अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में अक्सर दूसरी पार्टी के नेता कहते थे कि ‘वो गलत पार्टी में सही नेता हैं’. लेकिन समय के साथ वाजपेयी ने इसे हमेशा झुठलाया है. एक बार नहीं बार बार इसे झुठलाते गए. उन्होंने बीजेपी का जनाधार बढ़ाया बल्कि समय के मुताबिक पार्टी की विचारधारा में भी बदलाव करते गए. बीजेपी की कट्टरता पर अटल की उदारता हमेशा भारी रही. अब वो नहीं है लेकिन उनकी नीतियां, उनकी आवाज हमेशा याद रहेगी.
8 अगस्त 2003 को अटल जब लोकसभा में आए तो उनके हाथ में सोनिया गांधी की लिखी एक चिट्ठी थी और इस चिट्ठी के कुछ शब्दों पर वाजपेयी को आपत्ति थी.
लेकिन जिस तरह से वाजपेयी ने सदन में आपत्ति जताई, अपना विरोध पूरे संयम के साथ देश के सामने रखा वो आज के राजनेताओं के लिए एक मिसाल है.
नेहरू Vs वाजपेयी
पहली बार सांसद बने अटल बिहारी संसद में सीधे प्रधानमंत्री नेहरू तक से सवाल पूछ बैठते थे. एक बार तो उन्होंने संसद में ये तक कह दिया था कि नेहरू की शख्सियत विंस्टन चर्चिल (ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जो अपने जुझारु स्वभाव और भाषणों के लिए जाने जाते थे) और नेविल चेंबरलेन (ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जिन्हें तुष्टिकरण नीति के लिए जाना गया) का मिश्रण है.
वाजपेयी ने नेहरू की नीतियों का विरोध करने के बाद उनकी तुलना राम से की. पंडित नेहरू ने भी वाजपेयी के लिए कहा कि वे एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे. समय के साथ नेहरू की ये भविष्यवाणी सच भी साबित हुई.
‘मृत्यु से नहीं, बदनामी से डरता हूं’
13 दिन की बीजेपी सरकार का जाना तय था, जीती बाजी भी अटल राजनीति की वजह से हार चुके थे. उनकी सरकार अल्पमत में थी और बार- बार विपक्ष ये आरोप लगा रहा था कि अटल सत्ता की राजनीति कर रहे हैं.
हालात गंभीर थे, पार्टी का पूरा दारोमदार अटल पर था और फिर संसद में ऐसी अटलवाणी गूंजी कि विपक्ष को मुंह की खानी पड़ी, बीजेपी की सरकार चली गई लेकिन अटल ने पार्टी में एक नई जान फूंक दी थी.
और बर्फ जम गई.....
40 साल की सियासत में सिर्फ 6 साल की सत्ता ही अटल की नियति थी. साल 2005 में उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और पार्टी की कमान लाल कृष्ण आडवाणी और प्रमोद महाजन को सौंप दी.
कई साल बीमार रहने के बाद 16 अगस्त 2018 को वाजपेयी ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
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