भारत में प्राइवेट कंपनियों के पास फर्जी और अजीबोगरीब नाम वाली कंपनियों के साथ ऐसी ढेरों ऐसी कंपनियां बिखरी पड़ी हैं जो बंद हो चुकी हैं और जिनका कथित कामकाज से कोई लेना देना ही नहीं है. अक्सर ऐसा भी होता है कि इनके नाम और काम का कोई रिश्ता या मतलब नहीं है. हालत तो ये है कि इनमें से बहुत सी कंपनियों के काम करने का तरीका संदिग्ध है. ये इतने गुप्त तरीके से काम करती हैं कि आम तौर पर हम उनके बारे में नहीं सुनते.
ऐसी ही कंपनी है करंजा इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड....
- जिसके रिश्ते निखिल गांधी और अनिल अंबानी समेत डिफेंस सेक्टर की कई कंपनियों से है;
- इस कंपनी की ओनर मॉरिशस की कंपनी ब्लैकस्टोन कैपिटल लिमिटेड है जो समय-समय इसमें विदेशी निवेश करती रहती है
- इसके पास मामूली एसेट हैं और आय नहीं के बराबर है. (हकीकत तो ये है कि सालों साल कोई आय रही ही नहीं);
- इस पर 380 करोड़ रुपए का भारी भरकम अनसिक्योर्ड कर्ज है, लेकिन इस लोन का कोई ब्याज ही नहीं देती;
- किसी भी कंपनी को भारी भरकम एडवांस रकम दे देती है (करीब 260 करोड़ रुपए) और ...
- सबसे चौंकाने वाली बात तो ये है कि अपनी प्रॉपर्टी (जिसकी वैल्यू सिर्फ 63 करोड़ रुपए है) के एवज में कर्ज में डूबी कंपनियों को सैकड़ों करोड़ रुपए के बैंक लोन देने की गारंटी भी देती है.
अब ये सब कुछ इतना हैरान करने वाला है कि अगर आप अकाउंटेंट हैं तो आप इसकी बैलेंस शीट देखकर चौंक जाएंगे कि कंपनी कैसे चल पा रही है. अगर आप वकील हैं तो आप इसके अनसिक्योर्ड लोन देखकर अचरज में पड़ जाएंगे कि इंटरेस्ट फ्री लोन पर पाबंदी के बावजूद कंपनी कानूनी शिकंजे में क्यों नहीं फंसी.
अगर आप एन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) अधिकारी हैं तो विचार करेंगे कि क्या मनी लाउन्ड्रिंग, राउंड ट्रिपिंग और वित्तीय धोखाधड़ी जैसी तुच्छ चीजों की जांच शुरू करनी चाहिए.हम कोई आरोप नहीं लगा रहे, बल्कि कंपनी से जुड़े तमाम तथ्यों को सामने रख रहे हैं. अब आप खुद तय करें.शायद आप सोचें कि यह सब बेकार की बात है और सब कुछ ठीक-ठाक है. या फिर आपके मन में आ सकता है कि अगर कुछ थोड़ा बहुत गड़बड़ी है भी तो भी इतना हायतौबा लायक नहीं है. लेकिन ये भी हो सकता है कि आप कई सवाल पूछना चाहेंगे. जैसे
- आखिर इस कंपनी का वजूद क्यों है?
- इसका इसका मालिक कौन है?
- क्या करती है?
- क्यों ऊपरवाले के नाम पर चल रही कंपनी किसी को भी अपना समझकर उसकी मनमाफिक मदद कर देती है?
तो इतनी सारी जानकारी के बाद अगर कुछ लोगों की की सही, पर इस कंपनी के बारे में जानने की दिलचस्पी है तो हम भारत के छद्म प्राइवेट सेक्टर के बारे में उठ रहे सवालों का जवाब हासिल करने की कोशिश करते हैं.
