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आनंद तेलतुंबडे की जमानत राहत है, पर क्या यह जीत है? सुनिए विशेषज्ञों के विचार

Anand Teltumbde को बेल लेने में ढाई साल लग गए, विशेषज्ञों ने क्विंट को बताया कि इस केस में न्यायपालिका असफल रही है

Published
भारत
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भीमा कोरेगांव-एलगार परिषद केस के 16 आरोपियों में से एक आनंद तेलतुंबडे की जमानत को 25 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा था. 26 नवंबर को वे जेल से बेल पर रिहा हो गए. उन्होंने एक बार लिखा था:

“माओवाद और राष्ट्रवाद, आधुनिक दौर में क्रमश: जाति रहित और जाति युक्त भाव की व्यंजनाएं हैं.”

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73 साल के जाति विरोधी लेखक तेलतुंबडे 2020 से यूएपीए संबंधी आरोपों में जेल में बंद थे. शायद वे गलत नहीं कह रहे थे.

शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में जारी सुनवाई में एनआईए ने उनकी दलितों को एकजुट करने की कोशिशों को ‘माओवाद’ से जोड़ने की बहुत कोशिश की. इससे चिढ़कर मुख्य न्यायाधीश जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ ने पूछा,

“क्या दलितों को एकजुट करने की कोशिश, प्रतिबंधित गतिविधियों के पहले किए जाने वाला कदम है?”

जब एनआईए ने तेलतुंबडे के खिलाफ सारे “सबूत” पेश कर दिए, तो मुख्य न्यायाधीश ने आगे पूछा “केस में तेलतुंबडे की भूमिका क्या है?”

बल्कि 18 नवंबर को बॉम्बे हाईकोर्ट ने जो जमानत आदेश दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है, उसमें भी कहा गया था कि तेलतुंबडे को मेरिट के आधार पर जमानत दी गई है (मतलब प्राथमिक नजर में उनके खिलाफ कोई केस नहीं बनता).

लेकिन एनआईए ने हाईकोर्ट के बेल ऑर्डर के खिलाफ, सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाते हुए जमानत को एक हफ्ते टालने की अपील की.

पढ़ें ये भी: भीमा कोरेगांव केस:NIA का ड्राफ्ट चार्ज सबमिट, PM की हत्या की साजिश का जिक्र नहीं

मद्रास हाईकोर्ट के पूर्व जज 'के चंद्रू' ने द क्विंट के साथ बातचीत में कहा, “एक अपराध से ज्यादा यह (भीमा कोरेगांव-एलगार परिषद केस) एक वैचारिक लड़ाई है” बता दें जस्टिस चंद्रू के लेखन ने ही फिल्म जय भीम को प्रेरणा दी थी.

“न्यायिक व्यवस्था असफल हुई, यह निंदनीय है कि उन्हें इंतजार करना पड़ा”

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए जस्टिस चंद्रू ने कहा कि केस में आरोपी व्यक्ति सालों से बीजेपी की “एकल आयामी” इतिहास को स्थापित करने की कोशिशों को “चुनौती” देता आ रहा है.

“यह असामान्य है कि पहली बार मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक साझा साजिश के आरोप में साझा आरोपी बनाया है.”

तो इन 16 आरोपियों के खिलाफ “जो आरोप गढ़े गए हैं”, वे इनकी, खासतौर पर दलितों की एक दूसरे दृष्टिकोण को स्थापित करने की कोशिशों की प्रतिक्रिया में थोपे गए हैं.

