बाकी देशों की स्थिति 

भारत की तरह दुनिया भर के अधिकांश देश पारदर्शिता के बीच संतुलन बनाने के लिए कोशिश कर रहे हैं. कई देशों में, छोटे दानदाताओं को गुमनाम रहने की अनुमति है, जबकि बड़े चंदे को सार्वजनिक करना जरूरी है. अलग-अलग देशों में पब्लिक फंडिंग के विभिन्न मॉडल हैं.  

उदाहरण के लिए, यूके में, किसी पार्टी को एक कैलेंडर वर्ष में एक ही स्रोत से मिले कुल £7,500 (लगभग 8 लाख रुपये) से अधिक के दान को रिपोर्ट करना जरूरी है, वहीं जर्मनी में, एक पार्टी के लिए कीमत €10,000 (लगभग 9 लाख रुपये) है. 

कुछ देशों में केवल पार्टियों को ही फंड मिलता है, उम्मीदवारों को नहीं. जैसे जापान में पार्टियों को प्रत्येक वोट के लिए 250 येन मिलते हैं. इसके अलावा इजरायल में, 1 प्रतिशत से कम वोट पाने वाली पार्टियों को कोई फंडिंग नहीं मिलती है. 

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इलेक्टोरल बॉन्ड है क्या?

चुनावी बॉन्ड की घोषणा 2017 के केंद्रीय बजट में की गई थी और इन्हें लागू 29 जनवरी, 2018 में किया गया था. यह एक किस्म का वित्तीय इंस्ट्रूमेंट था, जिसके जरिये कोई भी राजनीतिक दलों को गुमनाम रूप से चंदा दे सकता था. 

सरल भाषा में कहें तो यह एक स्टेटमेंट की तरह होता था, जिसे भारत का कोई भी नागरिक या कंपनी भारतीय स्टेट बैंक की चुनिंदा शाखाओं से खरीद सकता था और अपनी पसंद के किसी भी राजनीतिक दल को गुमनाम तरीके से दान कर सकता था. इन पर कोई ब्याज भी नहीं लगता था. यह 1,000, 10,000, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपयों के मूल्य में उपलब्ध थे. 

चंदा देने वाले को बॉन्ड के मूल्य के बराबर की धनराशि एसबीआई की अधिकृत शाखा में जमा करवानी होती थी. यह भुगतान सिर्फ चेक या डिजिटल प्रक्रिया के जरिए ही किया जा सकता था. बॉन्ड कोई भी व्यक्ति और कोई भी कंपनी खरीद सकती थी। कोई कितनी बार बॉन्ड खरीद सकता था, इसकी कोई सीमा नहीं थी। 

चुनावी बॉन्ड्स की अवधि केवल 15 दिनों की होती थी, जिसके दौरान इसका इस्तेमाल सिर्फ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता था. केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिये चंदा दिया जा सकता था, जिन्होंने लोकसभा या विधानसभा के लिए पिछले आम चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो.

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