मालिक कौन? रहस्यमय और भ्रामक
करंजा इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड (या KIPL) 18 मार्च 2004 को भारत में बनी. इसमें कुछ भी अनोखा नहीं दिखता. महज 1 लाख के शेयर कैपिटल से शुरू हुई और इसके दो गुमनाम शेयर धारक थे. लेकिन वित्तीय साल 2006-07 में इस कंपनी में दिलचस्प बात हुई. विदेशी कंपनी ब्लैकस्टोन कैपिटल लिमिटेड ने इसे खरीद लिया. जो लोग इंटरनेशनल फाइनेंस और इन्वेस्ट की दुनिया को समझते हैं उनके लिए हैरान करने वाली बात थी.
ब्लैकस्टोन ग्रुप इस क्षेत्र की मानी हुई कंपनी है जो दुनिया की बड़ी कंपनियों में निवेश कर रही थी.अचरज की बात यही थी कि ब्लैकस्टोन जैसी नामी गिरामी इंटरनेशनल कंपनी ने KIPL जैसी कंपनी को क्यों खरीदा? और तो और उन्होंने 990 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से बहुत भारी भरकम प्रीमियम देकर 2015 में कंपनी में अपनी हिस्सेदारी 99.56 तक क्यों पहुंचा दी?
इनके जवाब आसान लगते हैं, लेकिन हैं नहीं
ब्लैकस्टोन ग्रुप ने ब्लैकस्टोन कैपिटल लिमिटेड में किसी भी तरह के निवेश से साफ-साफ इनकार कर दिया है. बल्कि उन्होंने तो इस कंपनी के वजूद पर ही हैरानी जताई है. इस सब से ऐसा लगता है कि केआईपीएल का मालिक अपनी असली पहचान छिपाने के लिए ब्लैकस्टोन नाम का इस्तेमाल कर रहा है.
ब्लैकस्टोन कैपिटल 2006 में मॉरिशस में बनी. उसी साल इसने केआईपीएल की ज्यादातर हिस्सेदारी खरीद ली. इससे पता चलता है कि कंपनी इसी मकसद के लिए बनाई गई थी. इस कंपनी को ग्लोबल बिजनेस कैटेगरी-1 के तौर पर रजिस्टर्ड कराया गया. मतलब फीस चुकाकर भी कोई इसका पूरा ब्योरा हासिल नहीं कर सकता. इसलिए हम पता नहीं लगा सकते कि ब्लैकस्टोन कैपिटल का मालिक कौन है. इसलिए ये पता लगाना भी मुश्किल होगा कि केआईपीएल का मालिकाना हक किसके पास है.
लेकिन ये तय है कि जो कोई भी इसका असली मालिक है वह ब्लैकस्टोन ग्रुप से जुड़ा हुआ तो नहीं ही है. फिर भी वो यही कोशिश कर रहा है कि ब्लैकस्टोन कैपिटल लिमिटेड को ब्लैकस्टोन ग्रुप से जुड़ा हुआ ही माना जाए. अब इस सबका मकसद या तो ये हो सकता है कि ब्लैकस्टोन ग्रुप के नाम पर भरोसा बना रहेगा या फिर किसी भी तरह की जांच पड़ताल को भ्रम में डाला जा सके. केआईपीएल के खातों में भी इसका कोई जिक्र नहीं है जबकि ये बताया जाना चाहिए कि KIPL की ओनर विदेशी कंपनी है. कंपनी के स्वामित्व के बारे में इतनी गोपनीयता संदेह बढ़ाती है और इससे केआईपीएल के कामकाज, लेनदेन पर भरोसा नहीं होता.
केआईपीएल का रहस्यपूर्ण कारोबार
आप पूछ सकते हैं क्यों? हम केआईपीएल के कामकाज और लेनदेन पर संदेह क्यों करें? सिर्फ इस आधार पर शंका नहीं की जा सकती कि इसका स्वामित्व एक ऐसी कंपनी के पास है जो झूठमूठ तौर पर बड़े ग्लोबल इन्वेस्टमेंट ग्रुप से जुड़ा दिखना चाहती है.
तो आइए आपको बताते हैं कि केआईपीएल के कारोबार के बारे में हम क्या जानते हैं? कंपनी के मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन में कंपनी का मकसद अस्पष्ट रखा गया है. एक तरह से इसमें कहा गया है कि वो इंफ्रास्ट्रक्चर फेसिलिटी और सर्विस से जुड़े तमाम धंधे करेगा.