“मुझे बहुत खुशी है कि आखिरकार आनंद को बेल मिल गई.लेकिन न्यायिक व्यवस्था यहां बुरे तरीके से असफल हुई है और यह बेहद बुरी स्थिति है कि जमानत हासिल करने के लिए एक शख्स को ढाई साल इंतजार करना पड़ा, वह भी तब जब यह साबित हो गया कि प्राथमिक तौर पर उनके खिलाफ यूएपीए में कोई केस ही नहीं बनता.” - जस्टिस चंद्रू
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‘एनआई का आंतक धीरे-धीरे रुक रहा है’

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कोलिन गोंजाल्वेस ने तेलतुंबड़े को बेल देने में देरी के लिए न्याय व्यवस्था की आलोचना की, लेकिन उन्हें लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के पिछले कुछ आदेशों (जैसे गौतम नवलखा को हाउस अरेस्ट) को देखते हुए, ऐसा प्रतीत होता है कि “एनआईए का आंतक अब धीरे-धीरे रुक रहा है.”

उन्होंने कहा, “सालों तक यह लोग आम जनता के सामने यह पेश करते रहे कि आरोपी जैसे कोई खूंखार आंतकी हों, जबकि उनके खिलाफ सिवाए मनगढंत कहानियों के अलावा कोई सबूत ही नहीं था.”

गोंजाल्विस ने कहा कि यहां यह अहम है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का आदेश, बढ़े पैमाने पर संदर्भित वटाली (एनआईए बनाम जहूर अहम शाह वटाली) फैसले के खिलाफ भी गया है.

2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए इस फैसले के बाद यूएपीए के तहत आरोपित व्यक्तियों को बेल मिलना लगभग नामुमिकन हो गया था, खासकर तब, जब सरकार तब भी बेल का विरोध कर सकती थी, जब उसके सबूत कोर्ट में मान्य भी ना हों.

“राहत की बात यह रही कि सुप्रीम कोर्ट ने बेल में वैसा हस्तक्षेप नहीं किया, जैसा साईबाबा के केस में किया था”

 

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील संजय हेगड़े के लिए आनंद तेलतुंबड़े की रिहाई एक बड़ी राहत के तौर पर आई है, खासतौर पर इसकी जब जीएन साईबाबा की रिहाई में किए गए हस्तक्षेप से तुलना करें.

15 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को एक आपात सुनवाई में बॉम्बे हाईकोर्ट के उस आदेश को पलट दिया था, जिसमें प्रोफेसर जीएन साईबाबा को उनके माओवादी संबंधों के केस से बरी कर दिया था और उन्हें रिहा करने का आदेश दे दिया गया था.

हेगड़े ने आगे कहा, “न्यायालयों को नागरिकों की आजादी का संरक्षक होना चाहिए. यहां प्रोसेक्यूशन की यह मंशा कभी नहीं थी कि केस ट्रायल स्टेज पर पहुंचे (जैसा यूएपीए के दूसरे मामलों के साथ भी है) और अब वक्त आ गया है कि न्यायालय कदम उठाएं.”

लेकिन क्या यह जश्न मनाने की वजह है?

 

दिल्ली में काम करने वाले वकील अहम इब्राहिम कहते हैं, “लोग इस आदेश का जश्न मना रहे हैं, लेकिन तेलतुंबड़े को बिना बात के दो साल जेल में रहना पड़ा. उनकी रिहाई का आदेश एक राहत है, लेकिन इसमें जीत जैसा कुछ नहीं है.”

क्या भीमा कोरेगांव केस में जमानत का इंतजार कर रहे लोगों के लिए अब आशा जागी है?

जस्टिस चंद्रू कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने वाले फैसलों के लिए अच्छा संदर्भ बन सकता है, जिनपर निचले न्यायालय सुनवाई करेंगे, लेकिन यहां यह ध्यान में रखना चाहिए कि हर केस की सुनवाई ‘उसकी अपनी मेरिट’ पर होगी.”

हेगड़े कहते हैं, “हर केस को उसकी मेरिट पर देखना होगा, खासतौर पर तब जब इनमें से कई सबूतों के होने के अनुमान पर आधारित हैं, मैं यह नहीं कहना चाहूंगा कि सभी को जमानत मिल जाएगी, लेकिन हां, हर किसी को यह उम्मीद रखनी चाहिए कि अब उनका दर्द बिना जरूरत के लंबा नहीं खिंचेगा.”

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