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अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति में आना अपनी भूल क्यों मानते रहे?

अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में भले ही बुलंदिया छुई, लेकिन उनको राजनीति रास नहीं आई.

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भारत
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पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एक पत्रकार, कवि, एक लेखक, राजनेता, सियासत के बड़े महारथी, जिसकी उंगली पकड़कर कई लोग नेता बने, वो खुद कभी राजनीति में नहीं आना चाहते थे. 50 सालों तक राजनीति करने वाले अटल, जिन्होंने एक पार्टी बनाई उसे 2 से 200 के आंकड़े तक पहुंचाया. जिन्होंने 6 सालों तक देश पर राज किया. लेकिन उन्हें इस बात का अक्सर मलाल रहता था कि वो राजनीति में क्यों आए?

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अटल बिहारी वाजपेयी ने 1963 में नवनीत के संपादक को दिए एक इंटरव्यू में कहा था-

मैं स्वभाव से भुलक्कड़ हूं, पत्र का उत्तर ना देना, किसी को मिलने का समय देकर खुद घर से गायब हो जाना, ऐसी भूलें हैं, जिनकी भीड़ से स्मृति का भंडार भरा हुआ है, लेकिन मेरी सबसे बड़ी भूल है राजनीति में आना. मेरी इच्छा थी कि पठन-पाठन करूंगा, अध्ययन और अध्यवसाय की पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाऊंगा, अतीत से कुछ लूंगा और भविष्य को कुछ दे जाऊंगा, लेकिन राजनीति की रपटीली राह में कमाना तो रहा, गांठ की पूंजी भी गंवा बैठा.
अटल बिहारी वाजपेयी 
अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में भले ही बुलंदिया छुई, लेकिन  उनको राजनीति रास नहीं आई.

अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में भले ही बुलंदिया छुई, लेकिन उनके इंटरव्यू के अंश को पढ़कर यही लगता है, कि उनको राजनीति रास नहीं आई.

राजनीति में आकर मन की शांति मर गई, संतोष समाप्त हो गया. एक विचित्र खोखलापन जीवन में भर गया है, ममता और करुणा के मानवीय मूल्य मुंह चुराने लगे हैं. सत्ता का संघर्ष प्रतिपक्षियों से ही नहीं स्वयं अपने ही दल वालों से हो रहा है. पद और प्रतिष्ठा को कायम रखने के लिए जोड़-तोड़ सांठगांठ और ठुकुरसुहाती आवश्यक है. निर्भीकता और स्पष्टवादिता खतरे से खाली नहीं है. आत्मा को कुचलकर ही आगे बढ़ा जा सकता है.  
अटल बिहारी वाजपेयी 
अटल बिहारी वाजपेयी ने राजनीति में भले ही बुलंदिया छुई, लेकिन  उनको राजनीति रास नहीं आई.
अटल बिहारी वाजपेयी की पुरानी तस्वीर
(फोटो: ट्विटर)

अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा इस बात का जिक्र करते थे कि मैं पढ़ने-लिखने की दुनिया में रहना चाहता था, अध्यापक बनना चाहता था, लेकिन डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बलिदान ने मुझे झकझोर दिया और मैं राजनीति की रपटीली राह पर चल पड़ा.

इतना सब होते हुए भी राजनीति छुटती नहीं, एक चस्का सा लग गया है. प्रतिदिन समाचार पत्रों में अपना नाम पढ़कर जो नशा चढ़ता है, वह उतरने का नाम नहीं लेता, 

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