द क्विन्ट ने दो हफ्ते पहले केआईपीएल को ईमेल (मिनिस्ट्री ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स में उपलब्ध आधिकारिक ईमेल के पते पर) से तमाम सवाल भेजे, जिसमें कंपनी के कारोबार और उन प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी मांगी गई जिन पर कंपनी काम कर रही है. लेकिन अभी तक हमें इसका कोई जवाब नहीं मिला.
हम कंपनी के रजिस्टर्ड पते पर भी गये : शॉप नंबर 23, नेशनल पैलेस, टक्का पनवेल, पनवेल (रायगढ़, नवी मुम्बई के पास) इस दुकान का शटर गिरा हुआ था. लेकिन यह भी पता चला कि शॉप नम्बर 22 भी केआईपीएल की ही है. वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति ने कंपनी के बारे में पूछे गये सवालों का कोई जवाब नहीं दिया. उन्होंने केवल ये माना कि कंपनी जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट एरिया में कुछ काम कर रही है.
उन लोगों ने यही जोर दिया कि वो उनके बॉस से बात कर लें. लेकिन यह बताने से इनकार कर दिया कि उनके बॉस कौन लोग हैं या उनसे कैसे संपर्क किया जाए. हमने पड़ोस की दुकान से उस बॉस का नंबर हासिल कर लिया जो कभी-कभी यहां आया करता था, लेकिन यह नम्बर भी बंद मिला.
हम कॉरपोरेट मंत्रालय में दर्ज सूचना के मुताबिक कंपनी के एक डायरेक्टर तक भी पहुंचे. लेकिन उन्होंने कहा कि वो कंपनी के बिजनेस के बारे में समझा नहीं पाएंगे. उन्होंने ये भी बताया कि वो फरवरी 2016 में कंपनी से इस्तीफा दे चुके हैं. हालांकि मिनिस्ट्री ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स की वेबसाइट में उपलब्ध जानकारी के अनुसार 30 सितम्बर 2017 को कंपनी की वार्षिक रिपोर्ट में उनके दस्तखत हैं. उनसे जब ये पूछा गया तो उन्होंने इस पर भी चुप्पी साध ली.
इन सब बातों से देखा जा सकता है कि कंपनी के कारोबार के बारे में पूछी गयी हर बात को छिपाने की कोशिश की गई, जिसकी कोई स्पष्ट वजह नहीं थी. बल्कि हमने सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर जब एक एक तार जोड़े तो कंपनी के बारे में कोई अच्छी इमेज नहीं बनी.
ब्लैकस्टोन कैपिटल लिमिटेड ने जब से KIPL को खरीदा है, उसके बाद इसने (KIPL) नवी मुंबई के पास रायगढ़ जिले में जमीन खरीदी है. यह जवाहरलाल नेहरू पोर्ट के पास है. कंपनी के अकाउंट के मुताबिक इस जमीन और दूसरे स्थायी एसेट की वैल्यू 49 करोड़ से ज्यादा नहीं है. पिछले वित्तीय वर्ष में इसकी आय सिर्फ 62.6 लाख रुपये ही रही थी.
कई सालों से कंपनी की आय लगातार बहुत कम ही रही है और इसने अपने किसी काम से कभी कोई पैसा नहीं कमाया. कई सालों से इसकी आय सिर्फ इसके फिक्स्ड डिपॉजिट से मिलने वाला ब्याज ही रहा. हालांकि 2016-17 में शेयर बाज़ार से कमाई होने पर इसमें अचानक बदलाव आया.
केआईपीएल की सबसे ज्यादा आय 2014-15 में रही जब इसने 4.7 करोड़ रुपये कमाए. हालांकि इसके बावजूद कंपनी को 52.3 लाख रुपये का घाटा हुआ. इसके बाद लगातार दो वित्तीय सालों (2012-14) तक इसे कोई आय नहीं हुई. कुल मिलाकर यही लगता है कि कंपनी के पास किसी तरह के कारोबार या आय का कोई जरिया है.
कंपनी के दस्तावेजों में एक ही उल्लेखनीय चीज दिखी कि नवी मुंबई के पास प्रस्तावित फ्री ट्रेड वेयर हाऊसिंग ज़ोन (एफटीडब्ल्यूज़ेड) आने से उन्हें फायदा होगा क्योंकि ये उनकी जमीन पर बनने वाला है. 15 अप्रैल 2015 की शेयर वैल्युएशन रिपोर्ट के मुताबिक केआईपीएल को भारत सरकार ने फ्री ट्रेड वेयर हाउसिंग जोन बनाने के लिए औपचारिक मंजूरी मिल गई है. दस्तावेजों में बताया गया है कि कंपनी को पोर्ट का विस्तार होने का फायदा भी मिलेगा. शेयर वैल्युएशन रिपोर्ट से ऐसा लगता है कि फ्री ट्रेड वेयर हाउसिंग जोन से सालों साल कंपनी की कमाई का रास्ता खुल जाएगा.
लेकिन 1 दिसम्बर 2017 तक सरकार की तरफ से जो स्पेशल इकोनॉमिक जोन (SEZ) की जितनी लिस्ट जारी हुई हैं उसमें कहीं भी KPIL फ्री ट्रेड वेयरहाउसिंग जोन का जिक्र तक नहीं है. इससे कंपनी की कमाई की इस इकलौती उम्मीदों पर भी पानी फिर जाता है.
एक बार फिर आप पूछ सकते हैं कि इससे क्या फर्क पड़ता है. सारे कारोबार सफल ही हों, यह जरूरी नहीं, फिर केआईपीएल को अलग तरीके से क्यों देखें? यहां भी आपकी बात जायज है. लेकिन पेंच यही फंसता है. हैरानी की बात भी तो यही है कि कोई एसेट नहीं, कमाई का कोई जरिया नहीं तो फिर भी केआईपीएल कर्ज में डूबी डिफेंस कंपनियों को कैसे बचा पा रही है? उनकी मदद कैसे कर रही है?
कर्ज में डूबी डिफेंस कंपनियों को सहारा देने की रहस्यमय क्षमता
KIPL ने 2013 के बाद से कम से कम छह बार प्राइवेट डिफेंस कंपनियों के लोन की गारंटी के लिए अपने एसेट गिरवी रखे. यस बैंक और आईडीबीआई बैंक ने यही गारंटी रखकर उन्हें लोन दिए. सोचिए केआईपीएल के एसेट की गारंटी के बदले बैंक कुल लोन 1452 करोड़ रुपये का लोन दे चुके हैं. इनमें से दो लोन अंतरिम तौर पर बंद कर दिए गये हैं. इसलिए केआईपीएल के एसेट गिरवी रखने के बदले या बैंक गारंटी के बदले कम से कम 905 करोड़ के लोन अभी भी चल रहे हैं.
हम इसे ‘कम से कम’ इसलिए कहते हैं क्योंकि यह आंकड़ा केआईपीएल के उन दस्तावेजों पर आधारित हैं जो मिनिस्ट्री ऑफ कॉरपोरेट अफेयर्स को दिए गए हैं. हालांकि, द क्विंट ने केआईपीएल बोर्ड में पास प्रस्तावों पर नजर डाली है जिसमें 2015 में यस बैंक द्वारा 135 करोड़ रुपये के कर्ज के लिए कम से कम एक अन्य गारंटी दी गई है. लेकिन ये कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय की वेबसाइट में जमा दस्तावेजों में शामिल नहीं है.
इन गारंटियों से फायदा किस किस को मिला है? ये अजब गजब तरह की कंपनियों का घालमेल है. इनमें ई कॉम्पलेक्स प्राइवेट लिमिटेड, फास्टलेन डिस्ट्रीपार्क्स और लॉजिस्टिक्स लिमिटेड, हॉरिजन कंट्री वाइड लॉजिस्टिक्स लिमिटेड, पीपावाव डिफेंस और ऑफ शोर इंजीनियरिंग कंपनी के साथ पीपावाव इंजीनियरिंग एंड डिफेंस सर्विसेज़ लिमिटेड भी शामिल हैं.
आपने इनका कभी नाम नहीं सुना? आपकी गलती नहीं है. भारत का प्राइवेट डिफेंस सेक्टर तो पारदर्शी है और न मशहूर है.
क्या केआईपीएल और उसकी बैंक गारंटी का फायदा उठाने वाली कंपनियों में कोई रिश्ता है?
ऐसा कुछ है जो इन कंपनियों को जोड़ता है- गुजराती उद्योगपति निखिल गांधी. निखिल गांधी 1990 के दशक में ही प्राइवेट डिफेंस सेक्टर से जुड़ गए थे और ये सभी कंपनियां उनकी कंपनियों के नेटवर्क का हिस्सा थीं जिन्हें उन्होंने डायरेक्ट या इनडायरेक्ट तौर पर बनाया था. केआईपीएल का भी निखिल गांधी के नेटवर्क से संबंध है. इनमें एसकेआईएल इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड जैसी कंपनियां भी शामिल है जिसमें निखिल गांधी की हिस्सेदारी है.
2004 में बनी कंपनी के दस्तावेज में एक और गूढ़ कनेक्शन दिखता है कि कंपनी के दोनों फाउंडिंग प्रोमोटर (जो अब इसमें नहीं हैं) ओर से दिए गये संपर्क का पता- मुंबई का ‘पीपावाव हाऊस’.
केआईपीएल के बैंक गारंटी में अनिल अम्बानी की रिलायंस डिफेंस कंपनीज़ पोर्टफोलियो की कम से कम दो कंपनियां शामिल हैं. दोनों पीपावाव कंपनियों को रिलायंस ग्रुप ने 2015 में खरीदा था. केआईपीएल ने 2016 में इन कंपनियों के लिए लोन गारंटी दी थी.
स्किल इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड में मैनेजर मिलन मंडानी की केआईपीएल में 0.22 परसेंट हिस्सेदारी है. वो रिलायंस नेवल और इंजनियिरंग में मार्च 2017 तक अहम पद पर थे. (जब यह रिलायंस डिफेंस और इंजनीयिरिंग लिमिटेड के नाम से जाना जाता था)
केआईपीएल का रिलायंस से हाल तक एक और कनेक्शन रहा. रिटायर्ड नेवी कमांडर शांतनु सुकुल. जैसा कि हमने हाल की स्टोरी में बताया था कि शांतन सुकुल रिलायंस नेवल एंड इंजीनियरिंग में सितंबर 2015 से कम से कम सितंबर 2018 तक सलाहकार थे. इससे पहले वो कंपनी के जनरल मैनेजर रहे और तब भी पीपवाव से उनका नाम जुड़ा था. वो रिलांयस डिफेंस में डीजीएम भी थे जो रिलायंस डिफेंस पोर्टफोलियो की होल्डिंग कंपनियों में एक थी जिसमें रिलांयस एयरोस्ट्रक्चर लिमिटेड शामिल थी (जिसने राफेल ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के लिए दसॉ के साथ जेवी बनाया)
शांतनु सुकुल केआईपीएल में अप्रैल 2014 से डायरेक्टर रहे हैं. इसके बाद केपीआईएल ने अपने एसेट में कम से कम तीन गारंटी दी. हालांकि उनका दावा है कि उन्होंने केआईपीएल से इस्तीफा दे दिया था.
इन तमाम गारंटी को लेकर दिक्कत क्यों है?
गारंटी को लेकर उठे सवाल और संदेह उन कंपनियों को लेकर नहीं बैलेंस शीट और कामकाज को लेकर हैं. केआईपीएल ने जिनकी गारंटी ली उनमें से किसी की बैलेंसशीट तंदरुस्त नहीं है. जैसे रिलायंस नेवेल एंड इंजीनियरिंग को ही देख लीजिए. आईडीबीआई बैंक जिसे हाल ही में दिवालिया अदालत में ले गया है. इसका मतलब ये है कि केआईपीएल उन कंपनियों को कर्ज दिलवा रहा था जो डिफॉल्ट की कगार पर खड़ी हैं.
जोखिम का मतलब यह नहीं होता कि कोई कंपनी उनके लिए लोन की गारंटी नहीं ले सकती या उन्हें वह लोन कभी दिया ही नहीं जाना चाहिए. लेकिन एक कंपनी जिसके पास सिर्फ 62 करोड़ रुपए के एसेट हों वो बैंक लोन के लिए उन कंपनियों की गारंटर बन रही थी जिनकी बैलेंसशीट खस्ता हाल है. ये बैंक या केआईपीएल दोनों के लिहाज से गले से उतरने वाली बात नहीं लगती है.
बल्कि बैंकों को किसी भी हालत में ऐसी गारंटी स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी- केआईपीएल के दूसरे एसेट भी भरोसे लायक नहीं हैं. केपीआईएल ने 2012-13 और 2013-14 में केआईपीएल को जीरो कमाई दिखाई, फिर भी 2013 और 2014 में कम से कम चार बैंक गारंटी दी गयी. इतने चौंकाने वाले खातों को देखते ही बैंकों को गारंटी के प्रस्ताव और लोन को तुरंत खारिज कर देना चाहिए था. लेकिन हुआ उल्टा गारंटी मंजूर कर ली गई.
लंबी अवधि का रहस्यमय कर्ज
केपीआईएल की सालाना रिपोर्ट में लंबी अवधि की देनदारियों के एक ब्यौरे ने उत्सुकता बढ़ा दी. 31 मार्च 2015 के मुताबिक कंपनी पर कोई अनसिक्योर्ड लोन नहीं था. इसका मतलब ये है कि उसने किसी भी कर्ज के लिए गारंटी नहीं दी थी.
कॉरपोरेट की दुनिया में किसी कंपनी के लिए बड़ा अनसिक्योर्ड लोन हासिल करना अजीब सी बात है क्योंकि बैंक या कर्ज देने वाले कोई संस्थान रकम वसूली का रास्ता निकाले बगैर कोई बड़ी रकम उधार देने को तैयार नहीं होते. ऐसे में या तो एसेट गिरवी रखकर गारंटी दी जाती है या फिर किसी बाहरी गारंटर के जरिए ऐसा किया जाता है. केआईपीएल ने दूसरी कंपनियों के लिए बाहरी गारंटर वाली भूमिका निभाई.
और फिर भी वित्तीय साल 2015-16 में केआईपीएल ने अचानक 374.7 करोड़ का भारी अनसिक्योर्ड कर्ज ले लिया. ये पैसा कहां से आया? उन्हें नहीं मालूम. उन्हें इस रकम की जरूरत क्यों पड़ी? ये हम नहीं जानते. इस रकम का उन्होंने क्या किया? हमें इस बारे में नहीं पता. हालांकि हम जानते हैं कि उस साल उनका खर्च डेढ़ करोड़ या इससे ज्यादा नहीं रहा.
इससे भी ज्यादा कंफ्यूजन वाली बात ये हैं कि 2015 से पहले कंपनी की बैलेंस शीट में अनसिक्योर्ड लोन नहीं था. लेकिन उन पर बड़ी रकम की लंबी अवधि की देनदारी लम्बे समय से रही है. खोजते खोजते हमने पाया कि 2008 से केआईपीएल पर करीब 366 करोड़ की देनदारी है. कंपनी (केआईपीएल) को यह रकम दो कंपनियों इक्विटी ओवरसीज़ प्राइवेट लिमिटेड और ऑरेंज लाइफस्टाइल प्राइवेट लिमिटेड से मिली थी.
इस वक्त इनमें से किसी भी कंपनी का वजूद नहीं है. ऐसा नहीं लगता कि ये भारतीय कंपनियां हैं. फिर भी केआईपीएल के अकाउंट में लोन चल रहा है और वो हमें ये नहीं बताते कि ये रकम किसकी है. ये बात स्टैंडर्ड पैमानों से एकदम उलट है.
इतनी कम शेयर पूंजी वाली कंपनी के लिए (15 करोड़ पेड अप, 50 करोड़ अधिकृत) यह आसमान से टपका धन है और इसका कोई व्यावसायिक मतलब नहीं है. ऐसी छोटी कंपनी के लिए इतना बड़ा लोन आम तौर पर दो ही वैध तरीकों से आता है. या तो बैंक या फिर अपने ही कॉरपोरेट ग्रुप की कंपनियां.
लेकिन केआईपीएल की बैलेंस शीट बताती है कि 370 करोड़ रुपये से सिर्फ 5 लाख रुपए ही बैंक से मिले. वो ये भी घोषित करते हैं कि संबंधित कंपनियों से उनका कोई लेन-देन नहीं होता. तो फिर कोई और कंपनी अचानक से उन्हे पैसा क्यों देगी?
केआईपीएल के ऑडिटर की 2016-17 की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि कंपनी इस लोन पर कोई ब्याज नहीं देती और ना ही उस पर कोई ब्याज बकाया है. इससे लोन को लेकर कई सवाल खड़े होते हैं क्योंकि कंपनीज़ एक्ट 2013 के बाद से कोई कंपनी ऐसा लोन नहीं ले सकती जिसमें कोई ब्याज नहीं देना पड़े. ये कानूनन गलत है.
और भी जानना चाहते हैं? अनसिक्योर्ड लोन वित्तीय साल 2015-16 में लिए गये या फिर कम से कम यह साल था जब पुराने कर्ज अचानक अनसिक्योर्ड लोन रूप में सामने आए. किन्हीं कारणों से केआईपीएल ने उस साल रिटर्न दाखिल नहीं किया. उनका रिटर्न 2018 में ही दायर किया गया. जो दस्तावेज 2018 में जमा किए गए उसमें दस्तखत 2016 और 2017 के ही हैं.
यह रहस्य हमें क्या बताता है?
तो अब लौटते हैं हमारे सबसे पहले के सवाल पर. केआईपीएल का वजूद (अस्तित्व) क्यों है? यह कोई कारोबार करती नहीं दिख रही और न कोई खास कमाई करती दिख रही है. इसने इतना बड़ा कर्ज क्यों ले रखा है? इसके खाते में इतने बड़े कर्ज क्यों हैं? और इन निजी कंपनियों के साथ वित्तीय मामलों में यह अपना सबकुछ दांव पर लगाने को क्यों तैयार है?
जैसा कि हमने जिक्र किया है कोई भी केआईपीएल के कारोबार से जुड़े सवाल का जवाब देना नहीं चाहता. शायद यहीं हमारा सवाल है कि ऐसा क्यों हैं?
केआईपीएल चल रही है बल्कि अपने खास तरीके से प्रोग्रेस भी कर रही है. जबकि सामान्य तौर पर ऐसा नहीं होना चाहिए था. मतलब है कि इसका काम करने के पीछे जरूर कोई गूढ़ मकसद है जिससे किसी को फायदा हो रहा है और वो है प्राइवेट डिफेंस सेक्टर. ये तमाम बातें केआईपीएल जैसी कंपनियों की भूमिका और इस सेक्टर के बारे में सवाल उठाती हैं.
केआईपीएल में ऐसा क्या खास है? उसे पैसे कहां से मिल रहे हैं? बैंक दूसरों को लोन देने के लिए इसकी गारंटी क्यों ले लेते हैं? ऐसा क्या ‘कारोबार’ है जो ऐसी कंपनी को फायदा दे रहा है?
और केआईपीएल जैसी और कितनी कंपनियां हैं?
(अंकिता सिन्हा और संजॉय देब के इनपुट के साथ)
द क्विंट ने ब्लैकस्टोन ग्रुप, करंजा इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड, शांतनु सुकुल, यस बैंक, आईडीबीआई ट्रस्टीशिप सर्विसेज़ लिमिटेड, अनिल अंबानी रिलायंस डिफेंस ग्रुप और निखिल गांधी से इस स्टोरी पर प्रतिक्रिया लेने की कोशिश की. हमें अभी तक ब्लैकस्टोन ग्रुप का ही जवाब मिला है जिसने ब्लैकस्टोन कैपिटल लिमिटेड में निवेश से इनकार किया है. इसके अलावा हमें सिर्फ शांतनु सुकुल की तरफ से भी जवाब मिला जिसका जिक्र स्टोरी के संबंधित हिस्से में किया गया है. दूसरे कोई और जवाब आते ही हम स्टोरी को अपडेट करेंगे
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